बागी बनना इतना भी आसान नहीं होता….हर कदम आपको लड़ना होता है ना केवल सामने वाले से बल्कि अपने आप से भी क्योंकि इस लड़ाई में आपके शत्रु आपके अपने ही होते हैं,जिनसे आप नहीं लड़ना चाहते,कई बार तो अपना अंतर्मन भी धिक्कार उठता है कि ये क्या कर रहे हैं हम?…पर अगर आपको अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जीना है,अपनी स्वतंत्रता प्यारी है तो ये युद्ध आपको करना ही होगा…—स्टेज पर बोल रही पचपन साल की लता देवी को पूरा हाॅल शांत होकर सुन रहा था। तू पहले भी इन्हें सुन चुकी है क्या?? मुझे तो इनकी उम्र और बातें सुनकर इनके बारे में जानने की इच्छा हो आई —स्पीच खत्म होने के बाद बाहर निकली दिव्या ने अपनी सहेली निशा से पूछा जो उसे यहां लेकर आई थी। अरे कई बार सुन चुकी हूं यार… इसलिए तो तुझे भी लेकर आई…ये भी आम महिला ही है मेरी और तुम्हारी तरह थी इनकी भी कहानी…पर जब इन्हें एहसास हुआ कि इस तरह जीकर ये अपने जीवन के साथ अन्याय कर रही है तो इन्होंने कई कदम उठाए और आज देखो इतनी अच्छी मोटिवेशनल स्पीकर है… मुझे भी जाननी है इनकी कहानी… निशा इन्होंने अपनी कहानी लिखी थी वो मेरे सोशल मीडिया अकाउंट में है तुझे फारवर्ड करती हूं पढ़ लेना और सीख भी लेना उससे–कहकर निशा ने अपना फोन निकाला और वो कहानी दिव्या को फारवर्ड कर दी। रास्ते में ही दिव्या अपने आपको रोक नहीं पाई और फोन में वो कहानी निकाल कर बैठ गई… सुना था…
मेरे जन्म पर मेरी दादी फूट फूटकर रोई थी क्योंकि उनके बेटे पर चौथी बेटी का बोझ आ पड़ा था…खैर और तीनों बहनों की तरह मेरा भी जीवन दादी के इशारों पर ही चलने लगा…पिता जैसा वो कहती करते जाते और मां को तो कुछ कहने करने का अधिकार ही नहीं था…।क्या खाना है,क्या पहनना है,कैसे उठना है कैसे बैठना है सब दादी के अनुसार होता। पर मेरे अंदर कुछ तो था जो मुझे बचपन से ही उकसाता रहता था…और बागी बनने की पहली कोशिश वहीं से की थी मैंने जब सारी बहनों की तरह हिंदी पढ़ने-लिखने,मामूली जोड़ घटाव सिखाकर पढ़ाई बंद करवाने का दादी का निर्णय आया। मैं तो पढूंगी बाबूजी.. मुझे शिक्षक बनना है –दादी के सामने ही कहा था पिता से मैंने। बिना पढ़े तो कैंची सी जबान चलती है पढ गई तो क्या करेगी??–दादी ने तंज कसा। पढ़ाई लिखाई लोगों को कैंची चलाना नहीं जोड़ना सिखाती हैं सुई की तरह दादी…–कहने से चूकती नहीं थी वो। जाहिर सी बात है मातृभक्त पिता ने वही किया जो दादी ने कहा..
.पर मैं भी जिद पर ही थी…भाई की किताबों से पढ़ती…भले मैट्रिक तो ना कर पाई पर मैट्रिक तक का ज्ञान हासिल कर लिया था छुपछुपकर मैंने। फिर शादी हुई..अंदर का बागी मन फिर सुगबुगाया..पति से इच्छा जाहिर की । सुनिए ना मुझे मैट्रिक की परीक्षा दिलवा दीजिए ना… पति भी पिता से अलग नहीं थे..अपनी माता से विमर्श किया और वहीं हुआ जो मायके में हुआ था– चिट्ठी पत्री लिखने और जोड़ने घटाने तो आता है ना…आगे क्या करना पढ़कर डिग्री लेकर?? हमें कौन सी नौकरी करवानी है। ससुराल आकर जीवन में पति और घर की जिम्मेदारी तो बढ़ गई पर जीवन के ढंग में कोई सुधार नहीं हुआ… वहां की महारानी दादी थी और यहां की सासु मां…। फिर तो कहां पढ़ाई लिखाई कहां शिक्षक बनने का सपना कहां स्वतंत्रता की लड़ाई…चौका,बर्तन,रसोई,बच्चे और ससुराल के लोग…समय ही नहीं था..। बेटी जब दसवीं की परीक्षा दे रही थी तो इकत्तीस की थी मैं..