बारिश का इश्क (अंतिम भाग – 11 ) – आरती झा आद्या: Moral stories in hindi

मैं कॉलेज के कामों में व्यस्त होने लगी, घर पर भी मेरा दिन कामों में उलझा बीतता। कान में बिन बजे ही फोन की घंटी की आवाज ही सुनाई देने लगी थी और इस तरह से एक सप्ताह बीतने को आया था। इस दौरान मुझे संगीता के लिए अजीब सी झुंझलाहट महसूस होने लगी। उनके व्यक्तित्व में बदलाव का एहसास होने लगा जैसे कुछ अलग हो रहा हो। मेरे मन में गुस्से भी चिंगारी उठने लगी थी, जैसे कि वो मेरी सहेली नहीं, कोई और ही है, जिसे मैं नहीं जानती। इस अस्थिरता और संदेह के बीच मेरा मन अब उस अज्ञात भविष्य के प्रति चिंतित हो उठा था।

इस एक सप्ताह में पापा ने मेरे विवाह के लिए दो लड़के देख भी लिये। उन्हें दोनों में से कोई पसंद नहीं आया, इसके लिए मैंने भगवान का शुक्रिया अदा किया। क्योंकि मुझे यह सोचकर शांति मिली कि शादी की चुनौती मेरे लिए अभी नहीं आई है। इस असफलता ने विवाह के निर्णय पर मेरे विचारों को और भी स्पष्ट करने का मौका दिया। 

मैं संगीता को कॉल कर परेशान नहीं करना चाहती थी। मुझे लगा कि यदि उसे कुछ पता चलेगा, तो वह खुद ही मुझसे संपर्क करेगी। यह सोचते हुए भी मेरे हाथ फोन तक पहुंच ही जाते थे और मैं यह सोच कर कि शायद यह ठीक नहीं होगा। इसलिए, मैं अपने हाथ अक्सर वापस खींच लेती थी। यह निर्णय लेने में मुझे कुछ समय लगा था क्योंकि मेरे मन का एक हिस्सा मुझसे कह रहा था कि मुझे उसे परेशान नहीं करना चाहिए, लेकिन दूसरी ओर, मैं उससे बात करने की इच्छा भी रखती थी।

पंद्रह दिन बीत गए और कुछ नहीं हुआ। मैंने यह सोचने की कोशिश भी नहीं करना चाहती थी कि संगीता मेरी बात भूल गई होगी। धीरे-धीरे मुझे बेसब्री का अनुभव होने लगा। बेसिरपैर के ख्यालों ने मेरे मन को अधिक परेशान करना शुरू किया। एक दिन, सुबह कॉलेज जाने से पहले, मैंने संगीता को कॉल किया। भाग्य से, संगीता ने मेरा कॉल स्वीकार किया। उस समय वह भी ऑफिस के लिए निकल रही थी। मेरे मन में अनगिनत सवाल और उम्मीदें थीं, जिनका जवाब मुझे संगीता से सुनने की आशा थी। मैं हमारी बातचीत में एक नई रोशनी की किरण महसूस करना चाह रही थी और मुझे आशा थी कि यह किरण हमारे भविष्य की दिशा में एक प्रकाश बनेगी। लेकिन वो आशा की किरण थोड़ी देर में ही बुझती प्रतीत हुई।

“कैसी है तू… तू ठीक है ना.. चिंता हो रही थी यार।” मैंने बिना हाय हेलो के बात शुरू की थी।

“सब ठीक है, थोड़ी व्यस्त हूॅं, इसीलिए कॉल नहीं कर रही थी। शाम में आकर बात करती हूँ”, कहकर संगीता ने कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया।

मैं भी कॉलेज निकल गई। जैसा कि हमेशा होता था, वहाँ पहुंचकर मैं सब कुछ भूल जाती थी। विभिन्न शैक्षिक और सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने के मध्य मेरा ध्यान अक्सर विचारों में गुम हो जाता था। कॉलेज के माहौल में, मेरा ध्यान विभिन्न अनुभवों की ओर आकृष्ट हो जाता था और यही कारण था कि मैं बाहर की सम्पूर्ण बातें भूल जाया करती थी।

