बेटा, हम तेरे परिवार का हिस्सा नहीं है। – अर्चना खंडेलवाल : Moral Stories in Hindi

सुधीर फोन नहीं उठा रहा है? मैंने सुबह से कितने फोन कर दिये, आज तो रविवार है, आज की आने की कहकर गया था, और अभी तक भी आया नहीं, भारती जी ने हांफते हुए कहा तो उमेश जी ने उनका हाथ पकड़ाकर बैठा दिया, ये दरवाजे पर बार-बार चक्कर लगाने से सुधीर नहीं आ जायेगा, उल्टा तुम्हारा बीपी बढ़ जायेगा, इधर बैठो , ये कहकर वो रसोई से पानी का गिलास लायें।

कांपते हाथों से दवाई खोलकर भारती जी के हाथों में रख दी, ये दवाई लो और कुछ खा लो, वरना चक्कर आ जायेंगे, वैसे ही डायबिटीज है, भूखे पेट रही तो वो भी बढ़ जायेगी, मै खुद बीमार हूं, फिर तुम्हें कैसे संभालूंगा?? और वो अचानक से कांपने लगे।

भारती जी फटाफट दवाई लेकर उठी और उमेश जी को दवाई निकालकर दी, आप भी दवाई लेना भुल गये,  आपके भी हार्ट और लीवर की दवाई चल रही है, ध्यान रखिए, हमें ही एक-दूसरे का ध्यान रखना होगा।

 अच्छा, आज खाने में क्या बनाऊं? खिचड़ी या दलिया खाओगे? उन्होंने अपने पति से पूछा।

ये बीमारों वाला खाना तुम ही खाओ, मुझे तो आलू प्याज के पकोड़े खाने है, साथ में तीखी हरे धनिए की चटनी, उमेश जी बोले।

लेकिन डॉक्टर ने तला हुआ खाने से मना किया है, रोग बढ़ जायेगा, हमें खाने-पीने में सावधानी रखनी है, तभी तो अच्छे से आगे तक जी पायेंगे, भारती जी ने समझाना चाहा।

किसके लिए जीना है? इन डॉक्टरों के चक्कर लगाने के लिए? इन्हें बीमारी तो समझ आती नहीं है, बस एक बार जाओ दस तरह के टेस्ट लिख देते हैं, दवाई कम-ज्यादा कर देते हैं, वैसे भी क्या करना है जीकर?

बच्चे तो अपने में मस्त और व्यस्त हो गये है, अपना जीवन जी रहे हैं, हमारी किसी को फ्रिक नहीं है, औपचारिकता वश फोन करके हाल-चाल ले लेते हैं, अब जीवन बचा ही कितना है? तुम तो पकोड़े ही बनाओं, मुझे तो वो ही खाने हैं, उमेश जी ने जिद पकड़ ली।

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तभी घंटी बजती है, सुधीर अंदर आता है, लेकिन मोबाइल में नजरें गड़ाए रखता है।

मम्मी, क्यों इतना फोन कर रही थी? नैना और बच्चों की नींद खराब हो गई, और मै आ ही रहा था, आज संडे है, अपने परिवार के साथ दो घड़ी चैन से नहीं बिता सकता क्या? आप फोन पर फोन किये जा रहे थी, बताओं क्या हो गया? कौनसा मुसीबतों का आसमां टूट पड़ा, सुधीर तेज आवाज में बोले जा रहा था।

वो बेटा, घर में बिजली नहीं आ रही है, रात भर हम सो नहीं पायें, सुबह पडौसी ने बताया बिजली के बिल के पैसे पहले भरने होते हैं, ये फ्लैट हमें तो समझ नहीं आ रहा है, यहां तो एक पैर रखो घर शुरू और दूसरे पैर में खत्म हो जाता है, इनका और मेरा यहां मन नहीं लग रहा है, यहां कोई बात भी नहीं करता है, सब व्यस्त रहते हैं, गांव में तो चार औरतें मिल जाती थी तो हाल-चाल पूछ लेती थी, हम तो यहां नहीं रह पायेंगे, हमें तो वापस गांव ही जाना है।

“फिर वो ही बात, कितनी बार समझाया है, मै बार-बार भागकर गांव आप दोनों को संभालने नहीं आऊंगा, मेरी भी नौकरी है, घर-परिवार है, बच्चे हैं, जिम्मेदारियां हैं, आपका क्या है? आप दोनों तो पेंशन आ रही है, मस्त रहते हो, ना नौकरी की चिंता, ना बच्चों के करियर की चिंता, फिर भी परेशान रहते हो, और मुझे परेशान करते रहते हो।’

“गांव से यहां फ्लैट में इसीलिए तो लेकर आया था ताकि मै आपकी देखभाल करता रहूंगा, पर आपको तो मेरी परेशानी समझनी नहीं है, सुधीर झल्लाकर बोला।

तभी उमेश जी बोले, तूने गांव का घर ये बोलकर छुड़ाया था, कि तू शहर में अपने घर में अपने साथ रखेगा, लेकिन तूने तो हमें यहां अलग फ्लैट में रहने को बोल दिया, क्योंकि नैना बहू हमारे साथ में रहना नहीं चाहती है, ये बात हमें पहले क्यों ना बताई, तूने हमारे साथ छल किया है, और अब गुस्सा करके क्या जताना चाह रहा है? यहां लाकर हमें छोड़ दिया, हमारा रोज नई-नई परेशानियों से सामना होता है, हमें ये शहरी रिवाज समझ में नहीं आते हैं।

और तू हमें क्या संभालता है? तू पन्द्रह दिन में आया है, केवल अपनी सूरत दिखाने, हमारी परेशानियां तो तुझे समझ में आती नहीं है। कभी आकर दो घड़ी बैठता भी है?

