परेशान मन से जैसे-तैसे कार से मैं घर पर पहुँच गई । वहाँ जल्दी से बच्चों को तैयार किया और अपनी मनपसंद सिल्क की बनारसी साड़ी को उतार कर दूसरी साड़ी बदली । यह सब करते हुए थोड़ा ही समय लगा था कि मूसलाधार वर्षा अब नन्ही बूँदों में परिवर्तित हो गई । तभी घर की बुजुर्ग, बच्चों की बूआ जी ने आकर बताया कि मैंने छत पर उल्टा तवा रख दिया है , अब बारिश रुक जायेगी ।मुझे भी उनकी बात कुछ अटपटी लगी लेकिन उनकी बात का विश्वास करने के अलावा अन्य कोई चारा भी नहीं था ।
कुछ समय में हम लोग भी वैंकेटहाल पहुँच गये । हम कार से उतरे ही थे कि कुछ और रिश्तेदारों को पानी से भरी सड़क पर अपने वाहन से आते हुए देखा । सभी को यथायोग्य अभिवादन किया और शीतल के पास लम्बे-लम्बे कदम रखते हुए मैं पहुँच गईं ।
मेरे पहुँचते ही वह शिकायत करती हुई बोली, कहॉं थी चाची जी आप?
मैंने कहा, घर गई थी, अब मैं तुम्हें ठीक करती हूँ—कहकर उनका लहंगा और मेकअप ठीक करने लगी।
मौसम कुछ सुधर गया लेकिन वर्षा के कारण सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया । वहाँ काम करने वाले व्यक्तियों ने सब कुछ पहले जैसी सजावट करने की कोशिश की ।
जहॉ भोजन की व्यवस्था थी वहाँ खुला हुआ था, शामियाना लगा था जिसमें पानी-पानी हो रहा था । वहाँ से भोजन की व्यवस्था एक हॉल में कर दी गई ।
धीरे-धीरे सब सामान्य हुआ और विवाह के सभी कार्य क्रम सुचारू रूप से सम्पन्न हो जाने के बाद शीतल की विदाई हुई ।
विदाई के समय वह उसी नन्ही बालिका शीतल की तरह सबसे लिपट कर रो रही थी । उसका रोना देख कर मेरी ऑंखें बार-बार भर कर आ रहीं थीं । मैं स्वयं को न सँभाल पाई , कुछ दूरी पर जाकर मैं खड़ी हो गई और अपने ऑंसू रोकने का भरसक प्रयत्न करने लगी ।
तभी मुझे मेरी ननदरानी ने कुछ सामान सौंप दिया और कहा, यह शीतल के पास कार में रख देना । मै वह सामान रख कर पानी का गिलास हाथ में लिए खड़ी थी कि शीतल मेरे पास आकर लिपट कर रोने लगी । मैं स्वयं को न रोक पाई, रोते हुए उसे आशीर्वाद दिया। पानी पिलाकर सभी देहली पूजन आदि कराकर उसे विदा कर दिया ।
शीतल के जाने के बाद सभी उदास होकर उसकी बातें कर रहे थे , मुझे भी वही चार साल की गुड़िया शीतल को विदा करने के बाद मन में उदासी थी।
शाम को हमें अपने घर पर जाना था, बस का समय हो गया था । बच्चों सहित हमलोग बस में चढ़ गये ।
शादियों का मौसम, और जून की छुट्टियाँ, बसों में बहुत भीड़ थी । जैसे तैसे लम्बे इंतज़ार के बाद बस आई और हम सब चढ़ गए ।
मैंने अपने बच्चों को बैठा दिया और मैं खड़ी हो गई ।
जब हम बस स्टैंड पर पहुँचे तो वहाँ पहले से ही लोग खड़े थे । हमारे से पहले एक मज़दूर जैसी दिखने वाली महिला वहाँ थी । वह मुझसे आगे थी सीट पर बैठी थी ।
मैं बहुत ही थकान महसूस कर रही थी, रात को शादी के कार्यक्रमों के कारण सो नहीं पाई थी । ऑंखें बोझिल हो रही थी मैं वहीं बच्चों के पास ही खड़ी हो गई ।
उस महिला ने मेरा कंधा पकड़ा और वह खड़ी हो कर मुझे बैठने का इशारा करने लगी। मैं भी थकी हुई थी, सीट पर बैठ गई।
अगले बस स्टैंड पर एक महिला के उतर जाने के बाद मैंने इशारा किया बैठने के लिए । लेकिन उसने स्वयं न बैठ कर, एक बच्चे के साथ खड़ी महिला को बैठाकर,खड़ी रही । थोड़ी देर में बच्चे वाली महिला उतर गई तो मैंने फिर कहा, तुम बैठ जाओ— वह नहीं बैठी और एक बुजुर्ग पुरुष को बैठाकर, खड़ी रही ।
अगली बार जब जगह हो गई तो वह मेरे पास ही बैठ गई । जब वह बैठ गई तो मैंने पूछा, तुम मज़दूरी करके आई हो थक गई होगी, तुम बैठीं क्यों नहीं ?