घर आने के बाद, मैं संगीता की कॉल की प्रतीक्षा करने लगी। शाम हो गई, फिर रात हो गई और मैं संगीता के कॉल का इंतजार करती रही। दिन पर दिन अतीत होते गए और फिर रविवार आ गया, लेकिन संगीता ने कॉल नहीं किया। इस समय बेचैनी में मेरे मन में अनेक सवाल और संदेह उठने लगे। मैं खुद को असहाय सा महसूस कर रही थी। संगीता के कॉल का इंतजार करते-करते मेरे मन में अनेक सवालों के उत्तर आते और चले जाते। मेरी असहिष्णुता इतनी बढ़ गई थी कि ना चाहते हुए भी एक अविश्वास सिर उठाने लगा था।

रविवार की सुबह संगीता की कॉल नहीं आई। संगीता के मम्मी पापा हमारे घर हम से मिलने आ गए।

“चाय पीने की इच्छा थी। सोचा आपके घर चल कर पी जाए। मिलना भी हो जाएगा।” अंकल ने बैठते हुए अपने आने के कारण को हॅंसते हुए स्पष्ट किया।

“भाई साहब, बच्चियाँ बड़ी हो गई हैं। अब इनकी शादी की भी चिंता की जाए। मैंने तो संगीता से कह दिया.. अब कोई नानुकर नहीं, अब शादी की तैयारी की जाएगी।” संगीता की मम्मी भी लगे हाथ दूसरा या यूं कहो मुख्य कारण स्पष्ट कर रही थीं।

मैंने यह सुनकर मम्मी को उनके पास बुला कर खुद चाय बनाने लगी। शादी की बात सुनकर मेरा मन खराब हो गया था। चाय बनाते हुए, मेरे विचार अव्यवस्थित थे और मेरा मन अनेक सवालों से भरा हुआ था। मैं अपने भविष्य की चिंता में डूबी हुई थी और मेरे मन में असमंजस की स्थिति थी।

चाय देने के बाद, मैं अपने कमरे में आ गई। हमारी हाउस हेल्पर ने सभी का नाश्ता तैयार किया और मेरा भी मेरे कमरे में दिया। मेरे और संगीता के मम्मी पापा आराम से बैठे हुए बातें कर रहे थे। उनकी बातचीत के पहलू से मैं अच्छी तरह से अवगत थी और अनेक विचारों के मंथन के बीच मेरा दिल समंदर का ज्वार भाटा बना हुआ था।

जब वो लोग जाने लगे तो मम्मी की आवाज से मैं कमरे से बाहर निकली। संगीता के मम्मी पापा निकल रहे थे तो मैं भी अपने मम्मी पापा के साथ उन्हें छोड़ने बाहर तक गई। 

**

“एक शतरंज की बाजी हो जाए बेटा।” पापा मेरे उतरे हुए चेहरे को गौर से देखते हुए कहते हैं।

“मैं अन्य कार्य देखती हूँ।” बोल कर मम्मी रसोई में चली गई।

मैं और पापा शतरंज लेकर बैठ गए। 

पापा खेल के बीच में ही मुझसे पूछते हैं, “बेटा ये बताओ, तुम अपने होने वाले जीवनसाथी में कोई विशेष गुण देखना चाहोगी या तुम्हारी क्या क्या प्राथमिकता है, बता दो, तब हमारे लिए आसान हो जाएगा।”

“आप लोग तो मुझे हर तरह से जानते हैं।आप दोनों की पसंद मुझे स्वीकार्य होगी।” मैंने कहकर बात समाप्त करनी चाही थी।

“मिलना तो चाहोगी ना उससे।” पापा हाथ में शतरंज का घोड़ा लिए मुझे अर्थपूर्ण नजर से देखते हैं।

नहीं पापा, आप लोग मेरे लिए जो सोचेंगे, अच्छा ही होगा। खेल पर एकाग्र होइए पापा.. ये रहा आपके लिए चेक।” मैं अपनी प्रसन्नता दिखाती हुई कहती हूॅं।

“चेक ही है ना, चेकमेट नहीं ना। ये लो बच गया मैं।

ऐसे ही दोनों खेलते रहे।” उस दिन शतरंज की चालें बिना निर्णय के ही रह गई थी।

लंच करके सब अपने अपने कमरे में चले गए। शाम में हम तीनों इधर उधर घूम आए।

लंच करके, हैं सभी अपने-अपने कमरों में चले गए। शाम को हम तीनों इधर-उधर घूमने निकले। मम्मी, पापा और मैं सभी मिलकर सुंदर गलियों में से गुजरते हुए, आसमान की खूबसूरती को देखने के लिए निकले थे। कभी–कभी बेमकसद इधर उधर घूमना, एक-दूसरे के साथ बेफिजूल की बातें करना, हंसी-मजाक करना, जीवन को रोचकता से पूर्ण कर देता है। यह हमेशा एक यादगार वक्त होता है, जो एक-दूसरे के साथ जुड़ने का अधिक अवसर देता है।

