ध्रुवी की शादी को अभी महिनाभर ही हुआ था। वह ससुराल में सबको जानने समझने की कोशिश कर रही थी। किन्तु कैसे समझे किसे किसे समझे इतना बडा परिवार था इतने लोग उसे लगता जैसे कहीं भीड़ में खड़ी हो। वह एकल परिवार से आई थी जिसमें उसके मम्मी-पापा, और एक छोटा भाई और यह स्वयं थी मात्र चार लोगों
का परिवार। यहाँ उसके ससुर तीन भाई थे, उनके बच्चे, व बेटीयों, एवं बहूओं के भी बच्चे। यूं तो सबका खाना अपना अपना बनता था किन्तु रहते एक ही मकान में थे। तीनों के अलग-अलग पोर्शन थे। मकान बहुत बड़ा था सब हिल मिलकर रहते थे। पता ही नहीं लगता था कि बच्चा किधर खाना खा आया। उनकी जेठानीयाँ आपस में इतने प्रेम से रहती कि जिसके यहां कोई मनपसंद चीज बनती वही माँगकर खाने को ले लेती।
बटअमावस्या का त्यौहार आया। किसी अन्य की जरूरत ही नहीं थी। घर में ही इतनी महिलायें थीं सब सज धज तैयार हो इकट्ठीं हो गई एवं पूजा अर्चना की। जबकि उसकी मम्मी या तो अकेले ही पूजा करतीं थीं या फिर पड़ोसिनों के साथ जा कर। किन्तु वह उनमें घुल मिल नहीं पा रही थी। सो ज्यादातर समय वह अपने कमरे में ही बिताती । मोबाइल देखने में ही अपना समय व्यतीत करती। प्रखर ने भी उसे तीन-चार बार समझाया ध्रुवी तुम अकेली कमरे मैं क्यों पड़ी रहती हो मोबइल लिए। बाहर सबके साथ उठो-बैठो तुम्हें अच्छा लगेगा ।
एक बार बह प्रखर से बोली यहाँ घर में बहुत भीड़ है मुझे इतने लोगों में रहने की आदत नहीं है घबराहट होती है। प्रखर ने भी चुप्पी साध ली। चार माह निकल गए किन्तु ध्रुवी सबसे कतराती रहती।
तभी घर में शोर मचा दिल्ली बाली बुआजी कल आ रही हैं। बहस इस बात पर चल रही थी कि वे पहले किसके यहाँ रूकेंगी। हर कोई अपने यहाँ रोकना चाहता था। अंत में ध्रुवी की सास ने कहा मैं सबसे बडी हूं अतः दीदी पहले हमारे यहां रूकेंगी।सब साथ ही तो हैं सब मिल लेंगे।वे प्रखर की शादी में नहीं आ पाईं थीं सो ध्रुवी से मिलने आ रहीं हैं ।
अब ध्रुवी और परेशान हो गई ।एक व्यक्ति और बढ गया। न जाने कैसी स्वभाव की होंगी ।क्या-क्या नहीं सुनायेंगी। चिन्ता के मारे उसे रात को नींद नहीं आई। जब उसने अपने मन की चिन्ता सुबह प्रखर को बताई तो हंसने लगा बोला ध्रुवी पहले बुआ जी से मिल लो फिर मेरे से बात करना ।
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उसका देवर एवं चाचाजी का बेटा बुआ जी को लेने स्टेशन गये ।ग्यारह बजे तक बुआजी घर में हाजिर हो सबसे प्रेम से मिल रहीं थीं ,हाल चाल पूछ रहीं थीं ।सब बडे खुश हो रहे थे। बच्चों की नजर उनके बैग पर थी कि कब पिटारा खुले और उन्हें खाने को टॉफी, मिठाई मिले।
तभी ध्रुवी की जिठानी चाय नाश्ता ले आई दोनों चाचीजी भी आगईं । चाचाजी, पापा जी ,देवर ,जेठ ,नन्द सब इकट्ठे हो बातें कर रहे थे। ध्रुवी चुपचाप पीछे बैठी अचम्भीत सी सब देख रही थी। तभी बुआ जी बोलीं ध्रुवी कहाँ है। जिससे मिलने में भागी आई हूँ वह तो दिखाई नहीं दे रही।
मम्मी जी ने आवाज लगाई और वह सकुचाई सी उनके पास जा पैर छूने को जैसे ही झुकी उन्होंने उसे पकड़कर अपने गले लगाकर प्यार किया और बोली जितनी सुन्दर फोटो में लगी थी उससे भी ज्यादा सुन्दर है। खुश रहो बेटा, सौभाग्यवती रहो कह उन्होंने अपने पर्स में से एक सुन्दर सा डिब्बा निकाल कर उसे दिया और बोलीं शादी पर नहीं पाई थी
सो ये तुम्हारा शादी का गिफ्ट। उसने डिब्बा अपनी सास की ओर बढाया तो सास ने लेकर खोल कर सबकी उत्सुकता शांत करते हुये सुन्दर सा नेकलेस सबको दिखाया, फिर बोलीं ध्रुवी इधर आओ बेटा और अपने हाथों से उसके गले में पहना दिया। ध्रुवी सोच रही थी कि उसकी सहेलियां तो कहतीं थीं कि बुआ सास बहुत खुरन्ट होती है। बहुत ताने मारती है। पर यहाँ तो ऐसा लग ही नही रहा। थोडी देर रुकने के बाद वह अपने कमरे में चली गई।
