कैसी उदास सुबह है ना! होली कल ही बीती है, कितना उल्लास, कितना मस्ती भरा माहौल था कल सारा दिन और आज देखो? ऐसा लग रहा है मानो कल कोई मौत हुई हो मोहल्ले में। एक परिंदा भी पर नहीं मार रहा है। अजीब सी मनहूसीयत पसरी हुई है। चाय पीते–पीते कुसुम ने कहा।
नौ बज गए हैं, आज अख़बार की भी छुट्टी है। कॉलोनी की सड़क सूनी पड़ी है। स्कूल की छुट्टी है, बाजार बंद रहना है तो अधिकतर लोग आराम के मूड में हैं। आकाश कल के अख़बार को फिर से पढ़ने की कोशिश कर रहा है। सारी खबरें बासी लग रही हैं, होली की बधाईयां आधे से ज्यादा पन्नों पर छपी हैं। होली का त्योहार आकाश को बिल्कुल भी नहीं पसंद। जिस दिन सब रंग बिरंगे हुए फिरते हैं आकाश का जीवन बेरंग हो गया था इसी होली के कारण। उस दिन के बाद उसने कभी होली पर रंग नहीं छुआ।
कुसुम चाय की ट्रे लेकर किचन में चली गई। आकाश ने अखबार मोड़ कर गोद में रखा और मन सालों पहले उसी होली के दिन पहुंच गया।
कुसुम शादी के बाद से ही सबकी चहेती बन गई थी। सबके साथ मीठा व्यवहार करना, सबका ख्याल रखना उसकी आदत में था। इन्हीं आदतों के कारण ससुराल में सब के होठों पर हर समय बस कुसुम का नाम गूंजता रहता। हर साल होली पर घर पर पूरा परिवार इकट्ठा होता, पापाजी के सब भाई, उनके बच्चे। ऐसा लगता घर नहीं एक मोहल्ला है पूरा।
सब मिल जुलकर होली ही नहीं हर त्योहार मनाया करते थे। हर बार किसी एक के घर पर इकट्ठा होते और आनंद उठाया करते। होली पर पुश्तैनी घर के बड़े से आँगन में रंग घुलता, ठंडाई घोंटी जाती, बच्चे मिलकर ड्रम में रंग घोलते, गुब्बारों में पानी भरते। आकाश को हमेशा ही सब के साथ मिलकर त्योहार खासकर होली मनाना अच्छा था। इसी बहाने परिवार का साथ मिल जाता, कोई किसी बात पर किसी से नाराज होता तो होली के बहाने नाराजगी रंगों के धुल जाती।
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ऐसी ही एक होली थी। कुसुम बाकी सब बहुओं के साथ तैयारी में जुटी हुई थी। उस साल आकाश की बहन की शादी के बाद पहली होली थी तो बहन के साथ दामाद भी आए हुए थे। सारा परिवार सुबह से दामाद जी की आवभगत में जुटा हुआ था। बहन को आए दो दिन हुआ था। बीती रात कुसुम ने आकाश से कहा– “बिट्टू खुश नहीं लग रही है जी। जब से आई है दामाद जी से दूर दूर है। कोई बात ज़रूर है। आप पूछो ना?”
