सुबह से ही हॉस्टल के दो चक्कर लगा चुका था वह,पर कमरे के दरवाजे पर लगा ताला मानो उसे मुँह चिढ़ा रहा था। चौकीदार से भी वह दो तीन बार पूछ चुका था। आखिर में कहाँ गई ज्योति? रह रह कर सूरज के मन में एक ही बात आ रही थी।कल शाम तक तो उसने ऐसा कुछ भी नहीं कहा और आज सुबह किसी को बिना कुछ बताए, यहाँ तक कि अपने सूरज को भी बिना बताए चली गई।अजीब उलझन में फँस गया था वह। तभी उधर से तृप्ति आती हुई दिखाई दी –ज्योति की खास सहेली। उसे मानों अँधेरे में रोशनी की किरण नजर आई,वह दौड़कर उसके पास जा पहुँचा और ज्योति के विषय में पूछने लगा। पर उससे भी उसे कोई जानकारी न मिली। शाम तक तो ऐसा लगने लगा जैसे वह कई दिनों से बीमार हो।
अगले हफ्ते से इंजीनियरिंग की अंतिम वर्ष की परीक्षाएं भी शुरू होने वाली थी।उसने अपने मन को तसल्ली दी–हो सकता है, परीक्षा के समय आ जाए। पर यह क्या, परीक्षाएं समाप्त हो गई,लोग एक दूसरे से जुदा होने लगे,पर ज्योति का कुछ पता नहीं चला।
उसे याद आने लगा वह दिन ,जब वह पहली बार ज्योति से पुस्तकालय में मिला था। आलमारी से किताब निकालते समय ज्योति का हाथ सूरज के हाथ से स्पर्श कर गया था। कितना रोमांचित हो उठा था वह। दिल के सभी तार एक साथ ही झंकृत कर उठे थे। इसी बेख्याली में ज्योति की नीचे गिरी किताबें उठा कर देते वक्त आँखें तक ऊपर नहीं उठा सका था वह।पर ज्योति का कहा गया ‘थैंक्यू’ उसके मन में कहीं भीतर तक घर कर गया था। उसके बाद तो मुलाकातों का सिलसिला चल निकला। पर झूठी कसमें न तो वे खा पाए और न ही साथ रहने का वादा कर पाए। सूरज सोच रहा था….काश! मैं उसे पहले ही अपना बना लिया होता। मेरे दिल की मल्लिका, पता नहीं कहाँ चली गई मुझे छोड़कर। उसे ज्योति का पता भी तो मालूम नहीं था। खीज उठा वह अपनी बेबसी पर।
हारकर वह भी घर जाने के लिए तैयार हो उठा। सुबह की बस से वह अपने गाँव जाने के लिए रवाना हुआ। गाँव में बस माँ और बड़े भैया थे उसके। पिता तो न जाने कब उन्हें अकेला छोड़ कर चले गए। भैया ने ही पाला था उसे और इसी कारण अब तक शादी भी नहीं की थी। घर पहुँचने के साथ ही माँ से सामना हुआ। इतने दिनों बाद माँ उसे देख कर खुशी से पागल हो उठी और बाँहों में भरकर बोली–सूरज बेटा, मैं तो न जाने कब से तेरा इंतजार कर रही थी। अब तो तू आ गया है, कुछ दिन आराम से बैठ। कितना दुबला हो गया है तू। तभी भैया उसे आते हुए दिखाई दिए। वह तुरंत उनके पास पहुँचा और पैर छूने लगा। भैया हँसते हुए कहने लगे – सूरज! अब तो तुम्हारी परीक्षा समाप्त हो गई है,अब तो मैं धूमधाम से अपनी शादी कर सकता हूँ। हँसते हँसते आँसू छलक आए थे सूरज के। कितने प्यार से पाला है मुझे। तभी भैया ने उसके आँसू देख लिए और कहा–अरे पगले! तू तो अभी भी बचपन की तरह आँसू बहाते रहता है।
तभी नौकर ने चाय नाश्ता मेज पर रख दिया।वह हाथ मुँह धोकर नाश्ते की मेज पर बैठा ही था कि डाकिए की आवाज आई…अरे बबुआ!चिट्ठी आई है। चिट्ठी भैया के नाम से थी। उसने चिट्ठी मेज पर रख दी और नाश्ता करने लगा।
