मै आरती, बी ए में थी सिर्फ उन्नीस साल की।बड़ी बहू बनकर अपने ससुराल आ गई ।सुना था अच्छे लोग हैं, छोटा परिवार है ।पिता जी साधारण पोस्ट पर थे।साधारण लेनदेन करके बेटी को विदा कर दिया ।आर्थिक स्थिति चाहे बहुत अच्छी न रही हो पर माता पिता का प्यार, दुलार बहुत मिला ।
इस मामले में मै खुश नसीब थी ।खैर ससुराल आ गई ।सासू माँ ने पहले दिन ही कह दिया कि यह इतना हल्का जेवर मत पहनना ।मेरे परिवार में नाक कट जायेगी ।”अरे, देने की औकात नहीं थी तो पहले ही बता दिया होता “मै माफ कर देती तुम्हारे परिवार को ।बातें तो बहुत बढ़चढ़ कर बोल रहे थे।
फिर मेरे यहाँ से मिले सामान की खूब बुराई की गई ।दहेज में मिले बर्तन को पैर से ठोकर मार कर ” हल्का है” कहकर पूरे आँगन में पटक दिया ।दूसरे दिन रिशेपशन था ।मै भारी भरकम जेवर और साड़ी से लद गई ।सासू माँ ने फिर फरमान सुना दिया “आरती, अपने मायके वालों से कह देना, जरा ढंग का सामान लेकर आये,
“और हाँ ज्यादा मेल मिलाप की जरूरत नहीं है उन लोगों से ” मै सिर झुकाए सुनती रही ।तभी बड़ी ननद ने सुना दिया “भाभी, दो नाव पर पैर न रखिएगा, वरना गिर जाओगी “।माँ पापा ने दहेज भले ही कम दिया था लेकिन उनके दिए संस्कार तो मै अपने आचरण में समेट लाई थी ।माँ ने समझा दिया था कि चुप रहना ।
ससुराल में बहुत तरह की बातें होती हैं, दिल से मत लगाना ।माँ की बात को मैंने गांठ बांध ली थी ।अब बात बात पर ताने, और मायके की बुराइयों का दौर शुरू हो गया ।मै भारी जेवरों से लदी चुप चाप एक कोने में पड़ी रहती ।भारी भरकम कंगन से मेरे हाथ दुखने लगते।पति बहुत शान्त और समझदार थे।उनसे कुछ कहना चाहा
तो उनहोंने समझा दिया “जैसे परिवार के लोग चाहे, वैसे ही रहो” मैंने अपनी नियति मान ली।गर्मी के दिनों में पसीने से लथपथ रोटी बनाने लगती तो मन बेचैन हो जाता ।लगता साड़ी फेंक कर हल्का सा नाईटी पहन लेते ।पर इसकी इजाजत नहीं थी।
इस कहानी को भी पढ़ें:
क्या बड़ी बहू होना उसका अपराध था – उर्मिला मोहता : Moral Stories in Hindi
मन करता कि पति को तो समझना चाहिए था ।इतनी भी सिधाई किस काम की जो पत्नी को समझ ही न पाये ।घर में काम वाली नहीं थी।तो चौका बर्तन, रसोई और अपनी पढ़ाई भी संभालती रही ।दो साल के बाद एक बेटे की माँ भी बन गई थी ।अब काम का बोझ बढ़ गया ।सासू माँ बच्चे को देखतीं तो थी
लेकिन हांक लगातीं रहती “आरती तेल दे जा,आरती कपड़े दे दो,बच्चे का दूध और क्रीम पावडर दे दो” थक कर चूर हो जाती मै।मेहनत मै करती, नाम सासू माँ का होता ।सबकुछ करके कालेज भी जाना होता ।मै पढ़ाई पूरी करके निश्चिन्त हो गई कि अब आराम होगा ।लेकिन सबसे सुनना पड़ा कि इतनी पढ़ाई से क्या फायदा,
