“ऋतु चल पार्टी में चलते हैं। जल्दी तैयार हो जा।” निशा ने ऋतु की पीठ पे थपथपाते हुए कहा।
ऋतु जो श्रेया की गोदी में मुँह छुपाये लेटी हुई थी, वो और जोर से रोने लगी।
“ऋतु ऐसे कब तक रोते रहेगी। जो होना था वो हो गया। चल बाहर चलते हैं, कोई मूवी शूवी देखेंगे।” श्रेया ने भी ऋतु को बाहर चलने के लिए प्रोत्साहित किया।
ऋतु, श्रेया और निशा तीनो रूममेट थे। वो अलग अलग जगह नौकरी करते थे पर रहते एक ही फ्लैट में थे। तीनो की आपस मे कॉलेज से जान पहचान थी और काफी गहरी दोस्ती भी थी। हालांकि तीनो के सोच विचार एक दूसरे से ज़्यादातर अलग ही थे पर दोस्ती में अलगाव को सम्मान देने का ही दस्तूर है। जहाँ आप अपने असली रूप में सहजता से रह सको, सच्ची दोस्ती वहीं रह पाती है।
ऋतु का उसके बॉयफ्रेंड दीपक से हाल ही में ब्रेक-अप हुवा था। वो किसी और लड़की को चाहने लगा था और इसी वजह से वो रो रही थी।
“मूवी नहीं क्लब चलते हैं।” निशा ने श्रेया के प्रस्ताव से भिन्न अपना मत जारी करते हुए कहा।
“क्या ज़रूरत है क्लब जाने की, वहां जाने के लिए लड़को के साथ जाना पड़ेगा। सिर्फ हम तीनों चलते हैं मूवी देखने।” श्रेया ने फिर निशा की बात को काटा।
“लड़को के साथ जाएगी तभी तो दीपक के ब्रेक-अप के हैंगओवर से उतर पाएगी ये।” निशा ने फिर अपनी बात को ऊपर करते हुए बोला।
“बहुत बढ़िया। ज़हर को काटने के लिए ज़हर का ही सहारा लो, ये क्या तरीका हुआ। ब्रेक-अप हुवा है, कोई ज़िन्दगी खत्म नही हुई इसकी।” श्रेया ने अपनी समझदारी का परिचय देते हुए कहा।
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“और क्या ये ही तो तरीका है, न किसी से ज्यादा दिन तक दिल लगाओ न कोई आंसू बहाओ। ज़िन्दगी में ‘कूल’ रहने का।” निशा ने इस बार भी बेतुकी सी बात ही बोली।
श्रेया कुछ बोलने को हुई तो सही पर उससे पहले ऋतु आँसु पोछते हुए उठ बैठी और बोली ,” बिल्कुल सही कहा तूने निशा। इन लड़को पर भरोसा करना ही नहीं चाहिए। ये होते ही कुत्ते हैं।” ऋतु निशा के समर्थन में आते हुए आग बबूला हुई।
“अच्छा, ये कब पता चला तुझे कि लड़के कुत्ते होते हैं।” श्रेया इस बार ऋतु के विरोध में बोली।
“पता तो पहले से ही था, पर अब अनुभव भी हो गया है।” ऋतु बोली।
“तुझे पता भी था और फिर तूने भरोसा भी किया, ये बात कोई तर्कसंगत नहीं है।” श्रेया ने फिर अपनी बात रखी।
“तूने प्यार नहीं किया है ना और न ही तेरा किसी की वजह से दिल टूटा है, इसलिए तू ऐसी ही किताबी और तर्कसंगत बातें करेगी।” इस बार निशा ऋतु के बचाव में खड़ी थी।
“चल ठीक है, मैंने प्यार नहीं किया है पर प्यार करना जरूरी भी थोड़ी न है। ये रोमांस वाले नजरिए से ज़िन्दगी को देखना इतना भी जरूरी थोड़ी न है।” श्रेया अकेले ही दोनों से बहस में भिड़ी हुई थी।
“खुद को खुश रखना कोई ग़लत बात थोड़ी है। लड़के तूझसे भी तो बात करने के मौके ढूंढते ही रहते है, हम बस उन पर दया करके उनसे बात कर लेते है?” निशा ने व्यंग्यात्मक तरीक़े से बोला।
“अच्छा, तो मैं उनसे बात नहीं करती तो क्या मैं खुश नही रहती मतलब। और ये कौन सी खुशी है मतलब जो तू हर 3-4 महीने बाद किसी और मे ढूंढती है।” श्रेया ने गुस्से में बोला। निशा की बेतुकी बातें उससे अब झेली नहीं जा रही थी।
“देख मैं जो भी कर रही हुँ, ये सब मेरे फ़ैसले हैं। कल को जो भी हो मुझे कम से कम ये मलाल तो नही होगा कि मैंने ज़िन्दगी अपने हिसाब से नहीं जी या किसी और ने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी।” निशा अपने फलसफों का बखान कर रही थी।
