“क्या बात करती है सुलेखा!…आज के जमाने में रंग को लेकर ऐसा व्यवहार? यकीन नहीं होता।” – निकिता की भौंहें तनी हुई थीं।
आगे भी उसने कहा -“शक तो मुझे तभी हुआ था जब तेरे एंगेजमेंट में तेरे ससुराल वाले सब के सब ब्रांडेड व लक्जरी आइटम से लदे- फदे थे और तेरे लिए जो कपड़े व समान लाये थे वो सब आउटडेटेड और सस्ते से थें।”
“क्या बताऊँ निकी! मेरी सास तो इस शादी के खिलाफ़ ही थी। सुना नहीं था तूने कि शादी की बात वहाँ से खत्म ही हो चुकी थी। वो डेढ़ साल बाद मेरे ससुराल वालों ने इस रिश्ते के लिए हां कहा था। …..वो भी तुम्हारे जीजाजी के दबाव के कारण।”
फिर हंसते हुए कहा -“उनको मैं पहली नजर में ही भा गयी थी। उन्होंने फेसबुक पर मुझे तलाशा और हमारी बातचीत जारी रही।”
निकिता, सुलेखा की कजन व पक्की सहेली भी थी। सुलेखा की शादी के छः महीने बाद वह उससे मिली थी। जब उसने उसके ससुराल वालों के विषय में पूछा तो निकिता ने बताया कि उसकी सास को उसका रंग पसन्द नहीं है। बाकियों की राय कुछ स्पष्ट पता नहीं लगता क्योंकि उस घर में सास की ही चलती है। सब उनकी हां में हां मिलाते हैं। देवर ननद कोई ढंग से बातचीत नहीं करते। ‘भाभी’ कहकर कोई बुलाता तक नहीं। बस घर का काम करती है और अपने कमरे में पड़ी रहती है। हां! पति ऋत्विक उसका खूब ख्याल रखते हैं जिसकी वजह से उस घर में रह पा रही। ससुराल में रिश्तेदारों व मिलने-जुलनेवालों के सामने आने से भी उससे परहेज कराया जाता है। हमेशा साड़ी पहनकर सर पर पल्लू रखे रहना पड़ता है। एक रोज उसके घर में आयी ऋत्विक की दूर की बुआजी ने बताया कि उसकी सास को सांवला रंग बिल्कुल पसंद नहीं। वो तो ऋत्विक को भी बचपन में ज्यादा न दुलारती थीं क्योंकि उसका रंग भी सांवला है। ऋत्विक बचपन में ज्यादातर अपनी बुआ व दादी के गोद एवं स्नेह तले पले- बढ़े हैं।
यह सब सुन निकिता का सर भन्ना गया। बोली -“सुलेखा! तुम पढ़ी-लिखी हो। फैशन डिजाइनिंग की है तुमने। तुम कहीं नौकरी करो और अपनी पहचान बनाओ।”
“हां निकी!.. कुछ तो करना पड़ेगा। ऐसे कितना बर्दाश्त करूँगी। घुटन सी होती है। बिजिनेस है तेरे जीजाजी का तो कहीं उनके जॉब के बहाने ससुराल से निकलने का भी सवाल न उठता है।”
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कुछ दिनों बाद सुलेखा ससुराल लौट आयी। पूर्व ढर्रे पर ही जिंदगी चलने लगी। दो साल बाद वह गर्भवती हुई। घर में सुख-सुविधा की कमी न थी। पर मानसिक रूप से प्रताड़ित होती रहती थी। ससमय बेटे का जन्म हुआ। पहली बार नवजात को देखा तो वह अपनी सारी पीड़ा भूल गयी। वह उसे एकटक देखे जा रही थी। गुलाबी सा नवजात..….अभी उसके रंग का पता लगाना मुश्किल था। नवजात बच्चे कई रंग बदलते हैं। मन आशंकित हो रहा था। अपने बड़ों से सुनती आयी थी कि गुलाबी रंग के बच्चे बड़े होकर सांवले रंग के निकलते हैं।
धीरे- धीरे अंश बड़ा होने लगा। खूब स्वस्थ गुलाबी गुड्डा सा लगता था। छह महीने का होते-होते उसका रंग उभरने लगा था। उसका भी रंग सुलेखा पर चला गया था। ओह! तो अब इस शिशु को भी अपनी दादी की रंगभेद नीति सहना पड़ेगा। नहीं!!!..इस अबोध को यह सब न महसूस करने देगी जिससे उसमें हीनभावना विकसित हो। उसका बच्चा सबसे प्यारा है। और सचमुच अंश की दादी उसे दुलारने से बचती थीं। यह सब ऋत्विक भी महसूस करते लेकिन सम्मान वश मां को कुछ कह नहीं सकते थे।
अंततः महीनों सोच- विचार करने के बाद सुलेखा व ऋत्विक ने निर्णय लिया। ऋत्विक उसी शहर में अपने दूसरे घर जो दादाजी का बनाया हुआ था। उसके दूसरे फ्लोर पर घर बनवा कर वहीं शिफ्ट कर जाएगा। यह सब पूरा करने में एक साल और लग गया। अंश का दूसरा जन्मदिन मनाकर उसके अगले दिन सुलेखा व ऋत्विक नए घर में शिफ्ट कर गए। वीकेंड पर वह अंश को लेकर ससुराल पहुंच जाती। उस रोज पूरी तरह किचन संभालकर सबका फेवरेट लंच बनाती। अगले दिन वापस आ जाती। पर सुलेखा की सास उनके दूसरे घर में शिफ्ट कर जाने से नाराज रहतीं, वो लोगों से कहते चलतीं कि बहु ने उनके बेटे को अपने काबू में कर रखा है। घर से अलग ले गयी उसे। उनका दुर्भाग्य ही है कि ऐसी बहू मिली।
काश! वो यह समझ पातीं कि उनके व्यवहार ने बहु को घर से अलग किया। उसे ऐसा कदम उठाना पड़ा। आज भी वो कितनी गलत धारणा को पोषित करते आ रही हैं। उन्हें बहू का रंग दिखता है गुण नहीं।
#बहू
–डॉ उर्मिला शर्मा।