इसी तरह कॉलेज और घर के बीच ये सप्ताह भी बीत रहा था कि एक शुक्रवार मेरे कॉलेज से आते ही पापा ने बॉम्ब फोड़ा, “रविवार को तुम्हें देखने लड़के वाले आ रहे हैं। देखने क्या मिलने आ रहे हैं। उन्होंने तो तेरी तस्वीर देखकर ही तुझे पसंद कर लिया है और लड़का भी हर तरह से तेरे योग्य है। अगर मिलना चाहे तो उसे भी आने कह देते हैं।” पापा मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहते हैं। पापा की आवाज में अत्यधिक खुशी झलक रही थी।

“इतनी जल्दी क्या है पापा? मुझे नहीं मिलना किसी से।” मेरी आवाज में थोड़ी झुंझलाहट आ गई थी, जो कि पापा के लिए नहीं, खुद के लिए थी।

मम्मी यह सुनकर मेरे करीब आकर बैठती हुई कहती हैं, “इतनी जल्दी कहाँ बेटा। अब तू हर तरह से सेटल है। लड़के वाले खुद आगे बढ़कर रिश्ता लेकर आए। लड़के में भी कोई कमी नहीं है।”

“कब आ गए रिश्ता लेकर।” मैंने आश्चर्य से पूछा था।

“उस दिन संगीता के मम्मी पापा उनकी तरफ से रिश्ता लेकर ही तो आए थे।” मम्मी के चेहरा बोलते हुए चमक उठा था।

“संगीता को पता है ये सब”..अब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। 

“उसे खुद का पता नहीं, तेरा क्या पता होगा। रविवार को मिल लेते हैं, फिर देखते हैं।” मम्मी इत्मीनान से कहती हैं।

मम्मी-पापा बहुत उत्साह से शादी की तैयारियों में लगे थे। मेरा दिल तो बुझा बुझा था लेकिन उन दोनों की खुशी के लिए मैं खुश होने का दिखावा कर रही थी।मैंने सोचा खुद की नहीं तो कम से कम उनके सपनों का सहारा तो बन ही सकती हूॅं और उनके सपनों को पूरा करने में उनका साथ देने लगी। मैंने अपनी चिंताओं को दूर करके उनके सपनों की पूर्ति में मदद करने की प्रतिबद्धता जताई।

बारह बजे करीब लड़के की मम्मी, पापा, बहन और बुआ आई। सबने सर्वप्रथम चाय और नाश्ता किया और मम्मी ने लंच भी तैयार कर रखा था। लंच के बाद, मम्मी-पापा ने उनके आराम की पूरी व्यवस्था की थी। मैंने चुपचाप मुँह सिले चुपचाप बैठी थी और सबको देख रही थी। लंच के बाद सब आराम करने लगे। लड़के की बहन, जो कि बारहवीं में थी, उसको मम्मी ने मेरे साथ मेरे कमरे में भेज दिया। यहाँ तक की उनके आने से पहले और उनके जाने के बाद तक मैंने सभी की शांति और खुशी की कश्ती को बहाल रखने के लिए अपनी उत्सुकता को बनाए रखने का दिखावा करती रही।

लड़के की माँ का चेहरा उल्लेखनीय रूप से “उससे” मिल रहा था। उनकी नजरों में जैसे कुछ विशेष था, जो किसी और की ही नहीं, बल्कि “उसी” को महसूस कराता था। सभी लोग पूरी तैयारी के साथ आए थे और शाम को लड़के के घर वाले शगुन देकर ही अपने घर लौटे। हमारे घर में उत्साह और खुशी का वातावरण बना हुआ था।

आज मेरी इच्छा हो रही थी कि इस हड़बड़ी के लिए मम्मी पापा से झगड़ा करुँ। मैं उन्हें यह बताना चाहती थी कि मैं अपने जीवन में स्वयं के निर्णय लेने की क्षमता रखती हूं। लेकिन, जैसे ही मैंने अपने कमरे में आकर बैठी, अनजाने में मेरी आंखों से आंसू बहने लगे और मैं अपने अवसाद में डूब गई। उस अनमनी अवस्था में एक ओर मैं अपना दुख को व्यक्त कर रही थी जबकि दूसरी ओर मैं अपने जज़्बातों का सामना नहीं कर पा रही थी। उसी अवस्था में मैं सो गई और मुझे थकी हुई जान कर मम्मी पापा ने भी जगाना उचित नहीं समझा।

दूसरे दिन मम्मी-पापा भी जाकर शगुन कर आए। अब मुझसे रहा नहीं गया… मैंने पूछ ही लिया, “इतनी हड़बड़ी क्यूँ हो रही है आपलोगों को?”

