बहारें बसंत की मोहताज़ नहीं – सरला मेहता

बेहद प्रभावशाली व्यक्तित्व की स्वामिनी चारु मित्रा, कॉलेज में पढ़ाती है। अपने काम से काम रखती है। अवसर पाते ही पेड़ो के झुरमुठ में ऐनक चढ़ाए कोरे कागज़ की नायिका सी जा बैठती है, अपनी डायरी लिए।

अनुराग भी अभी तक पूर्व प्रेमिका प्रिया द्वारा दिए ज़ख्मों को झेल रहा है। चारु की बातें उसे सुकून देती है।

धीरे धीरे उनकी हेलो हाय कॉफ़ी की टेबल तक पहुँच जाती है। और एक गुलाब हाथ में लिए प्यार का इज़हार कर देता है।

चारु संजीदा हो कहती है, ” मैं जानती हूँ, तुम बहुत अच्छे हो। किन्तु उपन्यास की प्रस्तावना भर से पूरी कहानी नहीं जान पाते। फ़ूल शाखा से गिरकर अपनी खुशबू खो देता है। “

तभी दोनों एक साथ बोल पड़ते हैं, ” मुझे कुछ कहना है तुमसे।”

” अनुराग, मैं सब जानती हूँ, तुम्हारे बारे में। लेकिन मेरी भी अपनी दास्तान है। मैं भी कभी खूब मस्ती में खिलखिलाती थी। तभी एक बेदर्दी भँवरे ने…। फ़िर मिला हर्ष का साथ, कभी ना बिछड़ने की कसमें खाई।

लेकिन सच्चाई से सामना होते ही हर्ष मुझसे फ़िर कभी नहीं मिला, शायद दुःख देने ही आया था ।”

      अनुराग गुलाब देते बोला,  ” मैंने भी धोखा खाया है। क्यों न अब पूरी कर लें हमारी अधूरी कहानियाँ। “

” पर माँ हर शुभकार्य बसन्त पंचमी के दिन ही करती है…। “

”  तुम्हारी हाँ ने बसन्त के पूर्व ही मेरे जीवन में बहारें बरसा दी। “

सरला मेहता

इंदौर

स्वरचित

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