बेटी होने की जिम्मेदारी – सुमन श्रीवास्तव

सुरु वो सुरु ” देखो बेटा, सुमित के कमरे की सफाई ठीक से कर देना । ऐसा न हो तेरे भईया भाभी को आने के बाद किसी किस्म की परेशानी हो और हां जिस समान की जरूरत हो बाजार से मंगवा ले। मुझे देखने के लिए कितना लम्बा सफर करके आ रहे हैं। “सुरुभि ” जिसे सब घर में ” सुरु “बुलाते हैं, अपने कमरे से सामान की पैकिंग करते हुए बोली, ” जी पापा देखती हूं, आप परेशान ना हों, मैं कर लूंगी सब”। 

सुरभि उठ कर सुमित के कमरे की तरफ चल दी। पता नहीं क्यों आज पापा का बार बार भईया के लिए यूं परेशान होना उसे अच्छा नही लग रहा था। पता नही पापा का भईया के लिए प्यार है, डर है या कुछ और? उनका अपना घर है उन्हे क्यों किसी बात की परेशानी होगी। किचन का सामान उसने कल ही मंगवा लिया था। कमरा भी साफ सुथरा हो चुका है। मन ही मन सुरभि सोच रही थी। 

सुरभि रमेंद्र जी की बेटी है। जो हर छुट्टियों में अपने पापा की देखभाल के लिए मायके आ जाती है, क्योंकि मां अब है नहीं और पापा उम्रदराज हो चले हैं। पति रोहित को शुरू शुरू में अच्छा नही लगता थे, लेकिन फिर सुरभि ने ही उन्हें समझाया था,

” देखो रोहित मैं साल के बाकी दिन बहू, पत्नी और अच्छी मां के सारे कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाती हूं और मैंने कभी तुम्हे शिकायत का मौका नही दिया लेकिन अब मां के न रहने पर पापा बहुत अकेले हो गए हैं। इसलिए मुझे एक बेटी होने की जिम्मेदारी भी पूरी करने दो “।

उसके बाद रोहित ने उसे नही रोका। तब से सुरभि हर छुट्टी में बच्चो समेत मायके आ जाती है जिससे पापा को अकेलापन न लगे। डोरबेल की घंटी बजी तो सुरभि सोच से बाहर आई। दरवाजा खोला तो सामने उसकी मौसी संगीता जी खड़ी थीं।

सुरभि के गले लगकर बोली ” कल जा रही हो बेटा, इसी शहर में रहकर मुझसे बिना मिले ही? हां मौसी आपको तो पता ही है कि बच्चो की छुट्टियां खत्म हो गई हैं। अभी भईया भाभी के आने की तैयारी में लग गई थी , उसके बाद आपसे जरुर मिलने जाती।

इतने में रमेंद्र जी आ गए और बताने लगे ” जानती हो संगीता कल तीन दिनों के लिए सुमित , बहू और बच्चे आ रहे हैं। आज के जमाने में सुमित जैसा बेटा बहुत भाग्य से मिलता है जो मेरी इतनी परवाह करता है। लाखों में एक है मेरा बेटा। भगवान ऐसा बेटा सबको दे”। ।



संगीता जी ने देखा रमेंद्र जी का बेटे की यूं तारीफ करना सुरभि को शायद अच्छा नही लग रहा था। सुरभि को साथ लेकर संगीता जी किचन में चल पड़ी। चल सुरु जाते जाते अपने हाथ को चाय पिला दे बेटा, संगीता जी बोली। चाय के लिए पानी गैस पर रखते हुए सुरभि से पूछी ” सुरु बेटा तू परेशान हैं क्या ? तू नहीं बताएगी फिर भी मैं जान गई हूं” बता क्या बात है? मुझे लगता है कि तू इस बात से परेशान है कि तुम्हारे पापा तेरे भइया के किए की ज्यादा तारीफ करते हैं और तुम्हारी नही। है ना?

हां मौसी, पता। नहीं क्यों आज पापा का बार बार भईया की तारीफ करना अच्छा नही लग रहा, भईया तीन दिनों के लिए आ रहे हैं तो उन्हें फक्र हो रहा है और मैं यहां पच्चीस दिनों से हूं लेकिन उन्होंने कभी झूठी भी तारीफ नहीं की। और अगर पूरे साल की बात करू तो मैं लगभग हर छुट्टी में यहां आती हूं लेकिन कभी उनके मुंह से मेरे बारे में प्रशंसा के दो बोल भी नहीं निकलते। क्यों उन्हें मेरा किया कुछ भी नहीं दिखता? । संगीता जी हंसते हुए बोली ,देख बेटा पहली बात ।

” हम औरतों का घर के लिए या अपने परिवारजन के लिए किया कुछ भी प्रशंसा का मोहताज नहीं होता। उसके बदले में हमे जो संतुष्टि मिलती है न सिर्फ हम ही उसे महसूस कर सकते हैं और शायद यही भावना हमे परिवार के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए प्रेरित करती है। आजकल के बच्चे तो फिर भी हमे मदर्स डे पे थैंक बोलकर हमे एहसास करा देते हैं कि हम उनके लिए खास हैं दिखावे के ही खातिर सही। लेकिन और जो रिश्ते हैं न चाहे वो हमारे मां बाप , सास ससुर या फिर पति ही क्यों न हो, इनको हमारी इतनी आदत पड़ जाती है कि उन्हें महसूस ही नहीं होता कि हम उनके लिए कुछ करते है या यूं कह लो हम ” ग्रांटेड” लिए जाते हैं।

दूसरी तरफ अगर हमारा काम अगर हमारे बदले कोई बेटा, पति , पिता या भाई करता है तो उसे प्रशंसा और सम्मान का पात्र बना दिया जाता है। और हम ये सब देख सुनकर इतने सहनशील हो चुके होते हैं कि एक समय के बाद ये सब बातें असर ही नहीं करती। इसलिए बजाय इन उलझनों में पड़ने के बेफिक्र होकर अपना कर्तव्य पूरी करती रहो। क्योंकि तुम्हारे पापा से इस उम्र में कोई बदलाव हो पाना मुश्किल है। हंसती हुईं संगीता जी ने सुरभि के सर पे हाथ फेरा। । सुरभि भी हंसते हुए पापा की सुगरफ्री चाय लेकर उनके कमरे में चल दी। 

द्वारा – सुमन श्रीवास्तव गांधीनगर, गुजरात। 

स्वरचित मौलिक।

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