आकाश ने बात को हल्के में लेते हुए जवाब दिया कि “नई नई शादी है थोड़ा वक्त लगता है एक दूसरे को समझने जानने में। तुम्हें वहम हुआ लगता है। देखो दामाद कैसे आगे पीछे घूम रहे हैं उसके।”
“आगे पीछे बिट्टू के नहीं बाकी भाभियों के घूम रहे हैं दामाद जी। होली का मौका है ना।” कुसुम ने बात को टालते हुए जवाब दिया।
नाश्ते के बाद रंगों का त्योहार शुरू हुआ। सब एक दूसरे पर रंग गुलाल डाल रहे थे। भीड़ पूरे मूड में थी, डेक पर होली के गाने बज रहे थे, बच्चे बड़ों पर गुब्बारे मार रहे थे, डांस कर रहे थे। सारी महिलाएं नए दामाद जी को घेरे हुए थी, ससुराल की ऐसी हो की वो कभी भूल न पाएं। वो भी पूरा मजा ले रहे थे सभी को रंगने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे थे।
अचानक ज़ोर से एक आवाज़ गूंजी। कुसुम की कड़कती हुई आवाज़ –”आपकी हिम्मत कैसे हुई इस तरह से छूने की मुझे। आप क्या हैं, हमारा रिश्ता क्या है, ये न भूलिए।”
अचानक सन्नाटा पसर गया आंगन में। किसी को अचानक तो कुछ समझ नहीं आया। कुसुम अपने आप को साड़ी से ढंकती हुई कमरे की ओर दौड़ पड़ी।
दामाद जी बेशर्मी से खींसे निपोरते हुए कुर्सी पर बैठे थे। जैसे कुछ हुआ न हो। आकाश और अम्मा तुरंत कुसुम के पीछे लपके। कमरे में कुसुम सिसकती हुई बैठी थी। अम्मा ने गले से लगाकर पीठ सहलाई तो वो सिसक पड़ी। अम्मा ने उसका आंचल हटाया तो पीठ पर नाखून के निशान बने हुए थे, जिनमें हल्का सा खून रिस आया था। उसके ब्लाउज के बटन टूटे हुए थे। दोनो को सारा माजरा समझ आ गया।
अम्मा ने ठहरे हुए शब्दों में दोनो से कहा– “जो हुआ सो हुआ। बाहर जाकर कोई बात नहीं करना इस बारे में। घर के इज्जत की बात है। बेटी की जिंदगी का सवाल है। अभी नई नई शादी हुई है उसकी। जो भी हुआ है गलती से हुआ है मान लो और भूल जाओ।”
“अक्कू तुम बाहर जाओ और माहौल ठीक करो। दामाद जी से बोलो की कुछ नहीं हुआ, गलतफहमी हो गई कुसुम को। अब वो ठीक है।”
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आकाश अम्मा के सामने कुछ न बोल सका। उनके सामने वैसे भी किसी का मुंह नहीं खुलता। इस परिवार की अघोषित मुखिया हैं वो। उनका कहा हुआ सबके लिए जैसे फ़रमान होता है।
आकाश बुझे मन से बाहर आया। बाहर का माहौल अब तक थोड़ा तनाव में था। उसने आते ही ज़ोर से कहा –”अरे क्या हुआ? सब ऐसे शांत क्यों हो। गाने शुरू करो भाई। कुछ नहीं हुआ सब ठीक है।”
फ़िर दामाद जी के पास जाकर कहा–”कोई बात नहीं लालाजी। होली की मस्ती में बुरा नहीं मानना चाहिए था कुसुम को। आप बात दिल से न लगाइएगा।”
दामाद के चेहरे पर बेशर्मी वाली हंसी अब तक बरक़रार थी। “अरे भैयाजी मैं क्यों होऊं नाराज़। सरहज और सालियों के साथ ही तो होली का असली मज़ा है।”
आकाश का मन हो रहा था मुंह तोड़ दे उसका। जैसे तैसे मन मारकर वहां से वो हटा। घर के बुजुर्गों के चेहरे पर तनाव की लकीरें रंगो के बावजूद भी नजर आ रही थी। महिलाएं एक दूसरे से खुसुर फुसुर कर रही थीं।
फिर माहौल न जम पाया। थोड़ी देर बाद कुछ आंगन में ही बैठ गए। कुछ नहाने चले गए। आकाश वहां से उठकर कमरे में गया तो कुसुम अब तक जैसे सदमे में उसी जगह उसी मुद्रा में बैठी थी। अम्मा जा चुकी थी। कुसुम ने नज़रें उठाकर आकाश की ओर देखा। आकाश उसके नजरों की ताव सह न पाया उसकी नज़रें झुक गई। ख़ुद को इतना असहाय कभी नहीं महसूस किया था उसने। कुसुम जैसे मजबूरी में उठी और बाथरूम में चली गई। नल चलने के साथ उसकी सिसकियों की आवाज़ आकाश को सुनाई दे रही थी।
