बबूल का पेड़  –  कल्पना मिश्रा

“चुप रह बुड्ढी। कोई काम धाम है नही, बस बैठे-बैठे ताका करती है कि कौन क्या खा रहा ,क्या कर रहा और कहाँ जा रहा है।” बहू ने चिल्लाते हुए कहा तो वह सन्न रह गई। कभी उसका कितना रुआब हुआ करता था। घर के सब सदस्य उसकी आँख के एक इशारे पर चलते थे..पर अब तो सबके लिए बेकार हो गई है। वह अकेले पड़ी ऊबती रहती लेकिन बेटा,बहू उससे बात तक नही करते। बिना बताये ही बाहर चले जाते । खाने के नाम पर उसे रूखा-सूखा खाने को देती,जबकि रसोईघर से आती खुशबू बता देती कि क्या पकवान बना है।इसीलिए तो उसे रसोईघर में जाने की सख़्त मनाही थी। आज उसने इसी बात की शिकायत बेटे से की तो बहू बिगड़ गई और भला बुरा सुना दिया।

दुख इस बात का ज़्यादा हो रहा था कि बेटा वहीं खड़ा अपनी पत्नी को मूक समर्थन देता रहा। उम्र के इस पड़ाव पर आकर बच्चों का दुर्व्यवहार,ऐसे घटिया शब्दों का प्रयोग,,? उसकी आँखों से आँसू बह निकले। अचानक उसकी नज़र दीवार पर लगी सासुमाँ की फोटो पर ठहर गई। आज उनकी मुस्कुराहट व्यंग्यात्मक सी लग रही थी;मानो वह कह रही हों, “अपना वक्त भूल गई बहू? ऐसा ही बर्ताव तुम भी हमारे साथ करती थी ,,तो अब ये आँसू क्यों ?” “ओह,,,” बुदबुदा उठी वह।शायद ये बबूल का पेड़ भी खुद उसी का बोया हुआ था। #वक्त कल्पना मिश्रा कानपुर

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