जब दो पैसे कमाने के लिए भी सोचना पड़े।फिर मैंने एक स्कूल में टीचर की नौकरी कर ली ।घर में बच्चे की देख रेख, सबकी रसोई, और नौकरी, सबको सबकुछ समय पर ही चाहिए ।सबकी चाय अलग अलग, सबका नाशता अलग ।आखिर बड़ी बहू जो थी।निभाना ही था।फिर देवर की शादी हो गई ।छोटी बहू घर आ गई ।
दान दहेज से भरपूर, गोरी चिट्टी ।मेरी उपेक्षा यहाँ से शुरू हो गई ।”अरे देखो तो कितना सामान लेकर आई है ।भारी भरकम जेवर ,बड़ी बड़ी परात, थाली ।घर में सबके लिए कपड़े भी मिला है ।सासू माँ बहुत खुश हैं ।ससुर जी बस सामान्य बने रहते हैं ।उनकी चलती भी नहीं सासू माँ के सामने ।मेरा कमरा बदल दिया गया ।
छोटी बहु के लिए यहाँ ठीक रहेगा, कहकर ।मै चुप रही।माँ ने चुप रहने के संस्कार दिए थे ।अब हर बात में छोटी की सलाह ली जाती ।मै तो एक फाल्तू जीव थी।पति सबको लेकर चलने वाले थे।मुझे समझाया करते कि कोई तुम्हारे बुराई करे ,यह मै नही चाहता।और अच्छाई के नीचे दबती रही मै ।बेटा बड़ा होता गया ।
पढ़ाई में अच्छा था।मुझे बहुत खुशी मिलती उसे देख कर ।दादी और दादा बेटे को बहुत प्यार करते थे यही सन्तोष था।जिंदगी चल ही रही थी कि एक एक्सीडेंट में पति हमे छोड़ कर चले गये ।मेरे उपर दुख का पहाड़ टूट पड़ा था ।लेकिन मुझे अपने बेटे के लिए जीना था।अब यही मेरी दुनिया था।मै कुछ दिन तक रोती रही ।
फिर माँ ने समझाया, सब ईश्वर की मर्जी है ।अपने आँसू पोंछ लो।अपने बच्चे को देखो।मैंने अपने आँसू पोंछ लिए ।मैं घर से लेकर बाहर तक खटती रही ।देवरानी सासूमा की चहेती थी ।वह आराम करती।अपना खाना लेकर अपने कमरे में टीवी देखती ।मेरी स्कूल की कमाई इतनी नहीं थी कि भविष्य बना सकूँ ।मैंने घर में टयूशन पढ़ाना शुरू कर दिया ।
इस कहानी को भी पढ़ें:
सुबह उठकर सबका नाशता बनाना, घर की सफाई, फिर स्कूल जाना, आकर सबके लिए रसोई की तैयारी, खाने के बाद टयूशन पढ़ाना ।मै कमजोरी महसूस करती ।एक दिन मेरी तबियत बहुत खराब हो गई ।मै बिस्तर पर पड़ी हुई थी ।कोई पूछने वाला नहीं था ।बेटा ही दो रोटी और पानी ले आया ।
छोटी का बड़बड़ाना चालू हो गया ” इनका तो रोज तबियत ही खराब होता है ” मुझसे नहीं होगा इनकी तीमारदारी ” न जाने कैसे सासूमा का मन बदल गया ।” अरे, यह भी आदमी है, थक जाती होगी बेचारी ” दो दिन तुमको काम करना भारी पड़ा तो छोड़ दो मै कर लूंगी ” उस दिन से सासूमा कुछ अधिक मेहरबान हो गई ।
छोटी देवरानी ने एक महीने के बाद अपना चूल्हा अलग कर लिया ।घर में रोज रोज चिक चिक होने लगा था ।समय बीत गया ।बेटा अच्छी नौकरी पर लग गया ।मै सासूमा को लेकर अपने बेटे के पास आ गयी ।मेरा सुखी जीवन है ।ससुर जी नहीं रहे ।बहुत कुछ बदल जाता है ।यही तो है जिन्दगी ।
उमा वर्मा, नोएडा, स्वरचित, मौलिक ।