“सब कुछ अच्छा होने पर नेक काम में देर क्यूँ बेटा!” पापा ने मुझे समझाया था।

मैं अपने रूम में आई। इच्छा हो रही थी, संगीता को कॉल करुँ और जी भर कर लड़ूँ। उसे भी तो बहुतेरे काम होते हैं। अपनी परेशानी उसके सिर पर नहीं डालनी चाहिए, सोच कर रुक गई।

सगाई की तारीख एक महीने बाद की रखी गई। बिना मन के मैं शॉपिंग कर रही थी। कितने तामझाम हो रहे थे। मुझे कुछ भी पसंद नहीं आ रहा था। संगीता भी छुट्टी लेकर आ गई थी। मैंने एक बार भी उसे आने के लिए नहीं कहा, पर मम्मी ने बुला लिया। सगाई तक वो हमारे घर ही रहने वाली थी और हर काम की देख रेख वही करेगी.. मम्मी का ऐसा आदेश था।

मम्मी, पापा और संगीता का उत्साह देखते बनता था। मुझसे रहा नहीं गया.. मैं संगीता के समक्ष शिकायत लेकर बैठ गई।

मम्मी, पापा और संगीता का उत्साह देखते हुए मुझे असहमति का अनुभव हो रहा था। मैंने विचार किया कि मुझे संगीता से उसके व्यवहार के लिए सीधे शिकायत करनी चाहिए, इसलिए मैं उसके सामने बैठ गई और उसे अपने दुख के बारे में बताया।

“तुझे तो सब पता था संगीता। फिर तू इतनी खुश कैसे हो सकती है। तूने कुछ पता भी नहीं किया।” मैं शिकायत का पुलिंदा लिए बैठ गई।

संगीता पलकें झपकाती हुई अपने हाथ के काम को बिना बंद किए कहती है, “क्या करती यार… चाह कर भी मालूमात नहीं कर सकी। उसे बचपना समझ कर भूल जा। जीवन की नई शुरुआत कर.. देख अंकल आंटी कितने ज्यादा खुश हैं।”

मैं क्या कहती, मैं मुस्कुरा कर रह गई। तैयारी का स्तर अपनी चरम सीमा पर था। 

मैंने मम्मी से कहा, “इतने तामझाम की क्या जरूरत है। साधारण तरीके से भी सगाई हो सकती है ना।”

पापा यह सुनकर भावुक हो गए, “एक ही तो बेटी है हमारी। सारे अरमान पूरे करेंगे… क्यूँ भाई संगीता गलत कह रहा हूँ मैं।”

“बिल्कुल नहीं अंकल.. इसका तो दिमाग खराब है। इसकी भी शादी से ज्यादा धूमधाम आप लोग मेरी शादी में करिएगा। मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं होगी।” संगीता दही में सही मिलाती हुई कहती है।

मेरे पास आकर धीरे से “इसकी तरह मेरे पास कोई ड्रीम बॉय नहीं है”, कह कर वो मम्मी के पास भाग गई।

सगाई के दिन पार्लर ये, वो में दिन बीत गया। शाम में लड़के वाले भी आ गए। मम्मी ने छोटी सी पूजा और हवन भी रखा हुआ था सो सबके आने के बाद पहले वही हुआ। पूजा हवन के बाद सगाई की रस्म शुरू हुई। मेरी तो खुशी का ठिकाना नहीं था क्यूँकि मैं जिसे खोज रही थी गली गली.. “वो” मिला मुझे सगाई की घड़ी। 