पर जज्बा तब भी सोलह वाला ही था तभी तो बोल पड़ी थी— सुना है,लोग उम्र कम लिखवाकर दसवीं की परीक्षा दे सकते हैं…मेरा भी बड़ा मन था कि बाप,बेटी और बेटा तीनों पेट पकड़ कर ऐसे हंसे मानों कितना बेहतरीन चुटकुला सुनाया हो मैंने…जब मुझे कोई दिक्कत नहीं थी कि लोग क्या कहेंगे जाने उनको क्या परेशानी थी। खैर…समय बीता..बेटे की शादी हुई और बहू आ गई और मैं नहीं चाहती थी कि इतिहास की पुनरावृत्ति हो इसलिए उसे मैं भरपूर स्वतंत्रता देने का निर्णय कर चुकी थी। पर ये क्या?? मेरा ही जीवन अब उसके अनुसार चलने लगा था…पहले दादी…फिर सास और अब बहू…आखिर क्यों?? अक्सर हमारे मन में धारणा होती है कि पुरूष हमारी प्रगति में बाधक होते हैं…पर मैंने तो महसूस किया कि स्त्री का जीवन तो स्त्री के ही अधीन होता है… पिता,पति और पुत्र तो बस वही करते रहे जैसा उन्हें निर्देश मिलता रहा…अपने आलाकमान से…।
पर इस बार मेरे बागी मन के जोश ने झुकना स्वीकार नहीं किया… क्योंकि अब मुझे एहसास हो गया था कि अब झुकी तो सिर्फ अफसोस लेकर जाऊंगी साथ कि अपने जीवन औरों के इशारों पर बीता दिया और छोटा सा अरमान भी पूरा नहीं कर पाई…। मम्मीजी… मैं शाॅपिंग के लिए जा रही हूं..आप चुन्नू स्कूल से आए तो खाना खिला दीजिएगा और बाईं आए तो काम करवा लीजिएगा–बहू ने और दिनों की तरह ही कहा था पर उसे उम्मीद नहीं थी कि जवाब क्या मिलेगा– बहू…मैंने महिला नवचेतना समिति ज्वाइन कर लिया है…उसकी बैठक है आज मुझे जाना जरूरी है। मंदिर और जागरण के अलावा ये कौन सा नया शौक पाल लिया आपने? आपको पता है मेरी फ्रेंड्स मेरा इंतजार कर रही होंगी…एक काम कीजिए आज आप छोड़ दीजिए कभी और चली जाना..। बहू…शाॅपिंग जाना इतना ही जरूरी है तो चुन्नू के आने और बाईं के जाने के बाद जाना…मेरा आज पहला दिन है और मेरा जाना जरूरी है आपने इनसे बात की??
मैं फोन करती हूं इन्हें..आपको हमदोनों से पूछना चाहिए था ना!! वो मेरा बच्चा है… मैं इतनी समझदार हो चुकी हूं कि अपने अच्छे बुरे का फैसला ले सकूं…और बहू.. मैंने कभी तुम्हारी सास बनने की कोशिश नहीं की…तुम भी मेरी सास बनने की कोशिश मत करो—पता नहीं कहां से इतना आत्मविश्वास और ढृढ़ता आ गई थी स्वर में भी और मन में भी…। और फिर तो जीवन ने रफ्तार पकड़ ली….और ऊपर नीचे,चढ़ते उतरते एक अनपढ़ स्त्री का सफर एक मोटिवेशनल स्पीकर की मंजिल पर आकर रूका….। मैं सबको यही कहना चाहती हूं….आज मैं यही सोचती हूं क्या सच में मेरे आगे बढ़ने में बाधक मेरी दादी,सास और बहू थे?? तो लगता है नहीं… ये तो मेरा ही मन था जो दबता गया और हारता गया…जब तक हम खुद अपने आपको मजबूत नहीं बनाएंगे अगला हमें हराता ही रहेगा…तो अगर आप सच में कुछ करना चाहती है तो दूसरों के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना बंद करें…इसने नहीं करने दिया,इसने नहीं बढ़ने दिया…
तुमने खुद को नहीं बढ़ने दिया.. क्योंकि दूसरों की इच्छा को समर्पित हो जाना यानि तुम्हारा हार जाना..। तो आगे बढ़ो और पहले खुद से जीतो…. स्वाभिमान हासिल करो…जो हर कदम पर तुम्हारा साथ दे। मैडम …मैडम–ऑटोवाला कहे जा रहा था। अं..हां..हां भैया…ये लो आपके पैसे–दिव्या जैसे होश में आई। घर जाकर कह दूंगी मैं भी, बहुत अच्छा लड़का मिल रहा है तो क्या?? वो जबतक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती शादी नहीं करेंगी… कोई जबरदस्ती थोड़े ही हैं कि कोई उसे बांधकर मंडप पर बिठा देगा,पहले कैरियर फिर शादी—दिव्या घर की तरफ बढ़ रही थी और उसका मन भी…अपनी मंजिल की तरफ.. स्वाभिमान का इतना अच्छा पाठ जो मिल चुका था आज उसे।
मीनू झा
#स्वाभिमान