बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय – बालेश्वर गुप्ता : hindi stories with moral

hindi stories with moral : पापा एक बात तो बताओ, बाबा कभी भी आपको कुछ भी बोल देते हैं, कभी तो बहुत ही उल्टा सीधा कहते हैं, फिर भी आप चुप रहते हैं, और उनके लिये मम्मी को,हमे भी डांट देते हैं, ऐसा क्यों?

        रमेश ने कहा बेटा,क्योकि वो तेरे पिता के भी पिता हैं।उनकी सेवा करना मेरा दायित्व है।

        उनके तो दो बेटे और भी तो हैं, वो क्यूँ नही सेवा करते,बाबा उनके बारे में तो कुछ नही बोलते?

     दायित्व उसका, बेटा, जो दायित्व माने।मेरे अन्य भाई क्यों अपने पिता की देखभाल नही कर रहे,वो जाने,मुझे तो इसमें खुशी है,मुझे बाबूजी की सेवा का भरपूर अवसर मिला है।एक बात और आशू सुन बाबूजी की उम्र 80 वर्ष हो गयी है, इस उम्र में उनके स्वभाव में चिड़चिड़ापन स्वाभाविक है,मुझ पर अधिकार मानते हैं, तभी तो कहते हैं।उस अधिकार भावना की कद्र तो हमे करनी ही चाहिये ना।

         रमेश को मिला कर कुल तीन पुत्र थे सेठ बनारसीदास के।एक बड़ी आलीशान तीन मंजिल कोठी में सब एक साथ ही रहते थे।अपने जीवनकाल में सेठ बनारसीदास जी ने अपने व्यवसाय का साम्राज्य खड़ा किया और अपने क्षेत्र में अपार लोकप्रियता भी प्राप्त की।बनारसी दास जी ने अपने दो बेटो को अपने व्यवसाय में अलग अलग जिम्मेदारी सौप दी थी तथा रहने के लिये भी कोठी में ही पोर्शन निश्चित कर दिये थे। रमेश का इंटरेस्ट बिजिनेस था नही उसे जॉब करना था,सो वह अपने नगर से बाहर चला गया। सबकुछ ठीक चल रहा था,बनारसी दास जी की अपने व्यापार पर अच्छी पकड़ थी।अचानक ही एक दिन बनारसीदास जी की पत्नी का शरीर पूरा हो गया।पत्नी के जाने के बाद बनारसीदास जी अकेलेपन से घिर गये।रमेश तो बाहर जॉब में था और बाकी दोनो बेटे अपने परिवार में मस्त थे।

      बढ़ती उम्र और एकाकीपन के कारण बनारसी दास जी अपनी पहली वाली स्फूर्ति और हेल्थ खोते जा रहे थे।अब वे अक्सर बीमार रहने लगे,उनका मन अपने व्यवसाय से भी उचाट रहने लगा,घर पर किसके सहारे रहे,सो अपने ऑफिस जाते।व्यवहार चिड़चिड़ा होता जा रहा था।अब उनकी कोई परवाह भी नही करता।इससे उनका फ्रस्ट्रेशन  और बढ़ता जा रहा था।

        दीवाली की छुट्टियों में रमेश घर आया,तब उसने अपने पिता की हालत और उपेक्षा देखी तो उसने पिता को अपने साथ ले जाने की पेशकश की।दोनो भाइयों को कोई आपत्ति हो ही नही सकती थी,तो वे सहर्ष ही तैयार हो गये।

       रमेश अपने पिता को अपने साथ लिवा लाया।दो महीने किसी प्रकार व्यतीत हुए पर बनारसीदास जी का मन इस उम्र में अपने कर्मक्षेत्र में ही रहने को करता।रमेश असमंजस में था कि करे तो क्या करे?उन्हें फिर घर भेजता है तो फिर वे उपेक्षा के शिकार होंगे और उसके पास पिता रहने को तैयार नही।भाइयो से बात की कि बाबूजी घर ही वापस आना चाहते है,आप यहां दो भाई हैं सो पिता का ध्यान तो रखना पड़ेगा ही।दोनो ने दो टूक कह दिया देखो भाई हमे कारोबार भी देखना होता है,24 घंटे तो बाबूजी के पास बैठ नही सकते,जितना संभव है उतना करते तो हैं।भाइयो की भावनाशून्य मुद्रा और उत्तर देख सुन रमेश अवाक रह गया।

