भरोसे के आंसू – शुभ्रा बैनर्जी : Moral Stories in Hindi

उम्र चेहरे पर झुर्रियां ला सकती है,काया ढीली कर सकती है, नज़र कमजोर कर सकती है,पर आंखों में छिपे आंसुओं को खत्म नहीं कर पाती।ये आंसू सिर्फ खुशी या दुख के नहीं होते,बल्कि भरोसे के भी होतें हैं।

ख़ुद पचास पार कर चुकी ,शुभा को ही अब जल्दी थकान होने लग रही थी।ज्यादा काम पड़ जाए,या मानसिक तनाव बढ़ जाने से बुखार आने लग जाता था।बच्चे भले चिढ़ाते हों,”आप तो पी टी उषा हो हमारी।शाम होते ही जूते पहन कर पीछे सड़क में तेज कदमों से ऐसे चलती हो,जैसे विनर की ट्राफी ही लेकर लौटोगी। मम्मी,थोड़ा चीट कर लिया करो।हमारे साथ बैठो ।”शुभा सबकी बातें नजरअंदाज कर देती यह कहकर”यह समय मेरा है।मुझे एक घंटे बाहर टहलना अच्छा लगता है।मन को शांति मिलती है।”

सासू मां की एक आंख का मोतियाबिंद का ऑपरेशन पिछले साल सकुशल हो गया था।इस साल नवंबर -दिसंबर में होना तय था। ऑपरेशन के पहले सर्जन, फिजीशियंस की रिपोर्ट देखकर ही डेट देते हैं।बड़ी तैयारी के साथ स्थानीय अस्पताल में सासू मां को कलफ लगी तांत की साड़ी पहनाकर ले जाया गया।वहां चेक करने पर पता चला कि प्रैशर हाई है,सुगर लो है।ओके नहीं दिया फिजीशियंस ने।

मोतियाबिंद पक भी चुका था,या ये कहें कि शुभा  के हौसले पस्त हो रहे थे उनकी उम्र देखकर।घर वापस आते ही उन्होंने ऐलान किया”बेटा,अब शक्कर,आलू ,चांवल कुछ नहीं खाऊंगी।एक हफ्ते के अंदर सब नार्मल हो जाएगा देखना।मुझे पता है तुम्हें और पोते को बहुत टैंशन होती है मेरी।”बोलते-बोलते आंखों से आंसू झरने लगे थे उनके।शुभा को वास्तव में बहुत ग्लानि हो रही थी, आपरेशन ना हो पाने पर।अपना पूरा ध्यान अच्छी तरह से ही रखती थीं,वे।

पोते को दादी के आंसू सहन नहीं हुए।दवाईयां बदल कर ज्यादा ध्यान देने लगा था।बोनस मिलते ही इस बार भी अलग कर के रख दिया था,दादी की ऑपरेशन फीस। देखते-देखते छह महीने बीत गए। गर्मी में करवाना ठीक नहीं होगा।अब मानो शुगर और प्रैशर के बीच मुकाबला होने लगा।कभी कोई कम,कभी कोई ज्यादा।

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शुभा ने अपनी कमजोरी को छिपाते हुए बोली भी बेटे से”बाद में करवा लेंगे।कितना दौड़ेंगी यहां से वहां।आंख  से पानी लगातार गिरता रहता है।मैं सोता हूं उनके साथ में।मुझे बहुत बुरा लगता है मम्मी।”

समझदार बेटे की ज़िम्मेदारी देखकर खुश भी होती थी शुभा,पर अब उससे ही इतनी दौड़ भाग नहीं हो पा रही थी।

एक सुझाव दिया बेटे को,”छोटी बुआ को बुलवाएं क्या?वो रहेगी तो दादी को हिम्मत मिलेगी।वो घर संभाल लेगी,मैं तुम लोगों के साथ हॉस्पिटल चली चलूंगी।थोड़ा तुझे भी आराम मिल जाएगा।”

बेटे ने जो कहा वह अप्रत्याशित तो नहीं था,पर अद्भुत तो था।”मम्मी,आप क्यों इतना नर्वस हो अभी?दादी की ख़ुद की इच्छाशक्ति इतनी दृढ़ है कि उसे हमारे सहारे या किसी और के सहारे की जरूरत ही नहीं।इनकी देखभाल हमारी ज़िम्मेदारी है मजबूरी नहीं।आप सब संभाल सकती हैं।”अगले छह महीने लग गए,सब कुछ नार्मल होने में।स्कूल से छुट्टी लेकर डॉक्टर के पास ले जाना टेस्ट करवाने,एक्स रे करवाया ले जाकर।फिर सब रिपोर्ट लेकर डॉक्टर को दिखाया तो उन्होंने तुरंत ऑपरेशन करने की सलाह दी।

