शामराव जी अपने घर की बालकनी में कुर्सी लगाकर बैठे थे, दो दिन के बाद दीपावली का त्यौहार था। पूरे घर पर रोशनाई लगवाई थी। मिट्टी के दिए भी मंगवा कर रखे थे, उन्हें यही लगता था कि मिट्टी के दियों को जलाए बिना कैसी दीपावली। दरअसल वे इन दिओ को जलाकर अपने पैतृक गाँव से जुड़ाव महसूस करते थे।
बहुत याद आता था उन्हें अपना गाँव। इतनी रोशनी के बीच अकेले बैठे थे, फिर भी दिल के एक कौने में अंधेरा पसरता जा रहा था। मन उदास था। उनकी पत्नी रोहिणी घर के कार्य में लगी हुई थी। वे विचारों में खोए थे, तभी रोहिणी की आवाज आई कब तक इस तरह बैठे रहेंगे, भोजन नहीं करना है क्या?
वह बड़बड़ा रही थी त्यौहार का समय है, बस अकेले काम में लगे रहो, एक सुबह नौ बजे से बाहर बालकनी में आसन जमाकर बैठ जाते हैं। और बेटा अपनी ही धुन में मस्त रहता हैं। शामराव जी बालकनी से घर के अन्दर आए, पूछा -‘राजू कहाँ है?’ गया होगा छत पर घर के अन्दर तो उसका मन ही नहीं लगता है। मैं अकेली माथापच्ची करती रहूँ। अब तो ये त्यौहार भी मुझे एक भार जैसे लगते हैं। न कोई बोलने वाला, न कोई मदद करने वाला।
आशा भी पॉंच दिन की छुट्टी लेकर गॉंव गई है।’उसकी आवाज में रोष था। शामराव बाबू को मन ही मन हॅंसी आ रही थी, सोच रहै थे सब तुम्हारा ही किया धरा है। पर विवाद न बड़े इस कारण वे चुप रहै और राजू को बुलाने के लिए छत पर चले गए। वहाँ उन्होंने देखा दस वर्षीय नन्हा राजू छत के एक कौने में मायूस खड़ा था।
वह घर के पीछे की बस्ती में बच्चों को खेलते और पटाखे छोड़ते देख रहा था। शामराव बाबू ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा तुम्हें पटाखे छोड़ना है, तो तुम भी छोड़ो ना, कितने पटाखे लाकर रखे है, मैंने तुम्हारे लिए। पापा पटाखे छोड़ने की इच्छा नहीं हो रही है, अकेले-अकेले पटाखे छोड़ने में मजा नहीं आता।
उससे ज्यादा मजा तो इन सबकी खुशी देखकर आता है। शामराव बाबू को समझ में आ गया कि राजू का मन दीपक बुझा हुआ है, उन्होंने कहा- ‘ मैं तुम्हारे साथ पटाखे छोड़ूँगा! अब ठीक है?’ अब चलो तुम्हारी मॉं भोजन के लिए बुला रही है। वह बेमन से पापा के साथ भोजन करने के लिए नीचे आया। रोहिणी जी कुछ गुस्से में थी।
उन्होंने भोजन परोसा सबने भोजन के बाद वे बोली- ‘आशा पॉंच दिनो की छुट्टी पर गई है, त्यौहार का काम मुझसे अकेले नहीं होगा, आप दोनों को भी मेरी मदद करनी पड़ेगी।’ फिर एक लम्बी सॉंस लेकर बोली- ‘कितना मजा आता था बचपन में…काका काकी के बच्चे, और हम भाई बहिन मिलजुल कर काम करते, खाते पीते पटाखे छोड़ते….. ‘ फिर जैसे उसे कुछ याद आया वह बोली ‘अरे राजू! तूने तो इस बार एक भी पटाखा नहीं छोड़ा।
‘ राजू ने कहा-‘मॉं अकेले पटाखे छोड़ने की इच्छा ही नहीं हुई। माँ !पापा कहते हैं, कि मेरे ताऊजी गॉंव में रहते हैं और मेरे दो भाई और एक दीदी भी है, मॉं क्या इस बार दीपावली पर हम गॉंव चले?’ बालसुलभ प्रश्न था रौहिणी उसके चेहरे को एकटक देख रही थी, और शामराव बाबू रौहिणी के चेहरे के हाव भाव पड़ने की कोशिश कर रहै थे। बेटे के मासूम प्रश्न के आगे वह निरूत्तर थी। राजू की उदासी उसे भी खल रही थी ।
