सूरज की शादी में अब बस तीन हफ्ते रह गए थे। घर में हलचल थी—कभी टेंट वाले की बात, कभी कार्ड का डिजाइन, कभी मेहमानों की लिस्ट। लेकिन सूरज के मन में एक खालीपन था जो किसी लिस्ट से नहीं भरता। वह रात को देर तक जागता, और सुबह उठते ही अपने माथे की शिकन छिपा कर मुस्कुरा देता, जैसे सब ठीक हो।
उस दिन भी वह बाज़ार से कुछ कपड़े और शादी का सामान लेकर लौट रहा था। रास्ते में एक नया-सा बोर्ड दिखा—“सखी गृह उद्योग केंद्र – प्रशिक्षण एवं रोजगार।” बोर्ड के नीचे छोटे अक्षरों में लिखा था—“महिलाओं के लिए सिलाई, अचार-पापड़, टिफिन सेवा, डिजिटल प्रशिक्षण।” सूरज की नज़र बस एक पल को उस बोर्ड पर टिक गई, और फिर उसके कदम धीमे हो गए। उसे लगा जैसे किसी पुराने ज़ख्म पर किसी ने हल्के से उंगली रख दी हो।
उसी गली के मोड़ पर उसे उसका ऑफिस का साथी अभय मिल गया। अभय ने मुस्कुराकर कहा, “अरे सूरज! इधर? शादी की तैयारी कैसी चल रही है?”
सूरज ने हाँ में सिर हिलाया, फिर अनायास ही पूछ बैठा, “ये ‘सखी गृह उद्योग केंद्र’… पहले यहाँ तो मेडिकल दुकान थी, है न?”
अभय ने कहा, “हाँ, पहले मेडिकल थी। अब ये केंद्र… बहुत नाम कर रहा है। इसकी संचालिका हैं—मेघा दी।”
सूरज को जैसे बिजली-सी लगी। “मेघा…?” उसने धीमे से दोहराया, जैसे नाम नहीं, कोई याद पुकार रहा हो।
अभय ने बात आगे बढ़ाई, “मेघा दी… बड़ी कमाल की औरत हैं। पति की मौत के बाद सब कुछ उन पर टूट पड़ा। ससुराल में बीमार सास, छोटा देवर, एक ननद—और ऊपर से कर्ज। लोगों ने कहा था, ‘अब ये घर कैसे संभलेगा?’ पर दी ने रोना नहीं चुना। पहले घर में ही छोटे-छोटे टिफिन बनाकर बेचने लगीं। फिर कुछ महिलाओं को साथ जोड़ लिया। धीरे-धीरे काम बढ़ा, तो उन्होंने ये केंद्र खोल लिया। अब तो यहाँ से महिलाओं को काम भी मिलता है, ट्रेनिंग भी।”
सूरज के हाथ में पकड़ा थैला धीरे-धीरे ढीला पड़ने लगा। उसकी आँखें भर आईं। अभय घबरा गया, “अरे… क्या हुआ? आप ठीक हैं?”
सूरज ने जल्दी से चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया। “कुछ नहीं… बस… धूल चली गई आँख में।”
अभय ने कहा, “चलिए, अंदर मिल लेते हैं मेघा दी से। आपको अच्छा लगेगा।”
सूरज ने सिर हिला कर मना कर दिया। “आज नहीं… फिर कभी।”
और वह तेजी से आगे बढ़ गया, जैसे रुक गया तो उसका सब्र टूट जाएगा।
घर पहुँचते-पहुँचते उसके भीतर का बाँध टूट चुका था। कमरे में घुसते ही वह बिस्तर के किनारे बैठ गया और बिना आवाज़ रोने लगा—वैसे रोना जिसमें आँसू गालों पर नहीं, आत्मा पर गिरते हैं।
उसे याद आया—मेघा… यानी उसकी भाभी।
भाभी, जिसे उसने कभी “भाभी” कहकर भी पूरा सम्मान नहीं दिया था।
जब उसके बड़े भाई अमित की अचानक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई थी, तब सूरज कॉलेज के अंतिम वर्ष में था। माँ किरण देवी उस सदमे से आधी टूट चुकी थीं, और घर का खर्च पहले ही कमजोर हो गया था। तब सूरज ने पहली बार महसूस किया था कि दुनिया में “बड़े” शब्द का मतलब क्या होता है—बड़े भाई की छाया हटते ही घर छोटा लगने लगता है।
मेघा ने उस समय खुद को रोने नहीं दिया था। उसने भाई की चिता के पास खड़े होकर बस इतना कहा था—“अब इस घर में कमी नहीं होगी, मैं हूँ।”