सगाई के दिन, पार्लर में लंबा और व्यस्त दिन बीत गया। शाम को लड़के के परिवार भी आ गए। मम्मी ने छोटी सी पूजा और हवन का आयोजन किया था, जिसकी तैयारी उन्होंने पहले से ही कर रखी थी। पूजा और हवन के बाद, सगाई की रस्म संपन्न हुई। सगाई की रस्म के समय मेरे दिल दिमाग में द्वंद्व चलने लगा क्योंकि मैं जिसे खोज रही थी गली गली.. “वो” मिला मुझे सगाई की घड़ी। मैं आश्चर्य भरी नजर से उसकी तरफ देखती रही और उसी तरह सगाई की रस्म हुई।

“खैर मेरी सगाई हो गई।” कहकर वर्तिका चुप हो गई।

उसके चुप होते हो सौम्या जो कि ध्यानमग्न होकर कहानी का आनंद उठा रही थी.. उसका ध्यान टूटा।

“ओह, आपने किसी से कुछ क्यों नहीं कहा। उस समय अचानक वो कहाॅं से चले आए थे। क्या उन्हें पता चल गया था कि आपकी सगाई हो रही है।” सौम्या वर्तिका के चुप होते ही प्रश्नों की झड़ी बरसाने लगी। “फिर, फिर क्या हुआ मम्मी?”

“फिर क्या होना था..फिर हमारी शादी हो गई।” सुधीर जोर से हँसते हुए कहते हैं।

सौम्या और माया दोनों एक साथ बोलते हैं, “वो”, “उसने” आप थे?”

“बिल्कुल मैं ही था। तुम्हारी मम्मी के “वो”.. “उसने” से ही तुम्हारी मम्मी की सगाई हुई थी।” यह बोलते हुए सुधीर के चेहरे पर इश्क के कई रंग खिल गए थे।

सौम्या, जो यह सुनकर हतप्रभ थी, पूछती है, “फिर आप इस तरह क्यूँ सुन रहे थे, जैसे आपको कुछ मालूम ही ना हो।”

सुधीर, वर्तिका की ओर प्रेममयी नजरों से देखते हुए कहते हैं, “तुम्हारी माँ जब हमारी कहानी से सुना रही थी, मैं उन पलों को तुम्हारी माँ के साथ साथ जी रहा था। बिना कुछ कहे..बिना किसी इजहार के.. बिना किसी इकरार के.. एक दूसरे को खुद में बसाए.. एक दूसरे का इंतजार किया था हम दोनों ने।”

“और सबसे बड़ी बात सौम्या बिटिया, आपको इनकी कहानी कैसे पता नहीं थी।” माया चुटकी लेती हुई कहती है।

“माया दीदी, दोनों का प्रेम विवाह है, ये तो पता ही था। इन दोनों से हमेशा मुझे बोर्डिंग में रखा तो विस्तार से इस पर कभी बात नहीं हुई। वो तो भला हो रिमझिम गिरे सावन का, जिसने आज हमें ये सब जानने का अवसर दिया।” सौम्या माया के सवाल का उत्तर देती सुधीर और वर्तिका की ओर देखकर मुस्कुराई।

“पर सगाई तक इतना सस्पेंस कैसे रहा।” सौम्या सुधीर और वर्तिका की ओर बारी बारी से देखती हुई पूछती है।

“ये सब किया धरा तुम्हारी संगीता मौसी का था, उसने सभी को अपने प्लान में शामिल कर लिया था तो सस्पेंस कैसे नहीं रहता। मैं ही बुद्धू थी, वो तो शादी की तैयारी के लिए जब से आई थी, मेशा कहती “तेरे सगाई वाले दिन तुझे ऐसा उपहार दूँगी कि मुझे भूलना चाहे तो भी भूल नहीं सकेगी।” और मैं अपने गम में इतनी गमजदा हो गई कि संगीता शब्द और ऑंखों की चंचलता में तालमेल नहीं बिठा पाई और सस्पेंस सस्पेंस ही बना रहा। 

“सचमुच उस दिन भी सगाई से पहले झमाझम बारिश सबको भिगो गई थी। उसने हमारे प्रेम का नामकरण ही “बारिश का इश्क” कर दिया।  इस तरह संगीता ने हमदोनों को  “बारिश के इश्क” का उपहार देकर अपने प्यार की डोर से जीवनपर्यंत के लिए बाँध लिया हमें।” बोलते हुए वर्तिका की प्रेम पगी निगाहें सुधीर पर टिकी थी।

समाप्त

आरती झा आद्या

दिल्ली

3 thoughts on “बारिश का इश्क (अंतिम भाग – 11 ) – आरती झा आद्या: Moral stories in hindi”

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!