        आखिरकार रमेश ने एक निर्णय ले अपना जॉब छोड़ कर पिता को लेकर घर वापस आ गया।व्यापार में उसका भी हिस्सा तो है ही,इसलिये नौकरी न सही व्यवसाय ही सही।रमेश के नौकरी छोड़ने केनिर्णय और घर वापस आने से बनारसीदास जी खूब खुश हुए।रमेश को व्यापारिक अनुभव तो था नही,फिरभी वह सीखने का प्रयत्न कर रहा था,इधर बाबूजी की तबियत अधिक खराब रहने लगी थी इसलिये उधर समय अधिक लगता।रमेश का बेटा आशु भी बड़ा होता आ रहा था।एक दिन बाबूजी ने भी साथ छोड़ दिया।आरिष्टि के बाद रमेश ने विचार कर लिया था कि अब वह व्यापार पर पूरा ध्यान केंद्रित रखेगा।लेकिन एक अजीब अप्रत्याशित स्थिति पैदा हो गयी।रमेश के भाइयो के मन मे विकार पैदा हो गया,उनका सोचना था कि रमेश तो बाहर नौकरी कर कमा रहा था,यहां पिता के कारोबार को वे संभाल रहे थे,तो उसका पिता के व्यापार से क्या लेना देना,हाँ वो चाहे तो यहां से वेतन ले सकता है, हिस्सा नही।रमेश खड़ा का खड़ा रह गया,अच्छी भली नौकरी  छोड़ कर आया था और यहां भाई उसका हक मार रहे थे।रमेश ने कोई उत्तर नही दिया और चुप चाप वापस आ गया।पुरानी कंपनी में अपनी स्थिति स्पष्ट की कि क्यूँ उसे बाबूजी के कारण त्यागपत्र देना पड़ा था,अब वो नही रहे और वह दुबारा जॉइन करना चाहता है।पूर्व के उसके अनुभव और रिकार्ड को देखते हुए रमेश को पुनः नौकरी पर रख लिया गया।समय बीतता गया,रमेश उसके बाद फिर घर नही गया।उसे वितृष्णा हो गयी थी,लालचवश भाइयो ने उसके साथ दगा किया था।

      आशु अपनी शिक्षा पूर्ण कर चुका था,देश विदेश से उसे जॉब के ऑफर आ रहे थे,पर उसने भारत मे ही जॉब करने को ही प्राथमिकता दी,उसका कहना था कि पापा से इतनी दूर नही जाना चाहता कि मर्जी से आ भी न सकूं,वीजा का इंतजार करना पड़े।सुनकर रमेश का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता।घर मे खूब संपन्नता हो गयी थी।

        एक दिन रमेश को एक भाई  का संदेश मिला कि एक दिन के लिये ही घर आ जाये।पता नही क्या आपत्ति आ गयी ,सोच रमेश तुरंत ही रवाना हो गया।वहां जाकर ज्ञात हुआ कि एक भाई का बेटा अपने ही व्यापार में कोरचा कर जुआ में पैसा उड़ा रहा है और रोकने पर धमकी देता है और अपना हिस्सा मांगता है।दूसरे भाई को लकवा मार गया था  सो पूरा कारोबार वही भाई संभाल रहा था।बेटे को साथ लगा लिया था,और बेटा गुल खिला रहा था।एक हँसते खेलते परिवार की यह स्थिती देख रमेश की आँखों में  आंसू आ गये, उसे लग रहा था कि बाबूजी की आत्मा को कितना कष्ट पहुंच रहा होगा।अपने को संभाल रमेश ने भतीजे से अलग में बातचीत की और परिवार की इज्जत का वास्ता दिया।भतीजे ने उत्तर दिया देखो काका आप न तो यहां रहते है और न रहेंगे।इतने दिन बाद आये हो,खातिरदारी का मजा लो,हमारे मामले के बीच में पड़ने की आपको कोई जरूरत नही है।इतना साफ जवाब सुनकर रमेश हक्का बक्का रह गया।उसके सामने अपने आशु का चेहरा भी तैर गया।आशु ने देखा था कि उसका पिता किस प्रकार उसके दादा की सेवा कर रहा है,कैसे उसके पिता ने उसके दादा के लिये अपनी नौकरी तक छोड़ दी थी।भतीजे ने क्या देखा था कि  उसके पिता ने कैसे उसके दादा की उपेक्षा की थी,कैसे अपने ही भाई का हक मारा था? रमेश को समझ आ गया बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय

        कुछ न कर सकने की पीड़ा लिये रमेश अपने घर लौट आया।

 घर जो उसने बनाया था।

बालेश्वर गुप्ता,पुणे

मौलिक एवं अप्रकाशित

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