शुभा का मन बहुत विचलित हो रहा था इस बार।सासू मां की आंखें भी अब बूढ़ी हो चलीं थीं।झुर्रियां पड़ने लगी थी चेहरे पर।पर बेटा अडिग रहा।तय समय पर जाकर जब उनको एडमिट करवाया,तो डॉक्टर ने पूछा “ऑपरेशन मैं करूंगा पर विश्वास आपको होना चाहिए,कि सब ठीक होगा।जल्दी रिकवरी होगी।”

पोते की दादी लेटे-लेटे ही बोलीं”अरे मुझे तो बस ऑपरेशन करवाना है अच्छे से।ताकि मैं  देख सकूं ,अखबार पढ़ सकूं।मेरा पोता श्रवण कुमार है।इतनी सेवा करता है मेरी,मुझे कुछ नहीं होगा।”बोलते-बोलते आंखों से उनकी आंसू फिर छलक आए।

पोते ने आंसू पोंछ डांट कर कहा”अब बिल्कुल शांति से लेटी रहो।कुछ देर बाद ही ऑपरेशन होगा।रोती क्यों हो तुम?अच्छे से करवाना ऑपरेशन।घर आज ही चलना है ना?”दादी ने तुरंत आंसू पोंछे।कुछ ही देर में उनका नंबर आ गया।आधे घंटे बाद ऑपरेशन रूम से निकलते ही फिर सिसकती हुई पोते के गले लग गईं।कहने लगी”अब सब साफ़ दिख रहा है।”वहां खड़े डॉक्टर, नर्स,पेशेंट और सारे मरीज हंसने लगे।हंसने वो भी लगीं पर आंसुओं के साथ।

घर आकर सूजी की खीर खाई। तृप्ति के साथ अपने कमरे में,अपने बिस्तर पर अपने पसंदीदा पोते के साथ चैन से सोएं वो, दर्द के साथ।पोता ड्राप डालने तीन बार ड्यूटी से दौड़ कर आ जाता।शुभा स्कूल से दोपहर एक बजे घर पहुंची तो सासू मां ने चेताया”बाबू आकर तीन दवाइयां डाल गया है आंख में।बोला है मम्मी आ जाएं तो फोन करें कहना।”

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शुभा अभिभूत हो सासू मां को देखती हुई कहने लगी”तुमने सच में बहुत पुण्य किए होंगें,तभी ऐसा पोता मिला है।एक काम घर का ना करने वाला कितने अच्छे से देखभाल कर रहा है।”

सासू मां ने शुभा को पास बुलाया और कहा”मेरा पोता जो भी कर रहा है,वह तुमको देखकर,सीखकर कर रहा है।जिस दिन नर्स ने इसे मेरी गोद में दिया,मैं तुम्हारे पति की गोद में डाल दी थी।हम मां,-बेटे दोनों बहुत रोए थे।वो चिढ़ाता भी था जब कभी मैं‌ मार खाने से बचाती थी।बेटा ,तुमने और मैंने अपना पति खोया है।मैंने तो अब अपना बेटा भी खो दिया।तेरी ननदें कहती रहतीं हैं जाने को उनके घर।मैं कहीं नहीं जाऊंगी।यही एक सौ के बराबर है।मेरी मौत पर पूरे संस्कार जो ये करेगा,वो कोई और नहीं।”,

शुभा का बेटा आ चुका था कमरे में।दादी को फिर डांट लगाई बात करने पर।दादी तो चुप हो गईं।

घर पर खाना खाते हुए बोला वह मम्मी से”आपने दीदू की आंखें देखी हैं ध्यान से।अब भी वही चमक,खुशी से लरजती बोली।अखबार पढ़ने की शौकीन।चेहरे में झुर्रियां पड़ गईं,पर आंसुओं की कीमत या  ईनाम समझो।इतने साल बीत गए।हम दोनों भाई-बहन को सीने से लगाकर पाला है।

इनकी ना तो आंखें बूढ़ी हुईं हैं ,ना ही आंसू।हमारे प्रति जो उत्तरदायित्व उन्होंने निभाएं हैं,वह बाध्य नहीं है।मुझ पर उनका अटूट विश्वास है,तभी कहीं और नहीं जाना चाहतीं।हर रात दादी के बगल में जब लेटता था,एक अपराध बोध होता था, ऑपरेशन ना हो पाने का।आज मैं मुक्त हो गया,अपने कर्तव्य से।उनकी आंखों ने मुझ पर भरोसा किया ।उनकी उम्मीद ने मुझ पर भरोसा  किया।मैं अब निश्चिंत हुआ मम्मी।”,

शुभा अपलक कभी सासू मां को ,कभी अपने बेटे को देखने लगी।सच ही तो है,दोनों बच्चों की परवरिश में उनका ही हांथ है।मांगती कुछ नहीं,देती ही है।इस निश्छल प्रेम ने ही तो उनके मन में भरोसा दिलाया,और आज उन्हीं आंखों के भरोसे ने अपनी विलुप्त प्राय दृष्टि पा ली।

शुभ्रा बैनर्जी

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