शालू की शादी मोहित से हुई तो मानो राजेश बाबू ने चैन की सांस ली। शालू का हाथ मोहित के हाथों में थमाते हुए आंखों की चमक बता रही थी जैसे इस जीवन में ही उन्हें मोक्ष मिल गया हो। भले ही आंखों से राजेश बाबू और जया जी के झर झर आंसू बह रहे थें फिर भी मोहित जैसे दामाद को पाना किसी उपलब्धि से कम नहीं था।
शालू और मोहित ने प्रेम विवाह किया था। राजेश बाबू और जया जी ने शालू की परवरिश में कहीं कोई कसर न छोड़ी थी। शालू के बाद भी उनकी एक और संतान थी ~ दिव्या पर किसी अज्ञात बीमारी के कारण छह साल की उम्र में ही वो साथ छोड़ कर चली गई। जया जी के लिए उनका सारा रहा सहा संसार बस शालू पर ही आकर अटक गई। दोनों बेटियों का प्यार केवल एक बेटी पर खूब लुटाया। बढ़िया कॉन्वेंट में पढ़ाया लिखाया। संस्कार देकर आने वाले कल के लिए तैयार करवाया। बस एक चीज में ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए। और वो था शालू का जिद्दी स्वभाव।
दोनों पति पत्नी के बीच बहस होती और ये ज़िद बीच में आ ही जाती। जया जी कहती,” अब एक ही बेटी है, थोड़ा बहुत नखरा तो रहेगा न ,उसका। अभी तुम उठा लो, राजेश। आगे कोई न कोई मिल ही जायेगा, नखरा उठाने वाला। राजेश जी बिफर उठते और कहते,” जिसको तुम नखरा कह रही हो, जया, वो दरअसल ज़िद है उसकी। मुझे डर है कि कहीं तुम इस नखरे और ज़िद के बीच का फर्क न कर सको और एक दिन हम दोनों को ही इसके लिए रोना पड़े।” ये बहस अंतहीन थी जैसे शालू की ज़िद।
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शालू ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की और बैंगलोर में उसका प्लेसमेंट भी हो गया। मोहित को वो कॉलेज के दिनों से ही जानती थी। गोरा चिट्टा, सुडौल शरीर और मादक मुस्कान वाला मोहित सबकी पसंद तो था ही पर शालू की ज़िद था वो। मोहित के लिए भी तीखे नैन नक्श वाली मॉडर्न शालू को चुनना भी इतना मुश्किल नहीं था। अलबत्ता, दोनों ने एक ही कंपनी ज्वाइन किया। एक ही शहर, एक ही काम और दोनों का साथ पहले जैसा ही। सब कुछ सपनों जैसा ही था। शालू ने मोहित के बारे में राजेश बाबू और जया जी को सब बता दिया था। बस मोहित ही था, जो शालू को अपनी जिंदगी और अपने परिवार में एक राज़ बना रखा था।
ऐसे ही दो ढाई साल बीत गए। राजेश बाबू ने मोहित के घर वालों से मिलने की इच्छा जताई। सफर को अच्छी मंजिल मिले, आखिर इसकी जिम्मेवारी भी तो राजेश बाबू और जया जी की ही थी। शालू के ज़िद पर मोहित ने ये काम भी कर दिया। मोहित के घर वालों को शालू पसंद आ गई। मोहित के लिए उन्होंने ज्यादा तीन तेरह नहीं किया। शालू और शालू के पीछे आने वाले भविष्य की कल्पना से सभी अचंभित थे कि इतने बड़े घर की बेटी, इतने रईस घर की बेटी उनके घर की बहू जो बनने वाली थी। आखिरकार, शादी तय हो ही गई।
राजेश बाबू के लिए मोहित एक बेटे की तरह था तो जया जी के लिए उनका दामाद वो इंसान था जो अब उनकी बेटी के नखरे उठाता। शादी नहीं थी, उत्सव था। एक इकलौती बेटी की इस खास दिन एक मां बाप अपने सामर्थ्य से जो कुछ कर सकते थें,सब राजेश बाबू और जया जी ने किया। विदाई के बाद, जब शालू अपने ससुराल पहुंची तो वहां के सारे रिश्तेदार देखकर हक्का बक्का थें। घर का एक बड़ा सा हॉल केवल शालू के मायके से आए गिफ्ट्स और उपहार से पटा पड़ा था। सबके जुबान पर बस शालू ही थी। मोहित अपने चॉइस को लेकर सातवें आसमान पर खड़ा था और घरवाले शालू के साथ आए सामान पर इतराकर खुश हुए जा रहे थें।
