बड़ी बहु से बड़ी दादी तक का सफर – लतिका पल्लवी : Moral Stories in Hindi

ऐसे ही नहीं बन जाती है कोई घर की बड़ी बहु। वर्षो के त्याग और तपस्या से प्राप्त होता है यह दर्जा। मेरे घर में बड़ी दादी एक रिश्ता नहीं रहकर एक नाम बन गया था। मैंने बचपन से सभी को उन्हें बड़ी दादी ही कहते सुना था। मै तो यह सोच भी नहीं सकता था कि बड़ी दादी कभी जवान भी रही होंगी क्योंकि मैंने उन्हें हमेशा इसी अवस्था में देखा था।

परन्तु ऐसा नहीं था कि वे बूढी थी तो काम नहीं करती थी। वे हमेशा काम ही करती रहती थी। मैंने उन्हें कभी आराम करते या सोते हुए नहीं देखा था। बड़ी दादी गाँव मे रहती थी और मैं अपने माँ, पापा और छोटी बहन के साथ शहर में। लेकिन हर तीज त्यौहार, जनेऊ, मुंडन, विवाह आदि कार्यक्रम में हमारा प्राय आना जाना लगा ही रहता था।

जब भी मैं गाँव जाता तो देखता कि गाँव में बहुत लोग रहते है। आयोजन में आए सभी रिश्तेदारों को देखकर मुझे लगता था कि सभी गाँव मे ही रहते है परन्तु जैसे–जैसे मैं बड़ा होते गया वैसे समझ आने लगा  कि वे सब भी किसी न किसी शहर में ही रहते है। गाँव में सिर्फ बड़ी दादी और एक बड़े पापा और बड़ी मम्मी ही रहते है।

मैं गाँव जाता और वहाँ जब सुबह सो कर उठता तो यही देखता कि बड़ी दादी गाय को चारा खिलाने में कुछ कमी करने के कारण नौकरों को डांट रही है तो कभी समय पर नाश्ता नहीं बनने के कारण बड़ी माँ , माँ, चाची या भाभी को डांट रही है। यह दिनभर निरंतर चलता रहता रहता था। मुझे बचपन से यही लगता था कि बड़ी दादी का काम सभी को डांटना है।

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यह बात मेरे मन में एक घटना के बाद कुछ ज्यादा ही पुख्ता हो गई। हमारे दादाजी जिनसे हम बहुत डरते थे, बड़ी दादी को उन्हें मैंने डांटते हुए देखा। कह रही थी “बबुआ जी नाती पोता के मालिक हो गए है फिर भी आपको समझ नहीं आता कि विवाह -शादी का घर है, ढेरों काम है, कब क्या आपसे पूछना – बताना पर सकता है और आप है कि पता नहीं कहाँ गाँव मे चौपाल लगा

के बैठ जाते है। अब खोजते रहो दिनभर पुरे गाँव मे।” समय बीतता रहा, मैं बड़ा होते गया और बड़ी दादी और बूढी होती गई। मैं चौदह वर्ष का हो गया था और एक शादी में अपने गाँव गया था। मेरी एक बुआ की बेटी जो मेरी ही हमउम्र थी वह भी आई थी। हम सभी बच्चे पुरे आँगन में हड़कंप मचाए थे, खूब शोर कर रहे थे तभी मैं अपनी असावधानी की वजह से गिर गया।

यह देखकर मेरी बुआ की बेटी जोर–जोर से हँसते हुए मुझे चिढ़ाने लगी। तभी बड़ी दादी ने आकर कहा “बबुनी इतनी जोर से और वह भी बीच आँगन में बेटिओं को नहीं हँसना चाहिए, जरा धीरे हँसो। तुम्हारी उम्र में तो मेरी शादी भी हो गई थी।” यह सुनकर मुझे बड़ा मज़ा आया। मैंने कहा “डांटो खूब डांटो मज़ा आ रहा है।” यह सुनते ही दादी ने कहा – यह क्या कह रहे हो बबुआ।