आज पूरा घर उसे काट खाने को दौड़ रहा था। सच ही कहा गया है…प्यार में बड़ी शक्ति है। जिस घर में वह पला बढ़ा, ज्योति के बिना सब निरर्थक लग रहा था। तभी माँ आकर चिट्ठी पढ़ी और बोली…अरे सूरज, देख तो, भैया की शादी के लिए लिए जिस लड़की को हमने पसंद किया था,उनके घरवाले परसों ही शादी की मुहूर्त निकलवाने आ रहे हैं। यह सुनकर खुशी से खिल उठा वह–चलो,अब एक हमउम्र भाभी आ जायेगी घर में, जिसमें वह ज्योति की छवि देख सकेगा। कितने दिनों से उसे उत्साह था उसे भैया की शादी का। पूरे घर में रौनक आ जायेगी। वह दौड़कर यह खुशखबरी भैया को सुनाने के लिए गया। माँ भी घर को सँवारने में लग गई।
तीसरे दिन ही लड़की वाले आ गए और अगले महीने की पंद्रह तारीख को विवाह की तिथि निश्चित कर चले गए। सूरज के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। अपने हर गम को भुलाकर वह भैया की खुशी में शरीक हो चुका था। पर एकांत में ज्योति की याद उसके दिल में टीस बनकर उमड़ आती थी।
इधर कुछ दिनों से पता नहीं क्यों उसे अपना स्वास्थ्य गिरता हुआ प्रतीत होने लगा। दस तारीख आते आते उसने खाट पकड़ ली। सारे घर में शोक व्याप्त हो गया। भैया अपनी शादी भी रूकवा देना चाह रहे थे,पर उसने ज़िद करके उन्हें तारीख न बदलवाने के लिए राजी कर लिया। भैया भी दिल पर पत्थर रखकर उसकी बात मान गए। यही तो है भाईयों का प्यार। सूरज उनकी शादी में सम्मिलित न हो सका। कैसा दुर्भाग्य था उसका। शादी से लौटते ही भैया भागते हुए उसके कमरे में आए और बोले–सूरज, मेरे भाई! तेरे ज़िद के कारण मैंने शादी कर ली, चल मिल ले तू अपनी भाभी से और वह सूरज का हाथ पकड़ कर लाने लगे। सूरज ने चादर ओढ़ ली और भैया के साथ चल पड़ा। भाभी खिड़की की तरफ मुँह करके खड़ी थी। भैया उसे बोले–देखो कौन है, तुम्हारा चहेता है ये। इससे बातें करो,तब तक मैं अतिथियों को देख कर आता हूँ। भैया के इतना कहते ही सूरज बोला–भाभी, और भाभी सूरज की ओर पलटी। पर यह क्या! वह तो उसे देख कर सन्न रह गया। यह तो उसकी अपनी ज्योति थी,जिसे उसने अपने दिल में बसा कर रखा हुआ था। कैसा मजाक किया था कुदरत ने उसके साथ। वह थके कदमों से उसके पास जा पहुँचा और धीमे से बोला— यह क्या हो गया ज्योति। मैं तो तुम्हें अपने घर की रानी बनाना चाहता था,तुम आई भी तो किस रूप में। इतना कहकर उसके हाथ–पैर ढीले पड़ने लगे, आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। वह धीमे से बुदबुदाया— ज्योति!यह कैसा सिला दिया है भगवान ने मुझे तुमसे प्यार करने का।
यह देख कर ज्योति चिल्ला उठी–नहीं, सूरज नहीं। तुम इतनी जल्दी कहीं नहीं जाओगे। मैं तुम्हारे जीवन का सूर्य नहीं अस्त होने दूँगी। पर वह क्या जानती थी कि पक्षी अपना बसेरा बसाने से पहले ही उड़ चुका था।
वीणा
झुमरी तिलैया
झारखंड