बहु नहीं बेटी – गीता वाधवानी 

पिताजी की तेरहवीं वाले दिन उनके दोनों बेटे नीरज और धीरज बात कर रहे थे कि मां अब गांव में अकेली कैसे रहेगी? 

    दोनों बहुएं चुपचाप बातें सुन रही थी। तब मां ने कहा-“मेरे बच्चो, तुम परेशान मत हो। मैं अकेली रह लूंगी। मैं अपनी देखभाल भली-भांति कर सकती हूं।” 

      दोनों बेटों ने बहुत समझाया लेकिन मां ने गांव छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुई। दोनों बेटे और बहुएं शहर में अपनी अपनी नौकरियों पर लौट गए। 

     थोड़े दिनों बाद गांव से पड़ोस में रहने वाले चाचा रामप्रसाद का फोन आया। उन्होंने नीरज से कहा-“बेटा नीरज, इस बार जबरदस्त बारिश होने के कारण तुम्हारे घर में जगह जगह से पानी टपक रहा है। तुम्हारी मां बहुत परेशान है। मकान की मरम्मत करवाओ या फिर अपनी मां को अपने पास शहर बुला लो।” 

नीरज ने सारी बात अपनी पत्नी रेखा को बताइए। रेखा ने कहा-“तो देर क्यों करते हो, मां को यहां ले आओ। घर की मरम्मत थोड़े दिनों बाद करवा लेना जब आप को ऑफिस से छुट्टियां आसानी से मिल जाए।” 

नीरज ने कहा-“ठीक है छुट्टी लेकर निकलता हूं किसी दिन।” 

आज कल करते-करते नीरज ने 10 दिन यूं ही बिता दिए। 

रेखा ने उससे कहा-“आपने 10 दिन तो यूं ही बिता दिए, अब 2 दिन और रुक जाइए, मुझे ऑफिस की तरफ से शहर से बाहर सेमिनार में जाना है। मेरा जाना बहुत जरूरी है।” 

रेखा 2 दिन के लिए चली गई। नीरज घर का ख्याल भी रखता था और ऑफिस भी जाता था। आज रात में जब मैं ऑफिस से वापस आया तो मां को घर में बैठा देखकर हैरान हो गया। मां से बोला-“मां आप यहां?” 

मां ने हंसकर उसका कान पकड़ लिया और बोली-“तुझसे ज्यादा चिंता करती है रेखा बहू मेरी।” 

और फिर रेखा को गले लगा कर बोली-“यह मेरी बहू नहीं, बेटी है। इसके गुण ही परिवार की ताकत है।” 

स्वरचित गीता वाधवानी 

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