बदलाव – संजय मृदुल

मैं अरुण के सीने से लगी जोर जोर से रो रही थी, उनका हाथ मेरे सर पर था और वो मुझे चुप कराने की कोशिश कर रहे थे।

 

आज मैने जीवन मे रिश्तो की सम्बन्धो की लोगो की कद्र समझी।

मैं रोते हुए बार बार उनसे माफी मांग रही थी। आज लग रहा था उन सभी से माफी मांगू जिनके दिल को कभी न कभी दुखाया था मैने। जिनके साथ बुरा व्यवहार किया था। 

मैं पूरे परिवार में नकचढ़ी के नाम से जानी जाती थी। न किसी से बात करना न ही हमउम्र बच्चो से घुलना मिलना। परिवार रिश्तेदार क्या होते हैं ये कभी जाना नही। कुछ मेरी सुंदरता का घमंड था तो कुछ मम्मी की शिक्षा।

हमारा परिवार एक ही शहर में रहता था मगर अलग अलग। दादी,चाचा, ताऊजी, सब थे मगर हमारा आना जाना नही था कहीं। किसी घर मे कुछ कार्यक्रम होता तो पापा अकेले ही जाते। मैंने कभी न किसी का सुख देखा न ही दुख। मम्मी को कोई पसन्द ही नही आता था। कोई न कोई बहाना बना देती हर बार। एक समय के बाद सबने बोलना ही छोड़ दिया। पापाजी ने भी परिस्थिति से समझौता कर लिया। हर बार मम्मी की जलीकटी सुनने से बेहतर यही लगा होगा उन्हें।

 

मैं भी इसी रंग में ढलने लगी क्योंकि जो देखते रही बचपन से वही सीखा। कोई मेहमान आ जाये घर पर तो कोई मतलब नही मुझे। परिवार के किसी भाई बहन से कोई लगाव ही नही बन पाया। कभी भूले भटके एक जगह इकट्ठा होते तो मम्मी मुझे न छोड़ती। जब बड़े हुए तो किसी से वास्ता ही नही रहा। मगर कहते हैं न किसी के बिना जीवन रुकता नही। तो हम भी अकेले जीने के अभ्यस्त होते गए। परिवार रिश्तेदार दोस्ती जैसे शब्दों से परिचित लेकिन इनकी सौंधी महक से अनजान।

एक दिन मेरी शादी हो गयी, सबकी होती है जैसे। मम्मी चाहती थी एकल परिवार जहां ज्यादा झंझट न हो। मगर तकदीर के आगे चली किसकी है। तीन भाइयों दो बहनों से भरापूरा परिवार मिला, जो हमारे शहर से थोड़ी दूर पर दूसरे शहर पर रहता था। शादी के बाद कुछ दिन तो मुझे लगता मैं चिड़ियाघर में आ गयी हूं। ननदें कुछ दिन बाद ससुराल चली गयी। रह गए दोनो जेठ उनका परिवार और सास ससुर। 



तब भी इतने लोग भी मैंने एक साथ रहते कहीं नही देखे थे। बड़ा अजीब सा लगता। दिन भर सारे जेंट्स दुकान चले जाते बच्चे स्कूल तो सास जेठानियाँ बैठ कर बातें करती या कुछ काम करती। तब मैं अपने कमरे में घुसी रहती। मेरी तो आदत ही नही थी ऐसी। किसी से बात करने की गप्पे मारने की। बड़ी पापड़ अचार कैसे बनता है देखा ही नही था। ले देकर खाना बना लेती थी यही शुक्र था। घर के काम कभी मन से किये ही नही थे। और बाहर के काम करने नही दिए कभी। तो भोदूँ मैं इन सबके बीच बड़ा अटपटा महसूस करती। इसलिए सबसे अच्छा कमरे में पड़े रहो। कुछ महीनों में सबको समझ आ गया मैं कैसी हूँ। सास ने कोशिश की समझाने की, फिर उन्हें भी लगा पत्थर पर रस्सी घिसने से निशान आने में समय बहुत लगेगा इससे अच्छा है समय पर छोड़ दिया जाए सब। मेरा मन होता तो काम करती नही तो अपने राजभवन में। कभी टीवी कभी मोबाइल और इनके अलावा मम्मी से घण्टो बातें। मेरे आने के बाद उनके पास भी कोई नही था। अकेलापन महसूस करती थी वो भी। मेरे सुबह उठने से लेकर सोने तक पूरी दिनचर्या उनसे शेयर करती। और बदले में मिलती सलाह। ज्यादा काम न किया कर। बच्चो को ज्यादा मुह न लगाया कर। अरुण का बस ध्यान रखा कर। बाकी के पीछे सर खपाने की जरूरत नही। ऐसा कोशिश कर की अरुण अलग घर लेकर रहने लगे। ऐसी ही ज्ञानवर्धक शिक्षा।

ऐसा नही की अरुण प्यार नही करते मुझे। सब फरमाइशें पूरी करते, ध्यान रखते, कोशिश करते कि सब से पटरी बैठ जाये मेरी। मगर बचपन से देखते सुनते मैं वो दुम हो गयी थी जो कभी सीधी नही हो सकती।

 

दो साल हो शादी को हमारी। सब ने जैसी हूँ वैसी एडजेस्ट कर लिया मेरे साथ। परिवार में एका बहुत है मेरे लाख कोशिश के बाद भी अरुण बदले नही। ये हुआ कि मुझ से ज्यादा बातें नही करते। मैं जब चाहे मायके चली जाती तो भी कुछ नही कहते।