पर सूरज को यह वाक्य तब “दिखावा” लगा था। उसे लगा था, भाभी अब घर पर अधिकार जमाएंगी, उसकी आज़ादी छीनेंगी, माँ पर हुक्म चलाएँगी। धीरे-धीरे घर में छोटी-छोटी बातें बढ़ीं। किसी दिन सूरज ने गुस्से में कह दिया था—“आपको तो बस घर की मालकिन बनना था… अब बन गईं।”
मेघा ने जवाब नहीं दिया था। बस उसकी आँखों में एक पल के लिए कुछ टूटा था, फिर उसने चुपचाप रसोई में जाकर आँसू पोंछ लिए थे।
कुछ महीनों बाद सूरज को शहर के बाहर नौकरी मिली, और वह चला गया। माँ के इलाज, घर के बिल, ननद की फीस—ये सब बातें सूरज ने धीरे-धीरे अपने मन से हटानी शुरू कर दीं। उसे लगता, “घर में भाभी है ना, देख लेगी।” और भाभी सच में देखती भी थी, मगर उसके “देख लेने” की कीमत कोई नहीं समझता था।
समय बीतता गया। सूरज की शादी हो गई। पत्नी राधिका आई। घर में नए रिश्ते आए, पुराने रिश्ते पीछे होने लगे। और फिर एक दिन ऐसा आया जब मेघा चुपचाप घर छोड़कर चली गई। किसी ने रोका नहीं। कोई “क्यों” पूछने तक नहीं आया। माँ ने बस इतना कहा था, “उसका मन नहीं लगता होगा… चलो, जैसा ठीक लगे।”
सूरज ने उस दिन भीतर ही भीतर राहत महसूस की थी—जैसे घर “फिर से उसका” हो गया हो। वह नहीं जानता था कि कुछ रिश्ते घर छोड़ते नहीं, दिल में गांठ छोड़ जाते हैं।
आज वही गांठ फिर से कस गई थी।
रात भर उसे नींद नहीं आई। सुबह होते ही वह बिना किसी को बताए सीधे उसी केंद्र के पते पर निकल गया। दरवाज़े पर हल्की भीड़ थी—कुछ महिलाएँ कपड़े नाप रही थीं, कुछ मशीन चला रही थीं, कुछ पैकेट में टिफिन भर रही थीं। अंदर से एक सधी हुई आवाज़ निर्देश दे रही थी—“धागा ढीला मत छोड़ना, वरना सिलाई उखड़ जाएगी… और हाँ, ग्राहक का काम है तो समय पर जाना चाहिए।”
सूरज का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
और तभी उसे वह दिखी—मेघा।
चेहरे पर वही शांत तेज़, आँखों में वही संयम, । उम्र ने उसके गालों की गोलाई कम कर दी थी, लेकिन उसकी गरिमा बढ़ा दी थी। वह किसी रानी जैसी नहीं, किसी साधारण स्त्री जैसी दिखती थी—जो हर रोज़ हारती नहीं, हर रोज़ जीतती है।
सूरज के कदम अपने आप आगे बढ़ गए। “भा…भाभी…” उसके होंठ काँप गए।
मेघा ने नज़र उठाई। एक पल को वह ठिठकी। उसकी आँखों में आश्चर्य था, फिर पहचान। लेकिन चेहरे पर कोई शिकायत नहीं आई। बस हल्की-सी मुस्कान उभरी—जैसे वह पहले से जानती हो कि एक दिन यह आवाज़ लौटकर जरूर आएगी।
सूरज अचानक झुक गया। उसने उसके पैर छू लिए। “भाभी… मुझे माफ कर दीजिए…”
मेघा घबरा गई। “ये क्या कर रहे हो? उठो सूरज… लोग देख रहे हैं।”
सूरज की आवाज़ टूट रही थी। “मैंने आपको हमेशा गलत समझा… मैंने कभी… कभी पूछा ही नहीं कि आप कैसे संभाल रही थीं सब कुछ…”
मेघा ने उसके हाथ पकड़कर उसे उठाया, और जैसे बच्चों की तरह उसके आँसू पोंछते हुए बोली, “गलतियाँ सब से होती हैं। पर कोई सीख जाए, यही बहुत है।”
सूरज ने हकलाकर कहा, “अभय ने बताया… आप… आप सबको काम देती हैं, ट्रेनिंग देती हैं, और…”
मेघा ने उसकी बात बीच में रोक दी। “अभय बहुत बोलता है।”
सूरज ने आँखों में आँसू लिए कहा, “भाभी… सच्चाई ये है—आज तक जो-जो खर्च घर में चला, जो माँ की दवाइयाँ, जो बहन की शादी, जो मेरी नौकरी के लिए शुरुआती मदद… वो सब… आपने…?”
मेघा की पलकों में हल्की नमी आ गई। “हाँ। पर इसमें एहसान क्या? तुम्हारे भाई का घर था ये। और तुम… उसके अपने थे। मैं कैसे अलग हो जाती?”
सूरज का गला भर गया। “और आपने बताया क्यों नहीं?”
