गैस पर चाय का पानी खौल रहा था और सुमित्रा अपने ही ख्यालों में खोई हुई थी। रोज़ सुबह उसकी दिनचर्या ऐसे ही शुरू होती। सुमित्रा रसोई में आती, चूल्हे पर पानी चढ़ाती और अपने ख्यालों में तब तक खोई रहती जब तक अंदर से उसके पति सुभाष की गुस्से में चिल्लाने की आवाज़ न आ जाती, “कहां मर गई। चाय बना रही हो या आसाम में चाय की पत्तियां तोड़ने चली गई।”
और तब उसकी तंद्रा भंग होती और वो चाय लेकर अंदर जाती तो पति तमतमाया सा अक्सर गर्म-गर्म चाय बेस्वाद कह कर या तो उसके ऊपर फेंक देता या किसी भी बहाने से उसका हाथ गर्म चाय में डाल देता। वो चिल्ला भी न पाती और कसमसा कर रह जाती।
दो ही साल हुए थे शादी को। शादी से पहले माँ के हाथ की तुलसी अदरक वाली जायकेदार बेड टी पिए बिना उसकी नींद ही नहीं खुलती थी। अक्सर सोचा करती कि जब उसकी शादी हो जाएगी तो वो पति को बेड टी देकर उठाएगी और दोनों अपनी बालकनी से मस्त ताज़ी ठंडी हवा के साथ आती मिट्टी की सोंधी सी खुशबू का लुत्फ़ लेते हुए चाय की चुस्कियां लेंगे।
लेकिन उसे पति इतना बददिमाग़, बदलिहाज़ और बदमिज़ाज मिला कि उसके सारे सपने धरे के धरे रह गए। शादी के बाद पहले ही दिन से उसने अपना पुरुषत्व उस पर हावी करना शुरू कर दिया। पिछले दो सालों से यही होता आ रहा था और उसने इस बात की भनक भी अपनी माँ को भी लगने नहीं दी थी। बेड टी का ज़ायका भी भूल चुकी थी सुमित्रा। उसे तो बेड टी के रूप में गालियाँ और जूते-चप्पल ही मिलते रहे सुभाष से और अपने गर्म आँसुओं को वो बेड टी की तरह पी जाती। शायद सुभाष की तरबियत ही ऐसी हुई थी कि गुस्सा उसकी नाक पर धरा रहता था लेकिन सुमित्रा की परवरिश ऐसे हुई थी कि ज़ुल्म करना अगर गुनाह है तो ज़ुल्म सहना भी गुनाह ही है।
उधर चाय का पानी खौल रहा था और इधर सुमित्रा के सब्र का पैमाना छलक रहा था। सुभाष के रोज के ऐसे व्यवहार के बाद उसने सोच लिया था कि वो अब अपनी बेड टी का पुराना वाला ज़ायका वापिस ला कर रहेगी।
तारीकी की गोद से निकले भोर के सूरज की तरह अपनी सोच के अँधेरे से निकल सुमित्रा ने अपनी चाय छान कर कप में डाली और बरामदे में बैठ उसी पुराने ज़ायके का लुत्फ़ लेने लगी। सुभाष अंदर से चिल्लाता रहा और वो बेड टी के उठते धुएँ में अपनी नई सुबह का सूरज उगते देख रही थी।
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