बेरोजगार (भाग-9) अंतिम भाग – रश्मि झा मिश्रा : Moral stories in hindi

शाम की ट्रेन से तरुण घर की तरफ निकल गया… घर पहुंचा तो अनुज की शादी हो चुकी थी… घर नए वर वधू के इंतजार में सज कर तैयार था… रात होते-होते प्रमिला बहू बनकर अनुज के घर आ गई…. स्वागत- सत्कार सभी रस्म रिवाज निपट गए…!

धीरे-धीरे सभी रिश्तेदार भी चले गए… अब घर में सिर्फ घर वाले ही रह गए थे… जिसमें एक नया सदस्य जुड़ गया था… प्रमिला को आए अभी सिर्फ चार दिन ही हुए थे… अनुज ने कहा कि उन्हें वापस कोलकाता जाना है…. छुट्टियां खत्म हो गई… मां कुछ ना कह सकी….!

सभी रस्मों रिवाजों के साथ… घर की नई सदस्य बनी प्रमिला… मेहमानों की तरह.. बिना घर के किसी सदस्य… किसी कोने को.. जाने पहचाने.. अपने घर से विदा हो गई…. अपने पति के साथ.. दोनों की छुट्टियां खत्म हो गई थी…!

घर में फिर से सिर्फ तरुण मां पापा के साथ रह गया… मां घर को धीरे-धीरे व्यवस्थित करने में जुट गई… पापा अपने काम में..  और तरुण अपने आने वाले परीक्षाओं की तैयारी में….!

एक दिन जानकी जी परेशान सी.. अनुज के कमरे में भरे पड़े.. नए सामानों.. उपहारों की रखरखाव में खुद पर ही झुंझला रही थीं…” वाह री शादी… क्या 2 दिन भी बहू को यहां नहीं छोड़ सकता था… मेरे घर में क्या सामानों की कमी थी… जो इतना सामान उठाकर धर दिया.. और दोनों निकल गए.. क्या करूंगी इनका मैं… यह नहीं कि यह भी उठा ले जाते…!” बोलते जानकी जी अलमारी के ऊपर गिफ्ट चढ़ा ही रही थी कि उनका पैर फिसल गया…

वह नीचे आ गिरीं… जोर की चीख की आवाज सुन बगल के कमरे से तरुण भागा भागा आया… मां को सहारा देकर उठाया… मां के पैर में मोच आ गई थी.. उसकी मरहम पट्टी कर… मां को आराम से लिटा दिया… मां से पूछ पूछ कर खाने का इंतजाम करने में लग गया…!

रसोई में खाने का जुगाड़ कर ही रहा था कि… सुदेश जी ऑफिस से घर आ गए… आते ही तरुण को रसोई में देख बौखला गए…” हां.. अच्छा.. तो ट्रेनिंग शुरू कर ली तुमने… दिन भर घर में पड़े पड़े… और कुछ नहीं तो कम से कम… खाना पीना बनाना तो सीख ही लेना चाहिए… !”

जानकी जी तड़प कर रह गईं… कुछ बोलतीं उससे पहले सुदेश जी की नजर उनके पैर पर पड़ी… बोले.. “बढ़िया है.. ऐसे ही उसे समझ में आएगा… कुछ ना कुछ बहाना बनाकर बैठी रहो… कम से कम खाना बनाना तो सीख लेगा… कल को खुद कुछ काम करेगा नहीं… तो जो काम करेगा… उसे तो बना कर खिलाएगा…!”

तरुण चुपचाप अपना काम करता रहा… जानकी जी झल्ला उठीं…” मेरे पैर में मोच आ गई है… लड़का इतना परेशान है सुबह से… और आप उल्टे उसी को सुना रहे हैं…!”

सुदेश जी थोड़ा नम्र होते हुए बोले…” देखूं ज्यादा तो नहीं लगी… कोई बात नहीं… एक मुफ्त का नौकर घर में है ही… मुझे क्या जरूरत है सोचने की… है ना तुम्हारा लाडला बेरोजगार… घर में….!”

पूरे हफ्ते भर… जब तक मां के पैरों से पट्टी खुली… तरुण ने मां की जमकर सेवा की….पापा के तानों से बेपरवाह होकर… पापा आते जाते उस पर व्यंग्यों की बौछार करते… वह चुपचाप मां की तीमारदारी में लगा रहता…. !

इतने दिनों में जाने कितनी ही बार मां की आंखें कभी प्यार… कभी आशीर्वाद… तो कभी ग्लानि के आंसुओं से भीगे होंगे….!

उन्हें सुदेश जी का यों बात-बात पर तरुण को ताने देना बिल्कुल नहीं सुहाता था…. पर हर इंसान की सोच एक जैसी नहीं होती…!

सुदेश जी का मानना था कि… इन्हीं तानों से तो तरुण अपनी जिम्मेदारियां के प्रति सजग होगा… कुछ ना कुछ असर पड़ेगा… तो यह सरकारी नौकरी का चक्कर छोड़…. कहीं कोई नौकरी तो पकड़ेगा….!

पर तरुण को तो जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था… पीसीएस में इंटरव्यू का काल आ गया… तरुण पास हो चुका था… पर अब खुशी के साथ एक बहुत भारीपन था… कहीं यह खुशी फिर खत्म ना हो जाए… घर में किसी ने भी इस बात पर खुशी जाहिर नहीं की…. सभी ने अपने-अपने तरीके से आगे की तैयारी करने की नसीहत जोर डाली…. तरुण भी जानता था हकीकत यही थी… सफलता जब तक पूरी तरह न मिल जाए.. उसे खुश होने का कोई अधिकार नहीं था…!

परिस्थितियां फिर वही की वही थी… पर तरुण ने अपना एक भी पेपर मिस नहीं किया… वह अपनी सारी परीक्षाएं समय पर देता रहा… और हर पेपर के साथ पुरजोर रूप से आता… पापा के तानों का स्वागत करता रहा….!

आखिर एक दिन तरुण की मेहनत और मां का इंतजार फलीभूत हुआ…. तरुण पास हो गया.. एक साथ तीन पेपर…. पीसीएस का फाइनल रिजल्ट भी आ गया था…. उसने वह भी क्लियर कर लिया… और शाम तक निकलने वाले तीसरे रिजल्ट में भी वह पास हो चुका था…. एक साथ तीन सफलताएं… तीनों अव्वल दर्जे की…. एक के बाद एक तीन रोजगार.. तरुण के हाथ में थे…!

आज तरुण दिल खोल कर रोया… मां के आंचल से मुंह ढककर… वह घंटों सुबकता रहा….!

सुदेश जी का सीना फक्र से चार गुना हो गया था… गली.. मोहल्ले.. फोन पर.. सबको बताते फिर रहे थे.. तरुण आईएएस बन गया…!

जानकी जी से बोले…” देखा मेरी कड़वी बातों ने कितना मीठा फल दिया… तुम्हें तो मेरी बातें हमेशा चुभती ही रहती थी…!”

तरुण और जानकी जी एक दूसरे की तरफ देखकर… आंखों ही आंखों में असीमित खुशी से भर गए…. अब तरुण बेरोजगार नहीं था……!

रश्मि झा मिश्रा

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