भ्रम जाल – बालेश्वर गुप्ता : Moral Stories in Hindi

माँ ओ माँ, देख तेरा लाडला क्या गुल खिला रहा है,पता नही कैसे मैं खून के घूंट पीकर आया हूँ?कैसे अपने को रोका है

अरे बात तो बता,क्या पहाड़ टूट पड़ा है?अनुज ने ऐसा क्या कर दिया है?

पूछ रही हो क्या कर दिया है?ये पूछो क्या नही कर दिया है?

विक्रम क्यों पहेली सी बुझा रहा है?साफ साफ बता ना बेटा बात क्या है?

मां ये अपना अनुज ना,सरे आम एक लड़की की कमर में हाथ डाले जा रहा था,कोई संकोच नही कोई शर्म नही।मैंने देखा तो मेरा तो खून खौल गया

बड़ी मुश्किल से अपने को संभाला, और सड़क पर तमाशा ही होता,गुस्सा पीकर आया हूँ।लोग क्या सोच रहे होंगे?कोई हया बची ही नही।

शांति शरण जी तो कब के गुजर गये थे,पीछे छोड़ गये थे,पत्नी और दो बेटे विक्रम व अनुज।विक्रम तो नौकरी करने लगा था।

घर शांति शरण जी अपने जीवन काल मे ही बनवा कर गये थे,इसलिये उनके जाने से आर्थिक रूप से बहुत अधिक परेशानी परिवार पर नही आयी।अनुज कॉलेज में पढ़ रहा था।विक्रम चाहता था

कि उसका भाई पढ़ लिख कर अच्छे पद पर जाये।अनुज छोटा था,इसलिये माँ के स्नेह से सरोबार रहता।

अनुज मां और भाई को पूरा सम्मान भी देता था।पर उस दिन की घटना ने मानो सारा तिलिस्म तोड़ दिया था।ऐसा न विक्रम ने सोचा था और न ही मां ने।दोनो की भावनाये अनुज के आचरण से आहत हुई थी।

विक्रम और माँ की बात चीत चल ही रही थी कि अनुज भी घर मे आ गया,उसी स्वाभाविक अंदाज में हाय भैय्या,हाय

मम्मा कहता अपने कमरे में अपना लैपटॉप और बैग रखने चला गया।फिर आकर बोला मम्मा पता है आज क्या हुआ?मां और विक्रम  जो अनुज की हरकत से हतप्रभ थे और उस घटना के विषय मे बात करना चाहते थे,

अनुज की बात सुन उसकी ओर देखने लगे।अनुज अपनी रौ में बोलता गया,माँ वे है ना अपने रमेश अंकल

उनकी बेटी नीलू मेरे ही कॉलेज में पढ़ती है, पता है आज क्या हुआ,कॉलेज के रास्ते मे ही उसको चक्कर आ गया और वह सड़क पर ही गिर गयी,वो तो अच्छा हुआ भैया मैं भी तभी वहां से गुजर रहा था,

उसे देख मैंने उसके मुँह पर पानी के छीटे मारकर उसे होश में लाया और सहारा देकर पास के डॉक्टर के पास लेकर गया।

अंकल को फोन से खबर दी,तब वे आकर नीलू को घर ले गये, इस चक्कर मे मैं कॉलेज में लेट भी हो गया। माँ और विक्रम अनुज का मुँह देखते रह गये, क्या सोच रहे थे,क्या निकला।अच्छा हुआ अनुज से कुछ नही पूछा।

विक्रम सोच रहा था,कि उस समय गुस्से को पीना अच्छा ही रहा, नही तो शर्म से खुद ही पानी पानी होना पड़ता।

बालेश्वर गुप्ता, नोयडा

मौलिक एवम अप्रकाशित

*गुस्सा पीना* मुहावरे पर आधारित लघुकथा:

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