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शुरुवात के कई महीने तो बहुत सुहाने रहे। मोहित के मां बाप के लिए शालू जैसी बेटी ही थी पर दो तीन साल बाद से ही उन्हें ये पता लगने लगा कि शालू की बेटी बनने और बहू होने में बहुत फर्क था। बंगलौर में नया फ्लैट लेकर मोहित और शालू शिफ्ट हो गए। ससुराल आना जाना बहुत कम होने लगा।इसी बीच शालू ने शैली को जन्म दिया। घर में किलकारियां गूंजी पर उसकी आवाज मोहित के मां बाप को नहीं सुनाई दी। धीरे धीरे ये बात जगजाहिर हो गई कि शालू की चमक धमक के आगे मोहित ने अपने मां बाप को त्याग दिया। एकल परिवार, एकल जीवन और एकल सोच के साथ मोहित और शालू जिंदगी में आगे बढ़ने लगे। और इधर मोहित के मां बाप के लिए ये बात पत्थर की लकीर हो गई कि शालू ने एक बेटे को उसके मां बाप से अलग कर दिया था।
पहले फोन से बातें होती। और अब सुख दुख दोनों में ही मोहित की गैरमौजूदगी ने शालू के लिए बद्दुआओं का पिटारा खोल दिया। उधर राजेश बाबू और जया जी अपनी बेटी दामाद और नातिन के साथ खुश थें। न उन्हें अपनी बेटी की अब किसी ज़िद की चिंता थी और न किसी नखरे की फिक्र। बड़े घर वाली बहू ने शादी और ससुराल दोनों के ही अब मायने बदल कर रख दिए थें।
मोहित के पापा की अचानक तबियत खराब हुई। इतनी की “अब तब” की स्थिति आ गई। मोहित के मां को समझ ही नहीं आ रहा था कि वो क्या करे, कैसे करे ? बेटे बहू को फोन किया पर उन्होंने भी इसे किसी मामूली खबर की तरह ही लिया। आईसीयू में भर्ती करवाकर मोहित की मां अपनी बहन के साथ सीधे मंदिर गईं। ईश्वर के सामने आंचल फैला कर प्रार्थना की।
“हे प्रभु !! मुझे नहीं पता , कल क्या होगा पर एक अरज मेरी जरूर सुन लो। एक वरदान दे दो। मेरी बहू को अगली संतान लड़का ही देना। इनके प्राण तो अब तुम्हारी कृपा पर ही हैं। जैसा नियति में होगी, स्वीकार कर लूंगी।”
“दीदी, ये क्या मांग रही हो तुम, भगवान से !! जीजाजी इस हाल में हैं और अपने लिए पोता इस समय क्यों ? पहले से तो शैली है ही। “
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” पोता नहीं मांग रही मैं, मैं तो बहू के लिए बेटा मांग रही हूं। मैं वो दर्द मांग रही हूं, भगवान से जो मैं आज सह रही हूं। भगवान वही दर्द बहू को कल दे। बेटा दे। बहू आए और उसकी बहू से उसे पता चले कि शादी के बाद बहू बेटों को कैसे बदल देती हैं।”
आखिकार, अस्पताल से खबर आई कि मोहित के पापा नहीं रहे। ब्रेन हेमरेज से आईसीयू में ही वो गुजर गए। लाश को आग देने वाला बेटा नदारद था। इस बार मौत की खबर मोहित को नहीं भिजवाई उसकी मां ने। भतीजे ने अंतिम संस्कार किया। श्राद्ध पूजा के दिन मोहित की मां ने अपने स्वर्गीय पति के साथ साथ अपने बेटे बहू का भी श्राद्ध कर दिया। अग्नि के लपटों में एक साथ कई चीज़ें जलकर खाक हो गई………
(पाठकों !! परिवार में सामंजस्य , रिश्तों में मर्यादा और जीवन में समीकरण कभी कभी अत्यंत कठिन होता है। जीवन का सार्थक महत्व बस उस समीकरण को संतुलित रहने में ही निहित होता है। आप सभी की प्रतिक्रिया भी इसी तरह मेरे लेखन के समीकरण को संतुलित करेगी……)
प्रतीक्षा में अमित किशोर
स्वरचित/मौलिक/ अप्रकाशित
साप्ताहिक कहानी #बहू