सुधीर चुप हो गया, आज उसके मम्मी- पापा उसे सच का आइना दिखा रहे थे,  तभी उमेश जी चुप हो गये, बेटा तू बार-बार कहता है, तेरा परिवार है, बाल बच्चे हैं, कभी हमारा भी परिवार हुआ करता था, दो प्यारे बच्चे हुआ करते थे।

तेरे पापा के घर आने का उन दोनों बच्चों को इंतजार रहता था, पापा के आते ही वो उनसे लिपट जाया करते थे, मै रसोई में सबकी पसंद के पकवान बनाया करती थी, हमारा भी खुशहाल प्यार से भरा परिवार हुआ करता था, लेकिन उस परिवार में मेरे सास-ससुर भी साथ रहते थे, वो अपने बहू-बेटे, पोतो के साथ रहते थे। सब उनकी दिल से सेवा करते थे, सब लोग साथ में रहते थे तो कोई परेशानी नहीं होती थी।

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मेरे बच्चे बड़े हुए और एक तो हमेशा के लिए विदेश चला गया, कभी आता ही नहीं है, और दूसरा बेटे ने  अपना परिवार बसा लिया है, तो हम उस परिवार का हिस्सा नहीं है, यही होता है, यही जीवन का सच है, जो माता-पिता बच्चों की परवरिश में खुद के सपनों, इच्छाओं का गला घोंट देते हैं, अपना तन-मन-धन बच्चों की परवरिश में लगा देते हैं, वो ही माता-पिता बेघर हो जाते हैं, बच्चों के परिवार का वो हिस्सा नहीं होते हैं। 

एक माता-पिता की हालत एक छतरी के समान हो जाती है, जब बच्चों को  अपनी परवरिश में जरूरत थी तो वो साथ थे, और जैसे ही बच्चों की जरूरतें खत्म हुई, वो अपने पैरों पर खड़े हो गये तो वो अपने ही माता-पिता से मुंह मोड़ लेते हैं, जिस तरह बारिश के बाद छतरी को सब कोने में रख देते हैं, वैसे ही माता-पिता को एक कोने में  रहने को छोड़ दिया जाता है।

ये जीवन का एक कड़वा सच है, आज इस सच से हमारा सामना हुआ है, कल को तेरा भी होगा, और यही जीवन चक्र चलता रहेगा।

तूने कितनी आसानी से बोल दिया कि आपके पास कोई जिम्मेदारी नहीं है, हम ये सब जिम्मेदारी निभा चुके हैं, तुम दोनों को अपने पैरों पर खड़ा कर दिया है, तुम्हारे घर बस गये है, बस हम ही अपने गांव से बेघर हो गये है, हमें तो वापस ही जाना है, तेरा शहर, तेरा घर, तेरा परिवार तुझे मुबारक हो।

“आप दोनों ने दुखी कर रखा है, इतनी मुश्किलों से सब किया और कह रहे हो यहां नहीं रहना, मै क्या सब काम छोड़कर आपके लिए ही लगा रहूंगा क्या?

सुधीर गुस्से से चिल्लाया।

तभी भारती जी कहती हैं, आवाज नीची कर, हम तेरा कमाया हुआ नहीं खाते हैं, अभी तो मेरे पति की पेंशन आ रही है, तूने एक रूपया भी खर्च किया हो तो बता, तेरा रौब तेरे ही पास रख, हम दोनों बीमार है, सहानुभूति नहीं जता सकता है, सेवा नहीं कर सकता है तो चिल्लाने और गुस्से होने का भी तुझे कोई हक नहीं है।

“फिर शहर तू अपनी सुविधा के लिए लाया है, ताकि तुझे बार-बार गांव नहीं आना पड़े, तेरा समय और पैसा बच जाएं, पर हम यहां खुश नहीं हैं, माता-पिता बच्चों की खुशी के लिए कुछ भी कर जाते हैं, लेकिन माता-पिता की खुशी बच्चों के लिए कोई मायने नहीं रखती है।”

इस बार सुधीर ठंडा पड़ जाता है, और पैर पटकते हुए घर से चला जाता है।

सप्ताह भर बाद भारती जी गांव से अपने पड़ौसी को बुला लेती है। जरूरी सामान लेकर दोनों वापस गांव लौट जाते हैं। 

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जाने से पहले वो सुधीर को फोन कर देते हैं, बेटा अब तुझे हमें संभालने की जरूरत नहीं है, तू अपना घर-परिवार संभाल लें, अब तुझे गांव आने की भी जरूरत नहीं है, हम हमारा जीवन जैसे- तैसे बीता ही लेंगे, वैसे भी हम तेरे परिवार का हिस्सा नहीं है, तू हमें अपने परिवार का हिस्सा नहीं मानता है, तो हमने भी तेरा त्याग कर दिया है, हमारी जायदाद में तेरा कोई हिस्सा नहीं होगा और तू हमें मुखाग्नि भी नहीं देगा, ये सुनकर सुधीर स्तब्ध रह जाता है, भारती जी और उमेश जी संतोषपूर्वक अपने गांव लौट जाते हैं।

धन्यवाद 

लेखिका 

अर्चना खंडेलवाल

मौलिक अप्रकाशित रचना

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