सरीता देवी लगातार बेचैनी भरी नज़रो से दरवाजे की ओर बार बार देख रही थी,अभी तक उनका बेटा आनंद आया नहीं था,कह कर गया था कि अभी दवाई लेकर आता हूँ.।
काफी देर हो गयी थी पर लौटा नहीं था अभी तक जबकि हास्पिटल वाले बार बार आकर सरीता देवी से उनकी दवाईयों के बारे में पूछ रहे थे क्योंकि जितनी देर होगी उनके पति विजय जी को बचाना मुश्किल हो जायेगा..
सरीता देवी के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी,ऑपरेशन का खर्च भी जमा करना था लेकिन विनोद का कहीं अता पता नहीं था,उसका मोबाईल भी बंद बता रहा था जाने कहाँ चला गया था विनोद..समय बीतता जा रहा था
तभी सामने दरवाजे से उनकी बेटी रमा अपनी पति रमेश के साथ दौड़ती हास्पिटल में प्रवेश की,उसने माँ को एक नज़र देखा और उसके गले लग रोने लगी इस बीच उसके पति रमेश रिसेप्शन की ओर दौड़ पड़े थे,जल्दी जल्दी ऑपरेशन की सारी खानापूर्ति पूरी की.
इधर बेटी रमा माँ से शिकायत कर रही थी कि पहले बताया क्यूँ नहीं,वो तो अच्छा हुआ कि उसकी सहेली रीमा ने उसे पिता के हृदयाघात के बारे में बताया और हॉस्पिटल का नाम बताया…
भैया कहाँ हैं…दिखाई नहीं दे रहें….
जाने कहाँ चला गया….कहकर गया कि अभी आ रहा हूँ…पर अभी तक आया नहीं है…
जबकि सच यह था कि उनका बेटा आनंद खर्च की डर से कहीं छूपा बैठा था और जब वापस आया तो उसके हाथ में जायदाद़ के काग़ज थे जिसपर उसे उसके पिता के दस्तखत की आवश्यकता थी लेकिन इस बीच विजय जी का ऑपरेशन हो चुका था…और वो खतरे से बाहर थे….
भाई के हांथों में जायदाद के कागज देख रमा ने हँसकर कहा वाह भैया जिस जायदाद के लिए तुम पिता जी को इसतरह मरता छोड़ गए उसे पिता जी ने पहले ही माँ के नाम कर दिया है और उसके मरने के बाद सारी सम्पत्तियों को उसी अनाथालय को दान करने को कहा है जहाँ से वो तुम्हें लेकर आए थे…
काटो तो खून नहीं….
आनंद जिंदा होकर भी मृत खड़ा अपने परिवार वालों को देख रहा था पर उनसे नज़रे नहीं मिला पा रहा था शर्म उसकी आँखों में साफ झलक रही थी लेकिन एक तथ्य एक बार फिर सही साबित हुई थी कि बेटी बेटे से कम नहीं बल्कि बेटी बेटे सी ही है यहाँ तक बेटे से बढकर ही होती है
विनोद सिन्हा “सुदामा”