छोटे परिवार में पली अंकिता जब से आकाश की दुल्हन बनकर ससुराल आई, उसकी सास मंदिरा जी न जाने कितनी बार उससे कह चुकी थीं — “हमारा खानदान बहुत बड़ा है, सब हमें बहुत मानते हैं। तुम्हारे मायके में तो सिर्फ चार ही लोग हैं। तुम्हें क्या पता रिश्तेदारी क्या होती है, मुसीबत में परिवार ही काम आता है। समाज में हमारे शुभचिंतकों की कोई कमी नहीं है।”
अंकिता चुपचाप उनकी बातें सुन लेती थी क्योंकि उसे पता था कि बहस करके कोई फायदा नहीं है।
अभी चार महीने पहले ही अंकिता की शादी हुई थी कि उसकी सास मंदिरा जी लकवे का शिकार हो गईं। अंकिता ने अभी ठीक से घर-गृहस्थी भी नहीं संभाली थी कि सारे घर-परिवार की ज़िम्मेदारियां उसके कंधों पर आ पड़ीं। उसके लिए सब कुछ अकेले संभालना बहुत मुश्किल हो रहा था, लेकिन फिर भी वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश करती। मंदिरा जी का भी वह काफी ध्यान रखती थी।
मंदिरा जी के बीमार होने की खबर सुनते ही उनके शुभचिंतकों का आना-जाना शुरू हो गया। पहले कहने लगे — “क्या विचार था इनका, जो इस उम्र में भगवान ने इन्हें बिस्तर पर गिरा दिया। देखो बहू, अब तो तू ही भाभी का सहारा है, अपनी मां की तरह इनका भी खयाल रखना। हां, हमारे लायक कोई काम हो तो बोल देना, दुख-तकलीफ में तो अपने ही काम आते हैं।” अंकिता की चाची सास उसे समझा रही थीं।
अंकिता ने चाय का कप उनके हाथ में थमाते हुए कहा, “चाय पीकर आइएगा,” और वह चलती बनी। अंकिता ने सुबह से पांचवें मेहमान के लिए चाय बनाई थी। उसने झूठे बर्तन समेटे और मंदिरा जी के लिए दलिया चढ़ा दिया।
मंदिरा जी का हाल-चाल पूछने के लिए दिनभर घर पर रिश्तेदारों का तांता लगा रहता। श्रवण जी का इलाज बहुत अच्छे डॉक्टर से चल रहा था, लेकिन जो भी आता, अंकिता को अपनी सास का ध्यान रखने की हिदायत दे जाता, साथ ही 24 घरेलू नुस्खे या किसी वैद्य का पता भी बता जाता।
“आकाश बेटा, मेरे साले के बेटे को भी ऐसे ही लकवा मार गया था। उनके गांव में एक बाबा जी हैं, उसी से उन्होंने इलाज करवाया था। मैं आज ही उनका पता मंगवाकर तुम्हें देता हूं। भाभी को भी एक बार वहां ले जाकर दिखा लो,” चाचा जी बोले।
“देखता हूं मैं,” आकाश ने जवाब दिया। वह मन ही मन सोच रहा था कि पहले कम से कम एक जगह तो ढंग से इलाज करवाकर देखें।
सुबह से शाम तक न जाने ऐसे कितने ही सुझाव दिए जाते, लेकिन कोई भी कहीं साथ चलने के लिए तैयार नहीं होता। बस बोलकर पतली गली से निकल लेते। घर के काम और मंदिरा जी की देखभाल तो अंकिता संभाल रही थी, लेकिन इन औपचारिक लोगों को संभालना उसके लिए बहुत मुश्किल हो रहा था।
मंदिरा जी थोड़ी भारी शरीर की थीं, इसलिए उन्हें सहलाते, कपड़े बदलवाने में अंकिता को काफी परेशानी होती, लेकिन इतने बड़े परिवार में से कोई भी उस वक्त उसकी सहायता के लिए नहीं आता। आकाश की मदद से ही अंकिता उनके सारे काम कर पाती थी।
एक दिन आकाश को जरूरी काम से बाहर जाना था, इसलिए वह अंकिता की मदद नहीं कर पाया। उसने बगल में ही रहने वाली चाची सास से कहा, तो उन्होंने भी पैरों में दर्द का बहाना बना दिया। अंकिता ने जैसे-तैसे खुद ही सारे काम निपटाए।
कुछ दिनों बाद शुभचिंतकों का आना-जाना भी न के बराबर हो गया। उनकी खुद की बेटियां भी घर-गृहस्थी के चलते और अपने बच्चों की पढ़ाई के कारण एक-दो दिन रुककर चली गईं।
मंदिरा जी अच्छे से बोल नहीं पाती थीं, लेकिन सब देख-समझ रही थीं। उन्हें पता चल गया था कि जिन शुभचिंतकों पर वह इतराती थीं, वे सिर्फ नाम के ही हैं। सब अपने-अपने में मस्त रहते। छोटे परिवार से आई अंकिता ही इस मुश्किल समय में उनका ख्याल रख रही है।
अंकिता की सेवा रंग लाई और कुछ दिनों में ही मंदिरा जी की हालत में सुधार आने लगा। अब वह खुद चल-फिर पाती थीं और थोड़ा-बहुत बोलने भी लगीं।
उनकी हालत में सुधार देखकर फिर शुभचिंतकों का आना-जाना शुरू हो गया।
“अच्छा हुआ भाभी, जो आप ठीक हो गईं। हमें तो बस आपकी ही चिंता खाए जा रही थी,” एक ने कहा।
“हां भाई साहब, लेकिन सिर्फ चिंता करने से कोई ठीक नहीं होता। यह तो अंकिता और आकाश की सेवा ही है, जिसके कारण मैं ठीक हो रही हूं,” मंदिरा जी बोलीं।
“एक तरह से अच्छा हुआ जो मैं बीमार पड़ी, कम से कम पता तो चल गया कि हमारे कितने शुभचिंतक हैं।”
लेखिका : सविता गोयल