बुआजी की पारखी नजरों ने ध्रुवी की चुप्पी, अनमनापन ताड लिया। वे सोचने लगी की यह लड़की बड़ी चुपचुप रहती है। न ज्यादा बोलती न बात करती है। कहीं प्रखर के साथ तो इसका रिश्ता सही है या परिवार में भाभी (सास) से अनबन तो नहीं।
आखिर एकान्त पा उन्होंने अपनी भाभी से पूछ ही लिया भाभी ध्रुवी को यहाँ कोई परेशानी है क्या वह ऐसी अनमनी सी क्यों रहती है।
वे बोली पता नहीं उसका यहां मन ही नहीं लगता। सबको देख कर वह घबराती है असल में वह छोटे परिवार से आई है यहां संयुक्त परिचार में एडजस्ट नहीं कर पा रही है ।
फिर उन्होंने यही सवाल प्रखर से किया कहीं तू तो उसे परेशान नहीं करता वह इतनी चुप क्यों रहती है।
प्रखर हँसने लगा बुआजी उसे यहाँ घर में भीड़ लगती है वह घबराती है और शोरगुल उसने अपने घर में नहीं देखा है तो वह एडजस्ट नहीं कर पा रही है। और कोई बात नहीं है।
दूसरे दिन बुआजी ने देखा कि काम निबटते ही वह अपने कमरे में चली गई। जबकि सब बैठे बातें कर रहे थे। बुआ जी पढ़ी लिखी समझदार महिला थीं खुले विचारों की। वे समस्या को जड़ से खत्म करना चाहती थीं सो वे उठकर ध्रुवी के कमरे में गई।
वह लेटी मोबाइल देख रही थी। उन्हें देखकर उठ बैठी आइये बुआ जी बैठिये। मोबाइल पर क्या देख रही हो।
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कुछ नहीं बुआजी बस टाइम पास कर रही थी।
पर यहाँ अकेले सबके साथ क्यों नहीं बैठती।
वो बुआजी कह कर चुप हो सोचने लगी इनसे क्या कहूं ।कहीं ये मेरी बात का बुरा न मान जायें।
हां हां बोलो न बेटा रूक क्यों गई।
बस बुआ जी सबके साथ बैठने की इच्छा ही नहीं होती। मन नहीं लगता।
मन लगाओगी तब लगेगा न । देखो ध्रुवी जैसे तुम्हारे मायके में तुम्हारे जो रिश्ते थे दादा- दादी, ताउ- ताई, चाचा- चाची, नाना-नानी, मामा-मामी, मौसी -मौसा , भाई-बहन ये सब तुम्हें जन्म से मिले थे, अब ये ही रिश्ते इधर ससुराल मैं भी हैं जिन्हें तुम्हें अपनाना पड़ेगा और उन्हें अपनाने के लिए तुम्हें अपने मन की गाँठ खोलनी पड़ेगी। अपने ससुराल के रिश्तों के प्रति जो पूर्वाग्रह हैं तुम्हारे मन में, उन्हें दूर रख मन से इन रिश्तों को अपनाओ फिर देखो कैसे सब तुम्हें अपने लगने लगेगें।
पर कैसे बुआजी, सब कहते हैं ससुराल वालों से दूर ही रहना अच्छा नहीं तो बहुत परेशान करते हैं। बात बात पर ताना मारते हैं।
गलत बात बेटा सब लोग एक से नही होते। यहां इस परिवार में कोई ऐसा नहीं है जो परेशान करे। आराम से सबसे हिलमिल कर रहो। मैं बताती हूँ तुम आज अपनी नन्दों के साथ बाहर घूमने जाओ।
ठीक है बुआ जी।
उसे बडा मजा आया अपनी बहन एवं सहेलीयों के साथ की याद आ गई। खूब माल में घूमी, पानीपुरी, चाट खाई। आज
उसे ननदों का साथ खूब भा रहा था।
इसी तरह दूसरे दिन उसे जेठानीयों के संग शापिंग करने भेजा। इसी तरह जब सब बैठते बुआजी उसे भी सबके साथ बैठने को कहतीं। धीरे-धीरे उसके मन की गांठे
खुलने लगीं और ससुराली रिश्ते बनने लगे। अब वह खुश रहती एवं सबका साथ उसे अच्छा लगता।
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तभी एक दिन उसके मम्मी-पापा उससे मिलने आए ।उसे खुश देख कर उन्हें बड़ी तसल्ली हुई और वे उससे जाते समय बोले बेटा तुम्हें खुश देख कर अच्छा लगा देखो मायके के रिश्ते तो बने होते किन्तु ससुराल में ये रिश्ते बनाने पड़ते हैं और हम देख रहे हैं कि तुमने अच्छे से अपने रिश्ते बना लिए है।
वह हंस कर बोली रिश्तों को बनाने में मेरी मदद करने का श्रेय बुआ जी को जाता है।
यह सुन सब हंस पड़े।
शिव कुमारी शुक्ला
10-9-24
स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित
मायके में रिश्ते बने होते हैं ससुराल में बनाने पड़ते हैं