बेटी से बहू तक का सफ़र – स्नेह ज्योति

संयुक्त परिवार में पली रत्ना बचपन से ही आलसी ,कामचोर रही । काम करने की ज़्यादा आदत ना होने के कारण जल्द ही थक जाती और दूसरों को अपने काम थमा तफ़रीह पे चली जाती ।

जब तक छोटी थी तब तक सब ठीक था जैसे-जैसे वो बड़ी हुई घर के प्रति जिम्मेदारी काम के एहसास से दूर होने लगी।एक दिन उसकी चाची को कहीं जाना पड़ा तो वो रत्ना को कपड़े धोने का कहने लगी ।लेकिन रत्ना ने झट से मना कर दिया,मेरे पास समय नही है मैं पढ़ाई में व्यस्त हूँ बोल टाल के चलती बनी ।

तभी शगुफ़्ता तमतमाती हुई अंदर गयी और चिल्लाने लगी दीदी आप अपनी लड़की को समझा दो ।माना पढ़ाई भी ज़रूरी है पर घर दारी सर्व प्रथम है । मेरी भी बेटी है वो भी घर के काम करती है कल को अगले घर जाना है तो कैसे करेगी ??

ठीक है शगुफ़्ता मैं उसे समझा दूँगी ।

यूँही दिन गुजरे पर हालात ना बदले । इतने में रत्ना के लिए एक अच्छा रिश्ता आया और चट मँगनी पट ब्याह हो गया । उसके ससुराल वाले बहुत ही नेक दिल और शरीफ़ लोग थे ।

“मयंक घर में इकलौता है “यही जानकर रत्ना ने शादी के लिए हाँ की थी । अच्छा है ! मेरे परिवार की तरह ज़्यादा लोग नही है ,एक छोटा सा परिवार हैं और नौकर भी है तो कोई परेशानी नहीं होगी ।यहीं सोच ससुराल में कदम रख रही थी ।

जब वो अपने ससुराल पहुँची तो कुछ रस्में हुई और बाद में सब रिश्ते दार अपने-अपने घर चले गए । सबके जाने के बाद वो भी आराम करने चली गयी ।और जब आँख खुली तो चारों ओर शोर मचा हुआ था – तौलिया दे दो ! चाय दे दो ! खाना दे दो ! ये सब देख मुझे अपने घर की याद आने लगी ।

तभी सासु माँ अंदर आयी ,उठ गयी बेटी कैसा लगा नया घर ! ….बड़ी असमंजस में थी, क्या कहूँ – जी अच्छा है । शारदा जी उसे अपने साथ बाहर हॉल में ले कर चली गई । बाहर जाते ही “बहू के लिए खाना लाओ ।बेटा ये खा लो ,या कुछ और ….ये सब अच्छा लग रहा था “।

आओ बहू अब तुम्हें घर के लोगों से परिचित करा दूँ।




ये मयंक के चाचा -चाची है ,ये बुआ है और ये हमारे घर का अलादिन हरिया है ,मैं ,तुम्हारे बाबू जी और मयंक बस यही सात लोगों का छोटा सा परिवार है जो तुम्हारे आने से पूरा हो गया ।

ये दृश्य देख सब ख़ुश थे पर मेरे तो तोते उड़े हुए थे । जिस से भागती रही हर पल ,अब वोही करना पड़ेगा उम्रभर…….

मयंक के चाचा जी की कोई औलाद नही थी ,तो वो भी यही रहते थे और भुआ जी विधवा थी तो उनका भी आश्रय यहीं था । सच में ही मयंक

इकलौता ही था ।

हाय राम ! इतने सारे लोग …गहरी साँस ली और ग्रहस्थ जीवन में उतर गयी ।आज चाची के वो सत्य कटु वचन याद आ रहे थे “देखती हूँ कब तक काम से बचती हो “…….आज गिरने का डर था क्योंकि सम्भालने वाले अपने संग नही थे ।

कुछ दिन यूँही बीत गए नयी-नयी शादी थी ,तो कोई ज़्यादा काम भी नही करना पड़ता था । लेकिन जैसे ही शादी पुरानी हुई तो काम का बोझ बढ़ने लगा ,पर यहाँ पर भी रत्ना अपना काम हरिया पे डाल चली जाती ।थोड़े दिन तक तो सही था पर हमेशा ऐसा नही हो सकता था ।शारदा जी ये सब भाँप गयी थी , लेकिन वो ख़ामोश रही ।