कितनी बार जगह हुई, मैंने कहा- बैठ जाओ तुम स्वयं न बैठ कर , बच्चे वाली महिला और बुजुर्ग व्यक्ति को सीट दे दी ।
जो जबाब मुझे मिला , उसे सुनकर मुझे बहुत ही शर्मिन्दगी महसूस हुई । हम लोग तो सीट पर बैठने को तैयार रहते हैं, चाहे कोई कितनी परेशानी में हो ; हम ध्यान नहीं देते ।वह महिला तो बनते हुए मकानों में ईंट सीमेंट ढोने का काम करती है ।
वह बोली— बहिन जी हम तो मज़दूरी करके अपना और बच्चों का दो वक़्त का खाना कमा लेते हैं । मुझसे ज़्यादा तो उन महिला को , जो बच्चे को गोद में उठा कर खड़ी थी और बुजुर्ग जो चलने में भी परेशान थे , उनको सीट की आवश्यकता थी । बुजुर्ग ने न जाने कितनी दुआएँ मुझे दी होंगी ।हम को तो आदत है, खड़े रहने की और मेहनत करने की । आप भी जब बस में चढ़ रही थी,मैंने देखा थकी हुई लग रही थी ।
मैंने कहा— हॉं मेरे परिवार में बिटिया की शादी हुई है मैं वहाँ से आ रही हूँ । पति को ऑफिस जाना था, वह कार में चले गये । मुझे बच्चों की पढ़ाई के कारण घर पहुँचना आवश्यक है । इस लिए मैं बस में ही आ गई ।
आप पहनावे से अच्छे घर की जान पड़ती हैं।आप ऐसे भीड़ भरे बस में तो सफ़र नहीं करतीं होंगी । हमारा तो प्रति दिन आने – जाने का काम है।
“हमारे पास धन- दौलत तो नहीं है न ही मैं किसी को कुछ दान में दे सकती हूँ, इसी तरह कभी-कभी बड़ों का आशीर्वाद लेकर पुण्य कमा लेती हूँ ।” वह कहते हुए उठ खड़ी हुई और अभिवादन करती हुई बस से उतर गई ।उसकी मंज़िल आ गई थी..
मैं सोच रही थी कि उसके पास कुछ नहीं फिर भी वह कितनी अमीर है, कितनी दुआओं को उसने अपने ऑंचल में सँभाल के रखा है ।
वह मुझे ऐसी सीख दे गई जिसे मैं कभी नहीं भूल सकती।उसके जाने के बाद मैं मन ही मन उसे अपना गुरु मान बैठी, वह साधारण सी दिखने वाली महिला आज बहुत बड़ा गुरु मंत्र मुझे दे गई ।
घर आकर थकी हुई होने के कारण कुछ देर आराम किया, फिर उठकर घर के कामकाज करने के बाद मैं नहाने चली गईं ।
फ़ोन की घंटी बजी ,तो दौड़ कर देखा — अरे यह तो शीतल का नंबर है ।
नमस्कार,
चाची जी , आप कैसी है ।मुझे मॉं, पिता जी की और आप सबकी बहुत याद आ रही है ।
मैंने कहा— कैसी हो शीतल, उसका जबाब था ।
“मैं बिलकुल ठीक हूँ, चाची जी ।”
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आशा सारस्वत