बरसात की वो रात – पुष्पा पाण्डेय

मंदिर में रात बीताने को मजबूर मास्टर  दम्पति को  नींद नहीं आ रही थी। तूफानी बरसात, कड़कते बादल और चमकती दामिनी ने उन्हें गाँव जाने से रोक दिया था। एक मित्र की पत्नी का देहान्त हो गया था। उसी के दुख में शामिल होने गये थे। आना तो कल सुबह चाहते थे, लेकिन किसी ने ठहरने के लिए कहा ही नहीं।

मंदिर में प्रसाद मिला उसी को ग्रहण कर बरामदे में जमीन पर चादर बिछाकर लेट गये। पुजारी लोग भी अपने- अपने घर चले गये। चारों तरफ निःशब्द खामोशी छाई हुई थी। सुनाई दे रही थी तो केवल बादलों की गड़गड़ाहट। चपला की चमक से तो दिल ही दहल जाता था।

काफी रात बीत चुकी थी, लेकिन किसी को नींद नहीं आ रही थी। तभी भींगती हुई बदहाल सी  एक बारह-चौदह साल की  लड़की किसी से छुपने की गरज से दौड़ते हुए मंदिर के परिसर में दाखिल हुई। इन्हें देखते ही बिलख कर रोने लगी।


“अरे, कौन हो तुम?इतनी रात गये….”

” मुझे बचा लिजिए। ये लोग मेरे पीछे पड़े हैं।”

“तुम इतनी रात घर से क्यों निकली?”

मैं उस अनाथाश्रम में नहीं रहना चाहती।वहाँ लोग गंदे काम करवाते हैं।”

“तुम्हारा घर?”

“मैं बचपन से वहीं रहती हूँ पर अब नहीं रहूँगी।”

मास्टर जी को सारे मामले समझ में आ गये।उस समय तो वहीं मंदिर में ही ठहरे को कह दिए।

फिर अपनी पत्नी से बाते करने लगे-

“क्या तुम्हें इसमें अपनी नैना नजर नहीं आती।” 

नैना उनकी बेटी थी जो अब नहीं रही।

दोनों पति-पत्नी एक दूसरे को देखते रहे। देखते-देखते पति-पत्नी दोनों अतीत के गलियारे में विचरण करने लगे———


मास्टर जी की शादी तभी हो गयी थी जब वो स्नातक पास ही किए थे। शादी के बाद उन्हें गाँव के सरकारी स्कूल में नौकरी मिली थी। चार साल बाद एक प्यारी सी बिटिया हुई थी।बड़े प्यार से उसकी दादी ने उसका नाम रखा था नैना। सचमुच वो सबकी आँखों में बसती थी।

घर-आँगन को गुलजार करती हुई नैना ग्यारह साल की हो गयी। छठ्ठी कक्षा में पढ़ती थी। एक दिन स्कूल से लौटी ही नहीं। जोरों की बारिश हो रही थी। घर में लोग यही समझ रहे थे कि बारिश कम होने पर आ जायेगी।जब नहीं आई तो स्कूल से पता लगाया गया तो पता चला कि वो तो दोपहर के बाद ही यह कहकर स्कूल से चली गयी थी

कि अम्मा की तबियत खराब है। खोज शुरू हुई पुलिस से भी मदद ली गयी, लेकिन दूसरे दिन उसकी लाश पड़ोस के गाँव के तलाब में तैरती हुई मिली। 

घर में हाहाकार मच गया, लेकिन नैना तो बहुत दूर जा चुकी थी। अपने, बेगाने जितनी मुह उतनी बातें। लोग अनहोनी का ही अंदाजा लगा रहे थे। पुलिस पड़ताल करती रही और आज- तक कर ही रही है या यों कहिए कि करना नहीं चाहती। मास्टर साहब की बेटी तो चली थी अब  पुलिस के पीछे पड़ने की ताकत उनमें नहीं थी।

दादाजी को ये अनहोनी अन्दर ही अन्दर घून की भाँति खोखला करती गयी और वो भी इस दुनिया से चल बसे। कहते हैं न कि वक्त सबसे बड़ा मरहम होता है। 

आज इतने दिनों बाद मास्टर साहब को अपनी नैना याद आ गयी, जैसे वह कह रही हो कि बाबा इसे तो बचा लो।

अचानक पत्नी की हिचकियों ने उनका ध्यान बटाँया।

“अरे पगली, अब क्यों रो रही हो। अब तो तुम्हारी नैना तुम्हारे सामने खड़ी है।”


दोनों एक- दूसरे का हाथ थामें रोये जा रहे थे और वह लड़की वहीं पास बैठी उन्हें विस्मित हो देख रही थी।

#बरसात

स्वरचित और मौलिक रचना

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

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