शहर में यही सीखे हो, भला  ननदो, बेटियों या भांजियों को कहीं डांटा जाता है। यह सुनकर मै चौक गया! कोई है जिसे दादी भी नहीं डांट सकती। दिनभर मैं इसी बारे  में सोचता रहा। तभी मुझे याद आया दादी ने कहा था

कि इस उम्र में मेरी शादी हो गई थी। तो क्या दादी कभी चौदह वर्ष की भी रही होंगी? तब क्या वह किसी को डांट पाती होंगी? अब यह मेरे लिए उत्सुकता का विषय बन गया था। 

मुझे यह बात जाननी ही थी। अतः मैं बड़ी दादी के पास गया। मुझे देखकर उन्होंने पूछा- कुछ चाही का बबुआ?? वैसे दादी बच्चो को कभी डांटती नहीं थी परन्तु मैं उनसे बहुत डरता था। उन्होंने फिर कहा “किसलिए आए हो?” मैंने हिम्मत करके कहा – आपसे कुछ पूछना है। उन्होंने कहा -” पूछो ” मैंने कहा “ दादी आप क्या कभी चौदह वर्ष  की थी

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और उस समय भी आपका काम सबको डांटना ही था।” मैं अपने प्रश्न पर शर्मिंदा भी था पर मुझे जानना भी था।  डर भी लग रहा था कि अब मुझे डांटेगी या माँ-पापा को  बोल कर डांट सुनवाँएगी। लेकिन यह सुनते ही वे जोर – जोर से हंसने लगी। मैंने उन्हें पहली बार हँसते हुए देखा था। वे लगातार हँस रही थी और सभी का नाम ले लेकर बुला रही थी।

“आइए बबुआ जी आइए सुनिए आपका पोता का पूछ रहा है। सुन रे बिटवा तेरा बेटा का कह रहा है।” दादी ने सबको पुकारते हुए कहा। माँ को बोलने लगी “बहुरिया तुम्हें कभी डांट का दिया तुमने तो बेटे को यही सीखा दिया कि दादी का काम सबको डांटना है।” अब मैं पूरी तरह से शर्मिंदा हो गया था। घर के सभी लोग जमा हो गए थे।

फिर उन्होंने मुझे अपनी गोद में बैठाकर प्यार करते हुए कहा “भला कोई दादी अपने पोते – पोतियों को डांट सकती है? दादी के प्राण तो पोते – पोतियों मे ही रहती हैऔर मैं तो तेरे दादाजी की भी दादी बन गई हूँ।” उन्होंने अपने बारे में बताते हुए कहा “सुन बिटवा जब मैं ब्याह करके आई थी तो मेरा दर्जा बहु का था

फिर कब बहु से बड़ी बहु, बड़ी बहु से बड़ी भाभी, बड़ी भाभी से बड़ी माँ और अब बड़ी दादी बन गई पता ही नहीं चला, परन्तु इस सफर मे मैंने का – का पाया का – का खोया इसका हिसाब तो लगाया भी नहीं। तेरह वर्ष की रोती बिलखती अपने में सिमटी हुई इस घर में आई थी लेकिन पुरे घर की मालकिन बनकर हँसते हुए जाउंगी।

तूने कभी अपने दादाजी की माँ को देखा नहीं है इसलिए तुझे उनके बारे मे पता नहीं है। कभी अपने दादाजी से पूछना उनकी माँ कितना सख्त स्वभाव की थी। एक भी गलती पर ढेरों ताने उलाहने मिलती। मैं तेरह वर्ष की लड़की कुछ भी काम करती तो कमी रह ही जाती फिर तो शुरू होता उनका डांटना। लेकिन बिटवा जब वे कम उम्र में ही हमें छोड़कर चली गईं

तो मझे पता चला कि वे घर के लिए क्या थी और कितनी बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर छोड़कर चली गईं थी। तेरे परदादा जी, तीन दादाजी तथा तीन बुआ दादी को मिलाकर सात भाई बहन की जिम्मेदारी। सभी अभी छोटे ही थे। पिताजी ने कहा बेटी तुम घर की बड़ी बहु हो अब तुम्हें ही इन्हे संभालना है। मैं भी बच्ची ही थी।