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“इससे बड़ी वाहियात बात मैंने आज तक नही सुनी। ग़लत फैसले तू ले या तेरे लिए कोई और, ज़िन्दगी तो तेरी ही ख़राब होगी न। फिर तू ऐसे कैसे अपनी ज़िंदगी के साथ खिलवाड़ कर सकती है।” श्रेया निशा को उसकी और अपनी सोच के बीच का अंतर बताने लगी।
“प्यार तो तूने किया नहीं पर शादी तो जरूर करेगी न, वो भी अपने मम्मी पापा की पसंद से। और कल को पता चले कि तेरा पति दीपक की तरह ही धोखेबाज निकले तो फिर तू क्या कर लेगी?” इस बार सवाल पूछने की बारी ऋतु की थी।
“पता नहीं, पर मैं अपने माँ बाप को इस बात का दोषी कभी नही ठहराउंगी। मुझे पता है कि उन्होंने आजतक जो भी फैसले लिये हैं मेरे लिए वो मेरी भलाई के लिए ही लिए हैं।” श्रेया ने इस सवाल का उत्तर भी बड़ी समझदारी से ही दिया।
“ये अभी तो तू अपने तर्क को मजबूत बनाने के लिए कह रही है पर ये इतना आसान है नही। खुद को खुश रखने के लिए थोड़ा बहुत स्वार्थी बनना जरूरी होता है।”और हम क्यों किसी पे निर्भर रहें? हम आज की लड़कियाँ हैं जो अपने अधिकार और अपना हक़ बहुत अच्छे से जानती हैं?” निशा ने बहस की कमान सम्भालते हुए अपने प्रश्न का वार किया।
” और अगर दीपक ने भी खुद को खुश रखने के लिए ही ये किया हो तो वो कुत्ता? इस हिसाब से तो तू भी वही है और ऋतु जब इस बात को इतनी बारीकी से जानती है तो इतना नाटक किस बात का।” श्रेया ने इस बार दो टूक जवाब दिया।
” ये अधिकारों की बात करके बग़ावत का बिगुल वहां बजाना चाहिए जहां सच मे अधिकारों का हनन हो रहा हो। यूँ बिन वजह नारीवाद के नारे लगाकर अपनी गलतियों को भी अपना नाज़ायज़ हक़ बनाना सिर्फ ढ़कोसला है। ये बाग़ी होना या ‘कूल होना’ नहीं सिर्फ दोहरी मानसिकता है। और अगर तुम्हें सही में लगता है कि दीपक ने तुम्हारे साथ गलत किया है तो कम से कम उसके जैसा बनने की तो मत सोचो। बात सारी मानसिकता की है फिर वो लड़का हो या लड़की।” श्रेया गुस्से में बोलते बोलते खड़ी हो गयी। उसके हाव भाव बता रहे थे कि वो बेबुनियादी बातों को सह नही सकती थी।
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“मुंशी प्रेमचंद जी ने लिखा है कि अगर आदमी औरत के गुण अपने अंदर लाने लगता है तो वो संत बन जाता है परंतु अगर औरत आदमी जैसा बनने की कोशिश करती है तो वो कुलटा कहलाती है।” श्रेया लगातार बोले जा रही थी और वो कुछ ऐसा बोल रही थी जो किसी भी मनुष्य को अंदर तक झकझोर के रख देता।
“पर लड़कों को क्या हक़ है लड़कियों के साथ ग़लत करने का?” निशा की आंखें तो भर गई थी और वो मौन ही थी, पर ऋतु ने ये सवाल किया था।
“क्या ज़रूरत है हमें ग़लत चीज़ों में भी उनसे बराबरी करने की?” श्रेया ने प्रत्युत्तर में भी सवाल ही किया?
कमरे से बाहर निकलने से पहले श्रेया उन दोनों की सोच को थोड़ा और छानने के लिए, एक और प्रश्न कर के चली गयी ,” ऋतु तेरा तो अभी ताज़ा ताज़ा दिल टूटा है ना, तुझे तो पता है ना कि धोखा मिलने पे कैसा लगता है ….. तो फिर ये बता की तू क्या पसंद करेंगी, धोखा देना या धोखा खाना???
श्रेया के कमरे से बाहर निकलते ही कमरे में घुप्प खामोशी छा गयी। बेतुके सवालों के आका ये निर्धारित नही कर पा रहे थे कि सवाल का सही जवाब क्या है।