बेटी शब्द में ही प्यार है, दुलार है, एक अपनापन है, जब से वो मेरे पेट में थी, तब से ही उसके साथ एक अजीब सा लगाव था। एकेले में उसके साथ बातें करती रेहती थी। नौ महिने जीतना भी दर्द हो, तकलीफ हो, उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते, उस वक्त चाहे जितनी तकलीफ हो, मगर उफ़फ़ तक नहीं किया, क्योंकि पता था मुझे की वो मुझ से जुड़ी हुई थी, बस इंतजार था तो उसके आने का, उसे देखने का, उसे सुनने का, उसे छूने का, आख़िर वो दिन आ ही गया। मैं इतनी जोर से चिल्लाई कि, जैसे मेरी तो जान ही निकल गई हो, मगर जैसे ही मैंने उसके रोने की आवाज सुनी, मेरा सारा दर्द जैसे गायब, उसे देखते ही सारे जहांँ की खुशी जैसे मुझे ही मिली हो, इतनी खुशी मुझे हो रही थी । उसकी बड़ी सी आंँखें, प्यारे से मुलायम से हाथ, जैसी छोटी सी परी आसमन से उतर कर आई हो। एक मांँ बनने का अहसास ही कुछ ऐसा था, उस दिन मुझे पता चला की मेरी मांँ भी मुझसे क्यों इतना प्यार करती थी, क्यों हर वक्त वो मेरी चिंता करती रहती थी, क्यों जब तक स्कूल से मैं वापिस घर ना आ जाऊँ, तब तक मेरा इंतज़ार करती। जब तक में घर वापस न आ जाऊँ, तब तक वह घडी और दरवाज़े पे नज़र टिकाए खड़ी रहती, मुझे देख के जैसे उसकी जान में जान आती थी। ये मुझे उसकी आँखों से पता चल जाता था। आज पता चला माँ ऐसा क्यों करती थी ? आज मैं भी ख़ुद एक माँ हूँ।
घर में सब बहुत खुश थे। सब बधाई दे रहे थे, मिठाइयांँ बाँटी जा रही थी। सबके चेहरे पर एक अलग सी खुशी थी। जैसे सारे जहाँ की खुशी हमारी ही झोली में भगवान ने डाल दी हो। वक़त बितता गया। बेटी अब बड़ी हो चली। उसका पहला वो स्कूल का दिन, वो रोती थी, मगर स्कूल तो जाना था, मेरे लिए भी मुश्किल था पहली बार उसी से दूर रहना और उसे किसी के पास भेजना। मगर क्या करे में भी तो गई थी स्कूल। मेरी मांँ ने भी तो यही किया था। एक तरफ खुशी के आँसु आंँखों से बेहते ही जाते थे। टाटा बाय बाय, उसके जाने के बाद उसका इंतजार था। दरवाजे पर नज़र टिकाए बैठे हम तो। फिर उसके लौट ने पर सबसे पहले उसे गले से लगाना और प्यार करना आज भी मुझे याद है।
अब धीरे-धीरे वो 10 साल की हो गइ, पता ही नहीं चला इतने साल कब और कैसे बिट गए, उसे खिलाना, पढ़ाना, रुढना, मनाना, उसके साथ खेलना, मस्ती करना, गलत करे तो साथ में थोड़ी डाँट फटकार भी सुनाना। वक़त बितता चला, हस्ते-खेलते ।
अब वो 15 साल की हो गई, एक बेटी से लड़की और लड़की से औरत बनने तक का सफर यही से शुरू होता है, उसका पहला महावरी का समय । थोड़ी डरी हुई, थोड़ी शरमाई और सेहमी हुई सी थी, फिर मेंने प्यार से उसे समझाया, ये तो सब के साथ होता है और डर ने की कोई ज़रुरत नहीं। तुम सिर्फ़ आराम करो। उसके बाद वो थोड़ी रिलैक्स हुई।