मेघा की आवाज़ नरम थी। “जो अपना होता है, उसे हिसाब नहीं बताया जाता सूरज। और फिर… मैं चाहती थी कि तुम लोग अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। बस।”
सूरज अचानक बोला, “भाभी… घर चलिए।”
मेघा कुछ कहने ही वाली थी कि सूरज ने आग्रह भरी आँखों से देखा। “माँ… माँ को पता चलना चाहिए कि आपने क्या-क्या किया है… और मुझे भी… मुझे भी अपने अपराध का बोझ उतारना है।”
मेघा ने एक लंबी साँस ली। “ठीक है। लेकिन शोर मत करना। मेरे कारण घर में तमाशा नहीं होना चाहिए।”
घर पहुँचे तो माँ और राधिका दोनों चौंक गईं। माँ के हाथ से पूजा की थाली लगभग छूटते-छूटते बची। “मेघा… तू?”
मेघा ने धीरे से कहा, “माँ… प्रणाम।”
किरण देवी की आँखों में एक साथ कई भाव उमड़ आए—स्नेह, झिझक, अपराधबोध, और खालीपन। वह कुछ बोल नहीं पाईं। सूरज ने वहीं सब बता दिया—केंद्र, मेहनत, पैसे भेजना, देवर-ननद की जिम्मेदारी, सब कुछ।
माँ की आँखों से पछतावे के आँसू बहने लगे। वह कांपती आवाज़ में बोलीं, “बहू… हम… हम अंधे थे। तूने घर को बचाया और हमने तुझे पराया कर दिया।”
मेघा ने झट से माँ के आँसू पोंछ दिए। “माँ, अब बीती बात छोड़िए। दुख की बातों में समय मत गँवाइए।”
तभी राधिका, जो अब तक चुप खड़ी थी, अचानक रो पड़ी। वह आगे बढ़ी और मेघा से लिपट गई। “दीदी… मैं… मैंने भी आपको कभी समझा नहीं…”
मेघा ने उसके सिर पर हाथ रखा। “अब समझ लो, यही बहुत है।”
उस शाम घर में पहली बार “घर” जैसा लगा। खाना बना, लेकिन इस बार मेघा ने रसोई में खुद को अकेला नहीं छोड़ा। राधिका ने साथ सब्जी काटी, सूरज ने चाय बनाई, माँ ने तुलसी के पास दीपक जलाया। छोटे-छोटे काम थे, पर भाव बड़े थे।
कुछ दिनों बाद सूरज की शादी का एक कार्यक्रम था—उसकी बेटी अदिति का सगाई-समारोह। पंडित ने कहा, “कन्यादान के समय परिवार की वरिष्ठ स्त्री का होना शुभ होता है।”
माँ ने धीरे से कहा, “मेघा… तू ही बैठना मेरे साथ।”
मेघा हड़बड़ा गई। “माँ, लोग क्या कहेंगे?”
माँ ने दृढ़ स्वर में कहा, “लोग क्या कहेंगे? लोग वही कहेंगे जो सच है—कि मेरे घर की लाज तूने रखी।”
समारोह में जब रिश्तेदारों ने पूछा—“ये कौन हैं?” तब सूरज ने पहले की तरह ही, लेकिन अब गर्व के साथ नहीं—आदर के साथ कहा, “ये मेरी भाभी हैं… जिन्होंने हमें कभी अकेला नहीं छोड़ा।”
मेघा की आँखें भर आईं। उसे लगा जैसे वर्षों का अकेलापन किसी एक वाक्य से हल्का हो गया।
समय फिर चलता रहा। माँ का शरीर कमजोर होने लगा। सूरज की बेटी की शादी भी हो गई। केंद्र बढ़ता गया। मेघा ने कई स्त्रियों को आत्मनिर्भर बनाया। अब वह अकेली नहीं थी—उसके साथ बहुत सी जिंदगी थीं।
एक दिन मेघा की तबीयत ढलने लगी। उम्र का असर दिखने लगा। सूरज ने जिद करके कहा, “भाभी… अब आप आराम करो। केंद्र मैं संभाल लूँगा।”
मेघा ने पहले मना किया, फिर मुस्कुराकर बोली, “ठीक है… पर याद रखना, काम सिर्फ कमाई नहीं होता। काम किसी की हिम्मत बन जाना भी होता है।”
सूरज ने उस दिन पहली बार महसूस किया—भाभी शब्द में सिर्फ रिश्ता नहीं, एक छत होती है। जो गिरते को थाम ले। जो घर को जोड़ दे। जो बिना शोर किए पूरे घर की नींव बन जाए।
और उसे यह भी समझ आया कि किसी का त्याग “कहानी” नहीं होता—वह रोज़मर्रा की साधारण-सी मेहनत में छिपी असाधारणता होती है।
कभी-कभी इंसान की आंखें देर से खुलती हैं… पर अगर खुल जाएँ, तो रिश्तों में फिर से उजाला लौट आता है।
लेखिका : आरती शुक्ला