एक दिन सब लोग बाज़ार गए हुए थे । बहुत दिन बाद रत्ना को घर में अकेले वक्त गुज़ारने का मौका मिला और उसने सारा वक्त गाने सुनने ,मूवी देखने,आराम करने में बिता दिया । तभी घर की घंटी बजी और हरिया दौड़े गया सब लोग वापस आ चुके थे । बारिश का मौसम था तो सबका पकोड़े खाने का मन हुआ । माँ ने हरिया को कहा तभी मयंक बोला -“आज हरिया के हाथ के नही ,रत्ना के हाथ के पकोड़े खायेंगे “…

तभी मयंक अंदर गया और रत्ना को जगाने लगा रत्ना – क्या है सोने दो , इतनी अच्छी नींद आ रही है ।

मयंक- लेकिन रत्ना ,सबको तुम्हारे हाथ के पकोड़े खाने है ,मैंने तुम्हारी बहुत तारीफ़ की है तो चलों उठ जाओं ……

मुझे पकोड़े बनाना और तली चीजें पसंद नही है ,तो जाओं हरिया को बोलो वो ही बना देगा । बाहर से गुजरती हुई मयंक की बुआ ने ये सब सुन लिया और जाकर शारदा को बताने लगी । माना कि अब जमाना बदल चुका है , “अब बहू बहू नही बेटी है “ पर घर के काम तो दोनो को करने पड़ते है ।

शारदा भी ये जान चुकी थी कि बहू को काम करना ज़्यादा पसंद नही है इसलिए उन्होंने जिस बहू को बेटी बनाया था ।अब उसी बेटी को बहू बनाने का समय आ चुका था …

शारदा जी रोज़ रत्ना से एक काम करवाती जो वो करना चाहें । रत्ना भी एक काम ही करना है तो वो कर देती । धीरे धीरे वो घर के कामों में रुचि लेने लगी । लेकिन आज भी कई बार वो काम करने में टाल-मटोल कर जाती थी।

इसलिए शारदा जी और काम्या चाची ने एक योजना बनाई और कहा कि एक ज़रूरी काम से उन सबको अपने गाँव जाना पड़ रहा है तो थोड़े दिनो के लिए घर और मयंक की ज़िम्मेदारी तुम्हें सम्भालनी पड़ेगी ।

“ठीक हैं मम्मी जी और फिर हरिया भी तो है “

हरिया ! ये तो हमारे साथ जा रहा है तेरे बाबू जी की तबियत का तो पता ही है ….

रत्ना उन्हें विदा करते हुए ख़ाली घर को देखते हुए ये सब कैसे होगा ???

मयंक भी दफ़्तर के लिए निकल गया । रत्ना अकेली बैठी आज क्या करूँ ??कहाँ से शुरू करूँ ??कुछ समझ नही आ रहा था ??

फिर उसे अपनी सास की बात याद आयी “जो करना चाहो करो पर मन से करो “ वोही सोच वो काम में लग गयी ।

कुछ दिनो में वो काम में इतनी निपुण हो गयी कि मयंक को अचरज होने लगा कि ये रत्ना ही है या उसके अंदर कोई जिन आ गया हैं । अब वो हर काम भाग के ,खुश हो कर करने लगी ।

कुछ ही दिनो में सब लोग वापस आ गए ।घर का नया रूप देख सबको अच्छा लगा ,क्योंकि रत्ना ने इसे अपने हाथों से सजाया था और अगले ही पल रत्ना बिन कहे सब के लिए चाय पकोड़े बना के लेकर आयी ।

रत्ना का ये रूप देख सब दंग थे ,पर शारदा जी खुश थी क्योंकि वो जान गयी कि उनकी बेटी अब बहू के धर्म को जान गयी है । जब तक ज़िम्मेदारी की एहसास ना हो तो रिश्तों में भी एहसास नही होता…..

शारदा जी ने रत्ना को गले लगाया और आशीर्वाद दिया । बोलो ! तुम्हें क्या चाहिए

शर्माओ नहीं बोलो !

मम्मी जी क्या मैं कुछ दिनो की लिए अपने घर जा सकती हूँ …..

शारदा जी सबको देखती हुई ,हँस कर बोली जाओं जब जाना चाहतीं हो जाओ “आख़िर बहू भी तो बेटी होती हैं “।

#बहू

स्वरचित रचना

स्नेह ज्योति

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