अपने घर में अकेली सरला जी बुखार से तड़प रहीं हैं।चार बेटों की माँ होने के बावजूद घर में कोई पानी नहीं देनेवाला है।वे उठकर खुद से पानी लेती हैं,कमजोरी के कारण धम्म से कुर्सी पर बैठकर मेड का इंतजार करने लगती हैं।कमजोरी के कारण बंद आँखों में उनका अतीत चलचित्र की भाँति घूमने लगता है।
जब उन्हें एक-एक कर चार बेटे हुए, तो घमंड से उनके पैर जमीं पर नहीं पड़ते थे।उनकी कर्कश बोली और शुष्क व्यवहार के चलते रिश्तेदार से लेकर पड़ोसी तक उनसे कन्नी काट गए। उनके पति सुरेश जी उन्हें बार-बार समझाते हुए कहते -“सरला! थोड़ा अपना व्यवहार लोगों के प्रति नम्र रखो। इतना घमंड ठीक नहीं!”
सरला जी उल्टे पति पर चिल्लाते हुए कहती -“आपको तो कुछ समझ में नहीं आता है।सभी मेरे चार बेटे देखकर जलते हैं।”
धीरे-धीरे सुरेश जी ने पत्नी के सामने खामोशी की चादर ओढ़ ली।
सरला जी की देवरानी रेखा को जब दूसरी बेटी हुई थी,उस समय उन्होंने उसकी खुशियों पर तुषारापात करते हुए कहा था -“हाय!रेखा,तुम्हें दूसरी बार भी बेटी हो गई?”
रेखा ने जबाव में कहा था -” दीदी! बेटी हुई तो क्या हुआ, हम उसे ही पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाऐंगे!”
अपनी आदतों से बाज न आते हुए उन्होंने एक बार फिर कहा था -“रेखा!कुछ भी कह लो,परन्तु बेटियाँ कभी बेटों की बराबरी नहीं कर सकतीं हैं!”
सुरेश जी ने गुस्साते हुए कहा था -” सरला!क्या अनाप-शनाप बोले जा रही हो?”
सरला जी ने अहंकार भरे स्वर में कहा -” अनाप-शनाप क्या?मैं तो उसे सच का आईना दिखा रही हूँ।”
उस दिन के बाद से सरला जी का देवर-देवरानी से सदा के लिए नाता टूट गया।सरला जी अपने बेटों के घमंड में चूर रहतीं थीं।अत्यधिक लाड़-प्यार के कारण उनके कोई भी बेटे काबिल नहीं बन सकें।पिता की मृत्यु के बाद सभी बेटे माँ को छोड़कर अलग हो गए। देवरानी
की दोनों बेटियाँ पढ़-लिखकर काबिल बन गईं तथा माता-पिता का भी खूब ख्याल रखतीं।उन्हें खुश देखकर सरला जी के कलेजे पर साँप लोटते रहते। ऐसी हालत में भी उनकी अकड़ कम नहीं हुई थी।मेड की आवाज से उनकी तंद्रा भंग हो गई।
आते ही मेड सुखिया ने पूछा -“मालकिन!अब तबीयत कैसी है?”
सरला जी ने गुस्से से कहा -” सुखिया!तुझे जरा भी मेरा ख्याल नहीं है।तुझे इतनी मदद करती हूँ,फिर भी तुम नमकहरामी करती हो?”
सुखिया मन-ही-मन भुनभुनाते हुए कहती है -“मालकिन!अब बता दो कि खाने में क्या बनाऊँ?”
सरला जी -” पूछ तो ऐसे रही हो जैसे छप्पन भोग बनाकर खिलाएगी।दो रोटी और थोड़ी सूखी सब्जी बना दो।”
सुखिया रसोई में जाते हुए मन-ही-मन सोचती है कि अपनी करनी का फल इंसान को भोगना ही पड़ता है।ऐसे इंसान को देखकर ही कहा गया है कि भगवान की लाठी में आवाज नहीं होती!
समाप्त।
लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)