फोन का रिसीवर रखने के बाद रजनी के मन में अपनी बिटिया रंजीता के आखिरी शब्द बहुत देर तक गूँजते रहे…
‘बेटी को बेटी ही रहने दो, उसे बेटा मत बनाओ…’
रजनी अवाक रह गयी और गहराई से सोचने लगी कि उससे चूक कहाँ हुई। इतना आक्रोश कैसे भर गया उसकी बेटी के मन में। यहाँ तक कि इस आक्रोश का जिम्मेवार भी वह रजनी को ही मान रही थी जिसने पूरे घर और समाज से लड़कर अपनी बेटी को वो हर अधिकार दिलाए जो किसी पुरुष प्रधान घर में सिर्फ लड़कों को ही मिले हुए थे। शायद यहीं वह भूल कर गयी। परंतु वह भी क्या करे। रजनी अपने अतीत के पन्ने पलटने लगी। इस बात का उसे आजीवन मलाल रहा कि सिर्फ लड़की होने की वजह से वह अपने सपने पूरे नहीं कर पायी थी।
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रजनी चार भाई-बहनों में सबसे छोटी थी। बचपन से ही वह हवाई जहाज देखकर बहुत रोमांचित हो जाती थी। हवा में जहाज को उड़ते देख सोचती रहती कि काश! उसे भी पंख मिल जाते तो वह भी आसमान की सैर कर आती। पक्षियों का आसमान में उड़ान भरते देखना उसे इतना पसंद था कि वह घंटों उन्हें निहारती रहती। उनकी कलाबाजियों पर खुश हो ताली बजाती रहती।
थोड़ी बड़ी हुई तो उसे पता चला कि हवाई जहाज मानव निर्मित एक यंत्र है जिसका तकनीकी ज्ञान सीखकर मनुष्य ही उड़ाता है। उसने भी मन में संकल्प लिया कि वह भी इस ज्ञान को सीखकर एक दिन जहाज उड़ाएगी। तब उस भोली बालिका को कहाँ पता था कि बड़ी होने पर आसमान तो दूर घर की चौखट से बाहर जाने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ेगी। माध्यमिक शिक्षा तक आते-आते उसे यह अच्छी तरह समझा दिया गया,
‘लड़की हो लड़की की तरह रहना सीखो।’
जबतक विवाह नहीं हो जाता तबतक समय काटने के लिए पढ़ाई जारी रखनी होती थी। यहाँ तक कि विज्ञान विषय लेकर शिक्षा ग्रहण करने में भी कई अड़चनों का सामना करना पड़ा था। लड़कियों का ट्यूशन जाना अच्छा नहीं माना जाता था। पास-पड़ोस के व्यंग्य-बाण सुन-सुनकर सहज-सुलभ शिक्षा पर ही ध्यान केंद्रित करना पड़ा।
“लड़की है, कितना पढ़ेगी?”
इस तरह के तीर समय-समय पर समाज द्वारा छोड़े जाते रहते। फिर जल्दी से अंतिम बेटी के हाथ पीले कर गंगा नहाने का लोभ माता-पिता संवरण नहीं कर पाए।
स्नातक उत्तीर्ण करते ही रजनी को विवाह-बंधन में बांध दिया गया। रजनी का ससुराल तो मायके से भी ज्यादा रूढ़िवादी था। पर खुशी की बात यह थी कि उसके पति उदारवादी विचारों के थे और स्त्रियों का सम्मान करते थे, परंतु अपने घरवालों के सामने पत्नी का पक्ष लेने की हिम्मत नहीं होती थी उनकी। पति के प्रगतिशील विचारों का फायदा रजनी को तब मिला जब उसके पति का तबादला दूसरे शहर में हो गया। पति ने स्नातकोत्तर में एक नियमित विद्यार्थी के रूप में नामांकन करवाया इस तरह उसकी अधूरी शिक्षा पूर्ण हुई थी। हालांकि दो बच्चों के हो जाने के बाद काफी बाधाएं भी आयीं, परंतु पति के सहयोग से सफल होती गयी।
दो प्यारे बच्चों को जन्म देने के बाद रजनी ने अपना पूरा ध्यान बच्चों पर केन्द्रित कर लिया और उसी समय यह सोच लिया था कि वह अपने दोनों बच्चों पुत्र वैभव और पुत्री रंजीता की एक समान परवरिश करेगी। उसने दोनों बच्चों में कोई भेद नहीं किया। दोनों को समान सुविधाएं प्रदान की। अपनी तरफ से रजनी ने कोई कसर न छोड़ी थी। बच्चे जो विषय लेकर पढ़ना चाहते थे, उनकी इच्छा को महत्व दिया और संबंधित सभी सुविधाएं भी उपलब्ध करायी।
ऐसा नहीं था कि रजनी को समाज के तानों का सामना नहीं करना पड़ा। कई बार प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी आयीं परंतु वह स्वयं सबका सामना करती और सवाल करनेवालों को यह कहकर चुप करा देती कि ‘उसकी बेटी उसका बेटा है। ‘ शायद यही रजनी की भूल थी। जब ईश्वर ने पुरुष और स्त्री की अलग-अलग संरचना कर अलग-अलग शक्तियों से नवाजा है तो उन्हें उसी रूप में स्वीकार कर उनकी शक्तियों और उनकी प्रतिभा को निखारना अधिक न्यायोचित था।
