Moral stories in hindi: जुगल किशोर बस ऐसे ही दुनिया से चले गये।जीवन संघर्ष का परिणाम देखने से पहले ही।आज के समय मे 49-50वर्ष भी कोई उम्र होती है,पर ईश्वर इच्छा के आगे किसका वश चलता है।
कल दिन में जरूर अपने बड़े बेटे मोहन से दुकान पर बैठे बैठे बोल रहे थे,मोहन आज तबियत कुछ ठीक नही लग रही,मन भारी भारी लग रहा है।मोहन ने कहा पापा आप घर जाओ आराम करो,यहां दुकान पर मैं हूँ ना,सब संभाल लूँगा।अरे कुछ नही ऐसे जरा सी तबियत में घर क्या जाना?फिर वही कौन बैठा है,तेरी माँ ही सब को छोड़ कर चली गयी।
फिर भी मोहन ने अपने पिता को दुकान में ही जगह बना लिटा कर कहा पापा मैं पास से डॉक्टर साहब को बुला लाता हूँ।नही रे,सब ठीक हो जायेगा। शाम को थोड़ा जल्द ही दुकान बंद कर मोहन अपने पिता जुगल किशोर को घर ले आया। दोनो बाप बेटे एक ही पलंग पर सोते थे।दो छोटे भाई बराबर के कमरे में पढ़ाई भी करते और वही सोते भी थे।
घर भी बस दो ही कमरो का था। जुगल किशोर की पत्नी यानि मोहन की माँ का स्वर्गवास हुए 8 वर्ष हो चुके थे।जुगल किशोर जी ने अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद दूसरी शादी नही की,जबकि तीनो बेटे छोटी उम्र के ही थे। मोहन तब 13 वर्ष का तो सोहन 10 वर्ष और रोहन मात्र 8 वर्ष का था।मित्रो ने- रिश्तेदारों ने खूब समझाया कि घर मे महिला नही होगी तो बच्चे कैसे पलेंगे?
कोई कहता किसी विधवा से या फिर अपनी ही उम्र की किसी महिला से शादी कर लो।पर जुगल किशोर जी सबको बड़ी ही नम्रता से मना कर देते कि मुझे शादी नही करनी,बच्चे मेरे है तो मैं सब पाल लूंगा।कोई अधिक आग्रह से कहता तो जुगल किशोर जी स्पष्ट कह देते कि भई मैं अपने बच्चों के भविष्य का रिष्क नही ले सकता, तुम्ही बताओ सौतेली मां ने बच्चो को स्वीकार नही किया तो मेरे बच्चों का क्या होगा?इस बात पर सामने वाला निरुत्तर हो जाता।जुगल किशोर जी के प्रश्न पर भला कौन गारंटी ले सकता था।
जुगल किशोर जी की एक सामान्य सी परचून की दुकान थी,जिससे उन चारों प्राणियो का वहन हो जाता।पत्नी के बाद जुगल किशोर जी सुबह जल्दी उठकर बच्चो के स्कूल जाने की तैयारी करने लगते।बच्चे इतने छोटे नही थे सो अपने आप तैयार हो जाते ,उनका नाश्ता, और लंच बॉक्स जुगल किशोर जी तैयार कर देते।
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बच्चो के स्कूल जाने के बाद वो दोपहर का खाना बनाकर पड़ोस में घर की चाबी देकर दुकान चले जाते। बच्चो की पढ़ाई का ध्यान रखना, उनके स्कूल में संपर्क रखना,हारी बीमारी में बच्चों की तिमारदारी करना, ये ही जुगल किशोर जी के कार्य रह गये थे।रात्रि में थके हारे जुगल किशोर जी को पलंग पर लेट कर ये संतोष होता कि वो बच्चो की परवरिश में उन्हें उनकी माँ की कमी महसूस नही होने दे रहे।दूसरे ही क्षण मोहन की माँ की याद आते ही आँखों के कोर से आंसूओ की बूंदे टपक पड़ती।
मोहन ने अपने आप ग्रेजुएट होते ही पढ़ाई छोड़ अपने पिता के साथ दुकान में हाथ बटाने लगा।जुगल किशोर जी ने उसे आगे की पढ़ाई को खूब समझाया पर मोहन ने कहता पापा क्या पूरी जिंदगी हमे ऐसे ही ढोते रहोगे?पापा, हम दोनो मिलकर राजू और मोनू के भविष्य का निर्माण करेंगे।कितना बड़ा हो गया था मोहन,कितनी बड़ी बात कह गया था,जुगल किशोर जी ने अचकचा कर मोहन को अपने सीने से चिपटा लिया।दोनो बाप बेटे अब मिलकर वो सब कार्य करते जो अब तक अकेले जुगल किशोर जी करते आ रहे थे।
उस दिन दुकान पर तबियत हल्की सी खराब क्या हुई,कि सुबह मोहन को अपने बराबर में ही जुगलकिशोर जी शांत भाव से लेटे निर्जीव अवस्था मे ही मिले।तीन भाई एक दम अनाथ हो गये थे।
जुगलकिशोर जी ने पूरे आठ वर्ष जिस प्रकार अपने बच्चो को समर्पित किये थे,वो सब मोहन के समक्ष था।अब वह पूरी जिम्मेदारी मोहन ने अपने ऊपर ले ली थी।मोहन का अब एक ही लक्ष्य रह गया था कि छोटे भाइयो का भविष्य निर्माण करना।मोहन ने निश्चय कर लिया था कि वो शादी भी तब तक नही करेगा,जब तक उसके भाई स्थापित न हो जाये।
आखिर उसके पापा का सपना उसे पूरा करना था।मोहन ने अपने को दोनो भाइयो की परवरिश में पूरा झोंक दिया था।अपना जीवन भी कुछ होता है, यह भी मोहन भूल चुका था।कॉलेज के समय जीवन मे आयी श्वेता से भी उसने किनारा कर लिया था।
आज का दिन मोहन के लिये शायद सबसे अधिक खुशी वाला था।उसके भाई राजू ने इंजिनीरिंग पास कर ली थी और उसे एक बड़ी कंपनी से ऑफर लेटर भी मिल गया था।राजू इस खुशखबरी को भाई मोहन को देते देते अपने भाई के पैरो में गिर गया, भैय्या बस अब अब आपको रुकना होगा,कुछ मुझे भी करने को छोड़ना होगा।
भैय्या ये कैसा मोह था,कैसा समर्पण था जो आप आप अपने को भी भूल गये।मोनू की अब आप चिंता नही करेंगे ।भैय्या अब तक आपने हमारे लिये जहां इतना कुछ किया है,बस एक काम और कर दीजिए, भैय्या, बस एक काम।
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भैय्या हमें श्वेता भाभी दे दो।अवाक सा मोहन राजू को देखता ही रह गया।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक,अप्रकाशित।
#समर्पण