उस समय वह कुछ नहीं बोली, राजू भी टी.वी. पर बच्चों के शो देखने लगा। रात को रौहिणी शामराव जी से बोली- ‘आज इतने वर्षों के बाद अगर हम गॉंव जाऐंगे, तो भाई साहब और भाभी क्या सोचेंगे।’ मुझे अपने गजेंद्र भैया और भाभी पर पूरा विश्वास है,वे पुरानी सारी बातें भुलकर खुश हो जाऐंगे। वे तो कई बार फोन करके हमें बुलाते भी हैं,
मगर मैं ही टाल देता हूँ, क्योंकि तुम गाँव जाना पसन्द नहीं करती हो।’ ‘अपने राजू की खुशी के खातिर मैं चाहती हूँ कि इस बार हम गॉंव चलते हैं, मैं भाईसाहब और भाभी से माफी मांग लूंगी, वे बड़े है माफ कर देंगे। राजू की खुशी से बढ़कर कुछ नहीं है।’ शामराव जी ने कहा तुम तैयारी कर लो हम कल सुबह वाली बस से गॉंव चलेंगे। शामराव बाबू का मन अपने गजेंद्र भाई और भाभी से मिलने के लिए बल्लियों उछल रहा था। उन्हें नींद नहीं आ रही थी।
उन्हें अपने भैया के साथ बिताया बचपन याद आ रहा था। वे उम्र में अपने भैया से बारह साल छोटे थे।गजैन्द्र भैया के बाद दो बहिने थी और शामराव बाबू सबसे छोटे थे। वे दस साल के थे, तब माँ का देहांत हो गया था। गजैन्द्र भैया शादी बिलकुल साधारण तरीके से जल्दी में हुई। भाभी ने आने के बाद हम तीनों भाई बहिनों को मॉं की तरह प्यार दिया।
समय पर दोनों बहिनों की शादी हो गई। गजैन्द्र भैया के दो बेटे और एक बेटी थी।दोनों बेटे दिन भर काका -काका करते और शामराव भी उनके साथ प्रेम से खेलता। छुटकी एक साल की थी तब शामराव की शादी हुई। भाभी ने रौहिणी का बड़े प्रेम से गृहप्रवेश करवाया, वे तो उसे छोटी बहिन ही मानती थी, मगर रौहिणी उनके प्यार को समझ ही नहीं पाई। भाभी शामराव को अपना बेटा ही मानती थी,और गृहस्थी के जरूरी काम भी कह देती थी।
गजैन्द्र भैया दिन भर खेत पर रहते। शामराव की नौकरी गॉंव के पास एक शहर में थी वह रोज सुबह नौ बजे बस से निकलता और शाम को आठ बजे घर आता था। उस दिन रविवार था और भाभी ने शामराव को गेंहू पिसवाने के लिए कह दिया। इस बात पर रौहिणी ने बवाल मचा दिया कि एक दिन छुट्टी का मिलता है,
भाभी तो मेरे पति को नौकर समझती है। और भी बहुत उल्टा सीधा कहा। भाभी को बुरा लगा पर उन्होंने कुछ नहीं कहा। अब तो आए दिन रौहिणी कलह करने लगी। तंग आकर गजैन्द्र भैया ने कह दिया कि तुम शहर में चले जाओ। यह रोज- रोज का क्लेश ठीक नहीं। खेती बाड़ी सबमें तुम्हारा हिस्सा बरकरार रहेगी।
शामराव बाबू कुछ नहीं कह पाए भारी मन से शहर आ गए। उन्होंने प्रण कर लिया था कि जब तक रौहिणी स्वैच्छा से नहीं कहेगी वह गॉंव नहीं जाऐंगे। वे गाँव जाने के लिए काफी उत्साहित थे, सुबह उन्होंने राजू से कहा तो वह भी बहुत खुश हुआ। शामराव बाबू बहुत सारी मिठाई और पटाखे ले आए।
जब वे गॉंव पहुँचे तो भाईसाहब और भाभी की खुशियों का ठिकाना नहीं था, रौहिणी ने उनसे मॉफी मांगी तो भाभी ने उसे बाहों में भर लिया और कहा बस अब वादा करो हर दीपावली साथ में मनाओगे, अपनों के साथ के बिना कैसी दीपावली। बच्चों की खुशी कि ठिकाना नहीं था,सबके मन में खुशियों का दीप जल रहा था जिससे पूरे परिवार में खुशियों का उजाला फैल गया।
प्रेषक
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
# खुशियों का दीप