कुछ पति होते हैं ऐसे जो हर हाल में परिवार को खुश रखने के लिए त्याग करने को तैयार रहते हैं अरुण उनमें से हैं। मैं अपने व्यवहार आदतों के कारण सबसे दूर होती चली गयी मगर मुझे कोई फर्क नही पड़ता था। क्योंकि जैसी शिक्षा मिली वैसी ही आदतें बन गयी थी।

एक दिन सुबह नींद खुली तो देखा सन्नाटा पसरा हुआ था घर मे। सभी बड़े गायब। और बच्चे घर पर।

पता चला आधी रात बाबूजी की तबियत बिगड़ गयी तो एडमिट करना पड़ा। अरुण को काल किया तो बोले अटैक आया है बाबूजी को, एडमिट किये हैं। तुम्हे उठाया था पर तुम उठी नही। तुम घर के काम देख लो बने तो,यहां सब हैं।

मुझे कोई फर्क नहीं पडा। जैसे बन पड़ा नाश्ता बनाया बच्चो को खिलाया फिर मम्मी को काल कर के बताया। उन्होंने कहा तू घर पर रह, सब तो हैं वहां, क्या करेगी जाकर। 

सात दिन रहे बाबूजी, मैं अरुण के साथ चली जाती, कुछ देर में अजीब सा लगने लगता वहां। सब भाई मिलकर डयूटी बांध लिए थे, दोनो जेठानी भी आती जाती रहती। बस मैं घर पर रहती जितना मन होता काम कर देती। कोई कुछ कहता नही था मुझे मगर सबके चेहरे बयान कर देते थे। अरुण भी चुपचाप सेवा में लगे रहे। रात में वही रुकते सुबह आते फिर तैयार होकर दुकान चले जाते। जितना कम बोलना पड़े मुझसे यही कोशिश करते। मुझे फर्क कहां पडता था किसी बात से। रिश्तो की कद्र करना कहाँ सीखा था मैंने। न मुझे किसी की परवाह थी।

समय बीत जाता है, बातें रह जाती हैं। मन मे जो घाव लगते है वो भर जाते हैं मगर निशान रह जाते हैं।एक छत के नीचे मैं सबसे अजनबी होती गयी। न कोई मुझे कोई बात बताता न ही किसी कार्यक्रम में जाने के लिए जोर डाला जाता। बस अरुण बता देते। मर्जी हो तो चलो नही तो घर पर रहो।



मैं भी आंख वाली अंधी। मम्मी और मैं मेरी दुनिया इससे आगे आज तक नही बढ़ पाई। 

 

आज लग रहा है सबने कितना कोसा होगा मुझको। कितने दुख दिए है मैंने सबको। आज दस दिन हो गए पापाजी को अस्पताल में। उनके लंग्स में पानी भर गया था। स्थिति गम्भीर थी। काफी समय से तबीयत ढीली  थी मगर बताया नही उन्होंने। न किसी को फिक्र थी। मम्मी बस दवाई दे देती समय पर। बाकी वो जाने।

मम्मी का काल आया कि पापाजी को अस्पताल में।एडमिट किया है जल्दी आ जा। मैं अरुण से बताया तो उन्होंने मम्मी से बात की और बोला मैं भी चलता हूँ। वो दिन और आज का दिन है दस दिन हो गए अरुण घर नही गए। पापाजी के साथ हैं लगातार। इस बीच रोज ही ससुराल से कोई न कोई आ जाता। ताऊजी चाचा बुआ कोई नही आये। बस फोन कर के हालचाल ले लेते।मामा एक दिन आये और नसीहतें देकर चले गए।

मैं भी ज्यादातर समय साथ रहती। ये बुरा समय शायद मुझे सिखाने को आया है ऐसा महसूस हुआ मुझे। 

आज पापाजी की तबियत काफी अच्छी है। दुनिया भर की नसीहतें देकर डॉक्टर ने आज छुट्टी दे दी है। अरुण मुझसे कहने लगे अभी तुम यहीं रुको। यहां जरूरत है तुम्हारी। मैं रोज रात आ जाया करूँगा। पापाजी अच्छे हो जाएं फिर ले चलूंगा तुम्हे। बहुत ध्यान रखना पड़ेगा इनका। बहुत कमजोर हो गए हैं तुम रहोगी तो सब सम्हाल लोगी। कितने विश्वास से कहा उन्होंने। मैं फ़फक कर रो पड़ी। अपना सब किया याद आने लगा। सब भूलकर कैसे मेरे परिवार ने मेरा साथ दिया परेशानी में। मैं अरुण से बोली। आज तुम और रुक सकते हो क्या? कल मैं एक बार घर जाना चाहती हूं। वो बोले- क्यों? मैने कहा बस कुछ जरूरी काम है।

ठीक है, उन्होंने बोला

 

मैं कल सब से माफी मांगूंगी। उम्मीद है छोटी समझ कर, नादान समझकर माफ कर देंगे मुझे। मैं उनकी ही छोटी बहू तो हूं। अपना घर अपना परिवार क्या होता है ये जान लिया है मैंने।

#कभी_खुशी_कभी_गम

संजय मृदुल

रायपुर

 

मैं प्रमाणित करता हूँ कि उपरोक्त कहानी मौलिक एवम अप्रकाशित है।

संजय मृदुल

 

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