राध्या यही कोई नौ दस बरस की रही होगी। राध्या एक बहुत बड़ी सोसाइटी के अपार्टमेंट नंबर 502 में अपने पापा, मम्मी, दादी और छोटे भाई नभ के साथ रहती थी। राध्या के पापा,मम्मी दोनों ही नौकरी करते थे। वैसे भी महानगरों में महंगाई के चलते एक की नौकरी से कहाँ गुजारा होता है। राध्या और नभ को सोसाइटी के गेट के बाहर स्कूल बस लेने आती थी तो उनकी मम्मी आरती उन्हें बस तक छोड़ने के लिए आती थी और उसके बाद आरती और राध्या के पिता सौरभ अपने ऑफिस के लिए निकल जाते थे।
बच्चों की दादी मां को लिफ्ट इस्तेमाल करनी नहीं आती थी और पाँचवीं मंजिल से सीढ़ियों के रास्ते आना-जाना उनके लिए संभव नहीं था इसलिए दोपहर में सोसाइटी के सिक्योरिटी गार्ड महंत काका बच्चों को फ्लैट छोड़ने आते थे। अक्सर तो काका बच्चों को फ्लैट के दरवाजे पर छोड़कर ही वापस चले जाते थे पर कभी-कभी बच्चों की जिद पर उन्हें फ्लैट के भीतर आना पड़ता। तब दादी माँ उन्हें देखकर बहुत खुश होती और अपने हाथों की बनी डिशेज उन्हें खिलाती।
काका अपने परिवार से दूर यहां नौकरी करते थे। रोज किसी ढाबे पर खाना खाने वाले काका की आत्मा घर के बने खाने को खाकर तृप्त हो जाती क्योंकि काका, दादी माँ के हमउम्र थे तो वे कभी-कभी अपनी यादें एक दूसरे के साथ साझा करते। उनकी बातें सुनकर बच्चे बड़े खुश होते। अब तो महंत काका बच्चों को कहानियां भी सुना देते थे।
धीरे-धीरे महंत काका की कहानियों वाली बात सोसाइटी में फैलने लगी। सोसाइटी के बाकी बच्चे भी अक्सर महंत काका को घेर लेते और कहानियाँ
सुनाने की जिद करते। अब हर रोज शाम को 5:00 से 6:00 बजे तक सोसाइटी का पार्क गुलजार रहने लगा।
सोसाइटी के सभी बच्चे अपने अपने घर के बुजुर्गों के साथ पार्क में आ धमकते और खूब मस्ती करते। जो बुजुर्ग पहले अपनी शारीरिक असमर्थताओं के चलते अपने फ्लैट में बंद रहने को मजबूर थे, वे अपने नाती पोतों का सहारा लेकर पार्क में आ जाते और जो बच्चे सुरक्षा के लिहाज से घरों में बंद रहते थे, वे अपने बुजुर्गों के सानिध्य में खुले आसमान के नीचे खुश रहने लगे थे।
एक घंटे के लिए पार्क में जो मजमा लगता उसकी रौनक पूछिए मत। कहीं बच्चे कहानियां सुन रहे होते,अपने स्कूल और दोस्तों के किस्से सुना रहे होते तो कहीं बुजुर्ग अपने अनुभव और यादें ताजा कर रहे होते या बच्चों की मासूम बातों पर खिलखिला रहे होते।
बच्चों और बुजुर्गों के बीच बना यह बंधन अद्भुत था जहाँ दो अलग-अलग पीढ़ियां बचपन और गंभीरता को एक साथ जी रही थी। वाकई मानसिक बंधन सभी बंधनों से सर्वोपरि है।
#बंधन
स्वरचित
ऋतु अग्रवाल
मेरठ
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