माँ के सहयोग से रंजीता सफलता की सीढ़ियाँ तो चढ़ती गयी, परंतु नारी सुलभ कार्यों में स्वयं को सहज नहीं महसूस कर पाती थी । घरेलू कार्यों में रूचि न रहने के कारण उसे बहुत तकलीफ होती। (कभी मजबूरीवश करना भी पड़ता तो झुंझला उठती थी अपनी माँ पर।)
एक दिन तो हद हो गयी। रंजीता जो अपनी माँ के द्वारा बार-बार बेटा कहे जाने पर स्वयं को लड़का ही मानने लगी थी। यहाँ तक कि उसके अधिकांश दोस्त भी लड़के ही होते थे। कालेज से दस विद्यार्थियों का एक ग्रुप शैक्षणिक टूर पर गया जिसमें रंजीता अकेली लड़की थी। रंजीता के पापा ने आपत्ति जताई तो रजनी ने प्रतिभा को दबाने की पुरुष प्रधान मानसिकता बताकर चुप करा दिया। रंजीता टूर पर चली तो गयी, पर उसे बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। दो सदस्य प्रति कमरा के हिसाब से 5 कमरे लिए गए थे। अब रंजीता को कमरा शेयर करने में अपने लड़की होने का अहसास हुआ। समस्या तो किसी प्रकार सुलझ गयी। एक कमरे में तीन विद्यार्थी आ गए और एक कमरा रंजीता को मिल गया। इसपर एक विद्यार्थी ने तो व्यंग्य कर ही दिया,
“वैसे तो हर चीज में लड़कों की बराबरी करती रहती है, फिर लड़की होने का भी फायदा उठा लिया।”
यहाँ रंजीता को अपने पापा की आपत्ति समझ में आयी।
हालाँकि रंजीता ने विवाह माँ-बाप के सुझाए लड़के से ही की, परंतु इसमें भी रजनी और उसके पति ने अपनी पुत्री के फैसले को ही सर्वोपरि माना।
विवाह के कुछ वर्षों बाद रंजीता के पास पहली बार ससुराल से उसकी दादी सास इलाज के लिए गयी थी जो अत्यंत ही रूढ़िवादी मानसिकता की थीं। रंजीता के पति ने उससे कहा कि कुछ दिनों की बात है, दादी के सामने साड़ी ही पहनो तो उन्हें भी अच्छा लगेगा। रंजीता ने सिर्फ अपनी शादी में ही साड़ी पहनी थी जिसे पार्लर वाली ने पिनअप कर बाँधा था। उसके बाद तो उसने साड़ी क्या सलवार सूट को भी हाथ नहीं लगाया था, क्योंकि उसे शुरू से ही शर्ट-पैंट पसंद था। घर में पाजामे या बरमूडा में रहती। रंजीता पति की खुशी के लिए साड़ी पहनने को राजी हो गयी।
दादी के सामने किसी तरह साड़ी बाँध तो ली, पर जब चाय पकड़ाने के लिए उठी तो उसकी साड़ी खुल गयी। दादीसास ने तुरंत ताना मार दिया कि “कैसी लड़की है जिसे साड़ी बाँधनी भी नहीं आती।”
उस दिन तो रंजीता अपमान से तिलमिला कर रो पड़ी थी और उसे अपने पापा की बात याद आने लगी। एक बार उन्होंने कहा था कि रंजीता को लड़कियों वाली ड्रेस भी पहनने दो। पर रजनी को पति की बात दकियानूसी लगी। उसने बचपन में भी कभी कोई फ्राक नहीं पहनायी।
उस समय रंजीता को अपनी मम्मी ढाल के समान लगती थी जो हर किसी से उसके लिए लड़ जाती थी। परंतु अब उसे अपनी उसी माँ पर क्रोध आने लगा। एक माँ को अपने बच्चों में हर परिस्थिति से निपटने का हुनर सिखाना चाहिए। रजनी ने बेटा बनाने की जिद में रंजीता की नारी-सुलभ कोमलता का अहसास ही नहीं होने दिया। रक्षा में हत्या कर डाली।
कई बार ऐसी परिस्थितियाँ हुईं जब रंजीता को शर्मनाक और हास्यास्पद स्थिति से गुजरना पड़ता। धीरे-धीरे वह चिड़चिड़ी होती गयी। हर बात के लिए अपनी मम्मी को कोसने लगी। उसके अंदर खीझ इतनी बढ़ गई कि मम्मी का फोन उठाना भी बंद कर दिया। रजनी समझती कि व्यस्तता के कारण उसका फोन नहीं उठाती होगी।
इस बार जब रजनी ने फोन किया तो फोन तो उठाया रंजीता ने पर सिर्फ हूँ… हाँ… ही बोल पायी। रजनी ने उसे उत्साहित करने के लिए जब कहा कि ‘तुम मेरी बेटी नहीं, बेटा हो…’
तो रंजीता का आक्रोश भड़क उठा और उसने यह कहकर फोन पटक दिया…
“बेटी को बेटी ही रहने दो, उसे बेटा मत बनाओ।”
रजनी आत्ममंथन करने पर मजबूर हो गयी कि
यह क्या कर डाला उसने? बेटी को बेटा बनाने के चक्कर में नारीसुलभ नैसर्गिकता को ही खत्म कर डाला। पति की बातों का अर्थ उसे अब समझ आया,
‘बेटी को बेटा बनाने की आवश्यकता ही क्यों है ? उसे सारी सुविधाएँ मिले जो एक लड़के को मिलती है, परंतु प्रकृति प्रदत्त व्यवस्था से इंकार करना बुद्धिमानी नहीं।’
काश! उसने पति की बातों को तब समझा होता!!
#अन्याय
मौलिक
गीता चौबे “गूँज”
राँची झारखंड