दशहरे की छुट्टियों में बच्चों को साथ लेकर आने का वायदा किया था ,अंकित ने ।
मिश्रा दंपत्ति बहुत खुश थे।
कुछ दिनों के लिए ही सही, घर के एकान्त को चीरने के लिए रौनक आ रही है ।
बहुत बड़ा घर बनाते हुए ,एक सपना पाल लिया था ,मिश्रा जी ने ।
दोनों बहुओं के कमरे में सारी सुविधाएं हों, वह शादी के बाद घर आए, तो कोई असुविधा ना हो ।
दोनों बेटियों के लिए के भी कमरे बनवाए , बच्चों से गुलजार रहने वाले ,मिश्रा जी के घर अतिथियों का भी आवागमन होता रहता ,किसी के भी आगमन पर आनंद की अनुभूति लिए मिश्रा दंपत्ति खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ते ।
धीरे-धीरे बच्चे बड़े होते गए, और संभावनाओं की डोर में बंध ,परदेस रूपी बितान में अठखेलियां खाने लगे ।
शुरू शुरू में घर से लगाव,जल्दी-जल्दी खींच लाता उनको ।
समय के साथ जिम्मेदारियों ने, बच्चों के ,घर की ओर उठे पैर पकड़ने शुरू कर दिए ।
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हर पल घर की रौनक पर पड़ी इंतजार रूपी परत को झाडते़ पोंछते रहते मिश्रा दंपत्ति ।
समय बढ़ता जा रहा था ,और कभी-कभी अचानक कोई बेटा आकर आंखों में खुशियां तैरा जाता ।अचानक पूरा परिवार इकट्ठा हो जाता ,तो मिश्रा दम्पति में गजब का जोश आ जाता ।
अकेले त्योहारों को मनाते हुए अब त्यौहारों ने औपचारिकता का चोला पहन लिया ।
मां के बार-बार कब आओगे पूछने पर ,अंकित ने, परिवार सहित दशहरे पर आने को कहा था ।
एक महीने पहले से हर छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करने वाले इंतजाम बार बार चेक कर लिए गए, नाश्ते के लिए मां ने उत्साह रूपी चाशनी में डुबोकर बहुत चीजें बनाई थी।
मां कुछ भी बनाती, तो बच्चों के पास भेजने का माध्यम तलाशती रहती,
बच्चों के आने की खबर ने गजब की स्फूर्ति जगा दी मिश्रा दंपत्ति के मन पर ।
आसपास सब को बार-बार उत्साह से बता रहे थे दोनों, बच्चे आ रहे हैं इस दशहरे की छुट्टियों में ।
कितने उत्साह से उठाया था ,मिश्रा जी ने फोन और स्क्रीन पर नाम देखकर ,रसोई में चाय बना रही पत्नी को आवाज लगाकर बुलाया,
अरे सुनती हो ,अंकित का फोन आया है ,गैस बंद कर पल्लूं से हाथ पोंछती हुई मिश्राइन आईं, तो चेहरे पर उदासी भरी हंसी में मिश्रा जी को देखकर, पास आकर, बैठ गई ।
फिर धीरे से मिश्रा जी बुदबुदाए, बहू रागिनी के स्कूल में एनवल फंक्शन की वजह से छुट्टी नहीं मिल सकती ,और बच्चों की दशहरे के बाद परीक्षा है आना मुश्किल है। अपना ध्यान रखने का बोला है।
मिश्राइन ने भी मिश्रा जी की बातों में सिर्फ इतना जोड़ा ,यह तो पहले भी पता होगा।
मिश्राजी के एक एक तिनकों से बने उम्मीदों के घोंसले पर शिकारी बिल्ली ने , झपट्टा सा मारा था ।सब कुछ तहस-नहस ।
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उत्साह के उबाल को ठंडा होकर बैठने में पल भर भी ना लगा ।
दोनों में छाया मौन, कुछ बोलने के लिए शब्द तलाशने लगा ।
खुद को खुद समझाने की आदत सी हो गई है ,दोनों में। मिश्रा जी ने मौन की पसरी चादर को हवा दी,
सुनती हो ,तुम्हारी चाय का क्या हुआ, बन गई होगी काढ़ा, पीने लायक बची हो, तो ले आओ ,प्यालियों में, हां साथ में खाने को भी ले आना ,साथ बैठ कर चाय पिएंगे ।
मिश्राइन की भी आवाज गूंज उठी,इतनी तो अक्ल है मुझ में ,गैस बंद करके आई थी ।
दूर होते जा रहे बच्चों के व्यवहार को देखकर दोनों ने तय किया है ,कुछ शिकायतें और फरमाइशें भी आपस में पालेंगें, बचे हुए जीवन को जीने के लिए कुछ आवाजें भी जरूरी है ,चाहें आवाजें अपनी ही क्यों ना हो ।
जया शर्मा प्रियंवदा😊😊