सब एक दूसरे से नजरें चुराते हुए खाना खा रहे थे। बिट्टू के चेहरे पर पति की करतूत की शर्मिंदगी झलक रही थी। दो माह पुरानी शादी का खुमार अभी उतरा नहीं था की ऐसा कांड हो गया। दामाद ने बिट्टू से बेशक अपनी बेगुनाही की दलीलें दी थी लेकिन भाभी का फटा हुआ ब्लाउज सब समझा गया था उसे।
शाम तक सब अपने अपने घर चले गए। बिट्टू और दामाद को चाची जी अपने साथ अपने घर ले गईं।
अम्मा ने बाबूजी के सामने दोनो को स्पष्ट शब्दों में समझा दिया की इसे दुर्घटना समझ कर भूल जाएं। कोई भी बवाल किया तो बेटी का रिश्ते पर बुरा असर पड़ सकता है। जीवन भर इस असर को झेलना पड़ेगा बिट्टू को और हम सब को भी। अम्मा की बात सुन ना बाबूजी ने कुछ कहा न भैया भाभी ने। सबने खामोशी से मुहर लगा दी अम्मा के कहे पर।
दूसरे दिन सुबह कुसुम मशीन की तरह काम में लगी रही। हमेशा हंसते रहने वाली कुसुम से इस होली ने उसकी हंसी छीन ली थी। बिट्टू जाने के पहले भाभी से मिलने आई तो उसकी निगाहों में शर्म और पश्चाताप और शर्मीदंगी थी तो कुसुम की आंखें खाली थी। दामाद ऐसे मिले जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। कुछ बुरा लगा हो तो माफ़ कीजिएगा छोटी भाभी। होली की नादानी समझकर भूल जाइएगा।
कमरे में आकर कुसुम देर तक रोती रही। आकाश पास बैठकर उसके बाल सहलाता रहा। क्या कहे, कैसे दिलासा दे उसे, समझ नही आ रहा था। कुसुम ने ही कहा –”मैं समझती हूं आपकी परेशानी, आप मेरा पक्ष भी नहीं ले सकते बहन का घर तोड़कर। छोड़िए, सब भूल जाएंगे कुछ समय में, मैं भी।”
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कुसुम का कुछ न कहना और ख़ुद कुछ न कर पाना, आकाश को बहुत समय तक सालता रहा। कोई पत्नी को हाथ लगा दे और पति कुछ न कर पाए, कह पाए। कितनी शर्म की बात है।
आकाश का प्रमोशन कई सालों से होना था। हर बार वो यह सोचकर की घर से दूर किसी दूसरे शहर जाना पड़ेगा, मना कर देता था। जैसे ही विभाग में ट्रान्सफर शुरू होने का समय आया उसने अपने उच्चाधिकारी से बात की। और इस शहर से बहुत दूर शहर की पोस्टिंग मांग ली। उसने घर में बस इतना ही कहा कि हर बार मना करने के कारण इस बार बहुत दूर ट्रांसफर कर दिया गया है, इस बार जाना ही पड़ेगा। दोनो बच्चों और कुसुम को लेकर आकाश एक नए शहर में आ गया। उसके बाद कितने साल गुजर गए। कितनी होली बीत गई वो लौटकर नहीं गया।
उस घटना के लिए वो किसी को माफ़ नहीं कर पाया। अम्मा जब भी फ़ोन पर बात करती है बार बार आने को कहती है। वो भी जानती है की आकाश अब बहुत दूर हो गया है उनसे। बाबूजी कई बार आ चुके बातों बातों में समझा चुके की भूल जाओ बीती बात को। लेकिन आकाश के मन में चुभी फांस कभी निकल न पाई। उस होली के बाद दोनों ने कभी रंग नहीं खेला।
“आओ नाश्ता कर लो जी।” कुसुम की आवाज आई। आकाश वर्तमान में वापस आ गया। सड़क पर बिखरे रंगों को देखकर उसके मन में खयाल आया कि कैसे ये रंग किसी की जिंदगी को बेरंग कर सकते हैं। आपस में घुल मिलकर एक हो जाने वाले रंग किसी रिश्ते को किस कदर बदरंग कर सकते हैं।
©संजय मृदुल
रायपुर