अब वो अपनी उम्र के एक नए पड़ाव में पैर रख़ चुकी थी। उसके नए दोस्त भी बनते गए और नए दोस्तों के साथ सोच भी बदली, फिर आदतें, फिर थोड़ा सा अपनापन। में थोड़ा समझ गइ थी, कि क्या चल रहा है, आखिर माँ हूँ उसकी, कैसे ना समझती उसे ? लेकिन में चुप रही, उसकी मांँगे बढ़ती चली गई, लड़की बड़ी होती चली गई और उसके कपड़े छोटे होते गए, लेकिन एक दिन मुझ से रहा नहीं गया। मैंने उसको समझाना चाहा मगर बात और बिगड़ती चली गई। गुस्से में उसने अपने कपड़े, किताबे सब इधर-उधर फेंकने लगी और फिर उसने कहा कि आप ने मेरे लिए किया ही क्या है ? ये सुनकर मेरे पैरो के नीचे से तो जैसे ज़मीन ही सरक गई। उस वक़्त में चुप रही और चुप-चाप अपने कमरें में चली गई । उस रात मैं रोती रही, सोचती रही कि मेरी कौन सी गलती का ये नतीजा है ? फिर मैंने उसे एक चिठ्ठी लिखी।
” मेरी प्यारी,
तू जब मेरे पेट में थी ना तब से मैंने तुझे प्यार किया है, नौ महीने चाहे जितना भी दर्द हुआ हो, चाहे कितनी भी तकलीफ हो ,मैंने उफ्फ तक नहीं किया कभी। क्योंकि तू मेरी ज़िंदगी थी, तेरी साँसो से मेरी साँसे जुड़ी हुई थी । जब मेरे पास कोई नहीं होता था, तब तू ही थी जिससे में अकेले में बातें किया करती थी। मगर शायद तू ये सब ना समझ सके। तेरे पापा के जाने के बाद मैंने सिलाई का काम शुरु किया और साथ-साथ छोटे बच्चों को पढ़ाना भी शुरू किया था, तब जाके तेरी स्कूल की फ़ीस, तेरे लिए हर महीने नए कपड़े, घर का ख़र्चा, उसमे से निकलता था। मगर शायद तू ये सब ना समझ सके। तू जब भी घर से बाहर जाती थी, तब हर वक़्त एक डर सा लगा रहता था, कि कहीं तुझे कुछ हो न जाए, तेरे घर आने के बाद ही मेरे इस दिल को तसल्ली मिलती थी। आज कल ज़माना बहुत ख़राब हो गया है। लड़कियों की इज्ज़त पे हाथ डालनेवाले आए दिन घूमते ही रेहते है, मगर शायद तू ये सब ना समझ सके। जब तूने खाना नहीं खाया, तब मैंने भी खाना नहीं खाया। तेरी बीमारी में तुझ संग रात भर में भी जगती थी। तेरी गलती पे तुझे थप्पड़ लगाने के बाद, दस बार अपने को ही मार के दस बार में रोई थी। सर्दियों में तेरे लिए स्वेटर मैंने अपने हाथो से बनाए थे। बारिश में तेरा छाता भी बनी में, दिवाली में मैं पुरानी साडी पहनती थी, मगर तेरे लिए हर साल नए कपड़े और जूते आ ही जाते थे, भगवान से मैंने हर पल यही माँगा, कि ” तेरे सारे दुःख मेरे और मेरी सारी खुशियाँ तेरी। ” अपने लिए तो कभी कुछ माँगा ही नहीं और हाँ.. तेरे आने के बाद मैंने कभी अपने बारे में सोचा भी नहीं। बस हर वक़्त तेरे बारे में ही सोचना और तेरा ही ख्याल रखना और कुछ नहीं, शायद उस वक़्त, मैंने तेरे नहीं अपने बारे में सोचा होता तो, आज मैंने भी अपना सपना पूरा किया होता, लेकिन मैंने खुद को तुझी में ढूंँढा। शायद तू ये सब ना समझ सके। बस सिर्फ़ यही मेरी गलती थी, तेरे लिए तो आज तक मैंने कुछ किया ही नहीं। मगर तू खुश रहना, तेरी माँ जो कभी में बन ना सकी। तुझ को समझ ना सकी। मेरा आशीर्वाद हंमेशा तेरा साथ रहेगा। “
और अगले दिन सुबह ये चिठ्ठी उसके कमरें में छोड़कर में घर से चली गई। वो तो पता नहीं जाना था मुझे कहाँ ? पर कदम अब रुकते नहीं थे।
तो दोस्तों, क्या बेटी को अपने किए पर पछतावा होगा ? और क्या वो अपनी माँ को ढूँढ पाएगी ? जानने के लिए पढ़ते रहना अंश २।
स्व-रचित
बेटियाँ भाग-1
बेला पुनिवाला