कोख़ में पाला था उसने और …रात दिन जागी भी थी….सब कहते पगली थी…!
जब भी उस बरगद के तिराहे से निकलता था बस उसको गंदे और फटे कपड़ों में विशाल बरगद के नीचे बने मंदिर के बरामदे में पाया।
मां के मुख से सुना था , पूजा करती औरतों से कहती थीं…”न जाने किस ने किया है इस पगली के साथ ये दुष्कर्म…किसका पाप कोख में लिए घूमती है।”और मैं जो उस वक्त मात्र आठ वर्ष की बाल्यावस्था में इन शब्दो का अर्थ ना समझ पाते हुए भी उस पगली के लिए सहानुभूति से भर जाता था।
जब बोर्ड की परीक्षाएं शुरू हुईं तो रोज सुबह उसी मंदिर में प्रार्थना करने जाता।…..पगली वहीं थी पर इस बार साथ में एक नन्हा बालक जो सारा दिन मां का आंचल पकड़े इधर उधर देखा करता।…..
बालक ही उसका संसार था ,शायद इसीलिए बच्चे की शर्ट को अपनी फटी साड़ी से बांधे रखती थी। कभी उसको सुलाती ,तो कभी खिलाती दिखती।
पतंग की डोर के पीछे भागते भागते एक दिन मैं उस मंदिर का चबूतरा लांघ नीचे गिरने ही वाला था कि अचानक किसी ने मजबूती से मेरा हाथ पकड़ के वापस खींच लिया…वही पगली अल्हड़ सी हंसी के साथ मेरा हाथ अभी भी कस कर जकड़े थी। मैंने हाथ ज़ोर से झटक दिया और तभी उस नन्हें बालक ने मेरी शर्ट खींची …..बहुत गुस्से से मैंने देखा उसे,… तो मेरी शर्ट छोड़ वह अपनी मां से लिपट गया …. फिर धीरे से मेरी ओर हांथ फैला दिया । उसका हाथ देखा तो ना जानें मेरा गुस्सा कहां चला गया और मन में दया के भाव उठने लगे……
नन्हीं हथेलियों के बीच लटकती पतंग की वो डोर आज भी याद है मुझे…. मां लगभग घसीटते हुए मुझे वहां से लाई थीं “खबरदार जो तू आज के बाद मुझे उस पाप के लोथड़े के आस पास भी दिखा”
‘पाप का लोथड़ा ‘ हां यही तो बोलते थे सब उस बालक को।
पांच साल की इंजीनियरिंग कंप्लीट होते ही मै वापस आया अपने घर ,रास्ते में ही वह मंदिर और तिराहा थे पर इस बार पगली नहीं दिखी …. पूछने पर रिक्शे वाले ने बताया हा वो अब यहां नहीं दिखती पिछले दो सालों से ना जाने कहां गईं।
आज सुबह ही आया हूं ,आज मा ने घर में सभी नाते रिश्तेदारों का भोज रखा है।मैंने सोचा थोड़ा घूम के आता हूं पर मां ने मना कर दिया “ना बेटा रात के नौ बज चुके है और शुक्रवार की रात है मत जा।”मां के मुंह से सुन कुछ अजीब लगा”क्यू मां बरगद की चुड़ैल तो बस एक वहम है पिछले १ साल से न्यूज और मीडिया ने हमारे शहर को बदनाम कर रखा है।’
मां बोल उठी नहीं बेटा सोच समझकर बोल रही हूं , मां हूं तेरी सुन ले …. मैं तेरा कष्ट नहीं देख सकती … तुझे खोने का दुख मैं नहीं सह पाऊंगी”।
रात में दीपू मेरा भाई मेरे साथ ही सोया ।नींद नहीं आ रही थी तो दीपू से बात करने लगा।”भैया अच्छा है आप नहीं गए पता है वोह चुड़ैल ना हर शुक्रवार को तिराहे से निकलने वाले को मार देती है”। “मैं इन सब बातों को नहीं मानता कोई भूत चुड़ैल नहीं होती तुझे किसने बताया ये सब?”। बोलकर मैंने दीपू की तरफ देखा जिसकी आंखो में डर साफ साफ़ झलक रहा था।
“भैया वो पगली याद है? मंदिर वाली ,सब बोलते है बरगद तिराहे पर लगने वाले सिकोटी के मेले में उसका बेटा कहीं खो गया था और उस दिन शुक्रवार था। तभी से वो मंदिर से चली गई थी ।सब बोलते थे पूरे शहर में अपना बेटा ढूंढ़ती फिरती है ।पर ना जाने कहां से हर शुक्रवार को तिराहे पर वापस आ जाती और मंदिर के पास से गुजरने वाले हर एक व्यक्ति को पकड़ कर बस यही कहती रहती “मोर बिटवा दई दो, मोर बिट्वा दई दो” और उसकी पकड़ इतनी मजबूत होती थी कि आसानी से ना छूटे”।
दीपू अपनी धुन में सब बताता जा रहा था और मुझे यूं लग रहा था मानो किसीने मस्तिष्क में हजारों हथौड़ों से वार किया हो और वो सुन्न हो गया हो।
मैंने देखा था उस मां का प्यार अपने लाल के लिए । मानता हूं वो था पाप का लोथड़ा ,पर उस मां का क्या जिसने पूरे नौ माह अपनी कोख में रख उसे अपने ख़ून से सींचा,प्रसव पीड़ा तो उसने भी सही होगी….. कूड़े से खाना बीन बीन कर खिलाती थी उसे ।फिर भी उसकी आंखो में मैंने वही वात्सल्य और संतुष्टि देखी थी जो मुझे खिलाकर मेरी मां की आंखो में झलकती थी।
पता नहीं खुद क्या खाती थी …पर मंदिर में चढ़ने वाले चढ़ावे में से पूरियां चुरा ले जाती थी …. पसंद थीं शायद उसे…
पर वो तो अपने बच्चे को बांध कर रखती थी खुदसे ,फिर खो कैसे गया?शायद गांठ ढीली पड़ गई हो….वैसे भी जब चूजे उड़ना सीख जाते हैं तो चले जाते हैं घोसला छोड़कर।………
तभी दीपू ने आगे बताया ” भैया पिछले साल दीवाली के तीसरे दिन पगली को किसीने कार से कुचल दिया था ,दो दिन उसकी लाश कूड़े के पास पड़ी रही थी।…बस तभी से वो हर शुक्रवार आती है,और सबसे बोलती है “मोर बिटवा दई दो “….
दीपू तो कब का सो गया ,पर मै ना जानें किस डोर से बंधे एक अंजान रिश्ते को महसूस कर रहा हूं. उस पगली के साथ।
कानों में मां की कही बात गूंज रही है …..
” मां हूं तेरी सुन ले …. मैं तेरा कष्ट नहीं देख सकती … तुझे खोने का दुख मैं नहीं सह पाऊंगी”।
ना जानें क्यों आज नींद नहीं आ रही रात के खाने से कुछ पूरियां बचा ली हैं सोचता हूं कल सुबह होते ही बरगद के नीचे रख आऊंगा।
सुना था कि अतृप्त आत्माएं भटकती रहती हैं,फिर वो तो एक अतृप्त मां है….
समाप्त
स्वरचित
सौम्या मिश्रा जौहरी