सभी को खिलाना – पिलाना, कुछ को नहलाना -धुलाना फिर उन्हें स्कूल भेजना दिनभर की मेरी यही दिनचर्या थी। तेरे बड़े दादाजी शहर मे कॉलेज में पढ़ते थे बाकी सभी यही थे। धीरे – धीरे समय बीत रहा था मैं भी थोड़ी समझदार हो गई थी। तेरे बाकी दोनों दादाजी भी पढ़ने या नौकरी के लिए शहर चले गए थे। तभी एक दिन तेरे दादाजी के पिताजी भी चल बसे।

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अब घर मे थी सिर्फ हम चार औरते और नौकर चाकर। मैं अभी ज्यादा दिन की नहीं थी। ननदें भी बच्ची ही थी। नौकर–नौकरानिया हमें कम उम्र का सोचकर हमारी बातों पर ध्यान नहीं देते थे और अपनी मनमर्जी से काम करते थे। फिर तो उनसे काम लेने के लिए मुझे यह रूप लेना पड़ा। मैं थोड़ा कड़क स्वभाव की बन गई।

बचपना शादी के कारण छूटा और जवानी का अलड़पन माँ – पिताजी के मृत्यु के कारण। तूने सही सोचा बेटा मैं तो जन्मते ही शायद दादी बन गई। लेकिन अपनी बुआ दादिओ से पूछना मैंने कभी भी उन्हें नहीं डांटा। ननदो और भांजीओ का सम्मान होना चाहिए इस रीत को मैंने कभी भी नहीं तोड़ा और याद रखना बेटा, तुम भी ऐसा ही करना, कभी भी अपनी बहन या भांजी को नहीं

डांटना। बहनो का जहाँ अपमान होता है वहाँ सुख – समृद्धि कभी भी नहीं आती।” यह कहते – कहते वह रोने लगी, “पता है बिटवा इस सफर में मैंने अपनी हाथो से जिसे बहु के समान दुल्हन बनाकर उतारा था वैसी दो देवरानियो को खोया। एक ननद को खोया, सबसे ज्यादा दुखदायी,जीवनभर साथ देने का वादा करने वाले तेरे बड़े दादाजी को खोया।

वे भी मुझे इस भवर में अकेला छोड़कर चले गए। लेकिन तेरी छोटी दादी को खोने के बाद माँ बनने का सौभाग्य भी पाया। उनके तीनो बच्चो को पाल पोसकर कर बड़ा किया और उन्हें उनकी गृहस्थी सौपकर  निश्चिंत हो गई। तेरे दादाओं का सम्मान भी पाया, भाभी हूँ परन्तु उन्होंने कभी भी माँ से कम नहीं समझा, इतने सारे पोते – पोतियों और नाती – नातिनो का प्यार भी पाया।

” इतना कहकर दादी थोड़ी देर रुकी। तभी मैंने कहा “दादी आप रोइये नहीं,आप रोती हुई अच्छी नहीं लग रही। आप डांटते हुए ही अच्छी लगती है। रोएंगी तो सभी अपनी मनमर्जी का करने लगेंगे।” यह सुनकर सभी हसँने लगे और दादाजी ने कहा “ठीक कह रहा है आपका पोता। आपके कड़क स्वभाव ने ही आज तक इस घर को बाँधकर रखा है

और हमारे घर का कोई भी आयोजन गाँव में और सुचारु रूप से हो रहा है।” बस इतने के बाद दादी लगी सभी को डांटने , “मैं अपने पोते से जरा बात क्या करने लगी लगे सभी बैठकर सुनने, जैसे कोई काम – धाम ही नहीं है। विवाह का घर है ढेरों काम है पर बस सभी बैठकर गप्पे लड़ाएंगे।” सभी एकसाथ हँसते हुए उठकर चल दिए।

लेखिका : लतिका पल्लवी

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