दसवीं कक्षा में पढ़ने वाली नयना ने अपने कंधे पर स्कूल बैग डाला और ड्राइंग रूम में सोफ़े पर बैठे हिसाब करते हुए अपने भाई प्रशांत को ‘बाय भइया’ कहकर स्कूल के लिये निकलने लगी तो उसकी माँ सरोजनी बोलीं,” रुक…टिफ़िन तो लेती जा..।
” कैंटिन में खा लूँगी माँ…।” कहकर वह बाहर निकल गई।तब सरोजनी जी बेटे के पास आकर बोली,” तेरे प्यार-दुलार के कारण ही उसका दिमाग चढ़ा रहता है।कभी डाँट भी दिया कर…।”
” माँ…अभी बच्ची ही तो है..और फिर आपके लाड़ से मैं तो नहीं बिगड़ा…।” कहकर वह माँ की तरफ़ देखकर मुस्कुराया तो वो बोलीं,” तुम भाई-बहन भी ना…।”
प्रशांत के पिता हरिचरण की कपड़े की दुकान थी।उनकी पत्नी जानकी एक सुघड़ गृहिणी थी।प्रशांत के जन्म के चार साल बाद वो पुनः गर्भवती हुईं।उनका सातवाँ महीना चल रहा था।बरसात के दिन थे।घर के आँगन में पानी भरा देख उन्होंने सोचा कि साफ़ कर देती हूँ, वरना प्रशांत फिसल जायेगा।उन्होंने झाड़ू उठाया और आगे बढ़ी ही थी कि असोरे पर रखी मेज़ के पाये से उनको ठोकर लग गई।वो खुद को संभाल नहीं पाई
और पेट के बल ही गिर पड़ी।हरिचरण दुकान पर थे।माँ को गिरा देख नन्हा प्रशांत ने ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।फिर रोते-रोते ही जाकर अपनी पड़ोस वाली चाची को बुला लाया।
जानकी की हालत देखकर तो पड़ोसिन की चीख निकल गई थी।उन्होंने तुरंत हरिचरण को खबर किया और दो लोगों की मदद से जानकी को लेकर अस्पताल पहुँची लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी।बच्चा तो पेट में ही मर चुका था और जानकी भी अपने पति से इतना ही कह पाई थी,” प्र…शां…।
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क्षण भर में हरिचरण की दुनिया लुट गई थी।बेटे को सीने-से लगाये वो पत्नी के शव से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगे थे।किसी आदमी की औरत मर जाने पर एक तरफ़ चिता जलती है तो दूसरी तरफ़ लोग उसकी शादी के लिये लड़की ढ़ूँढने में लग जाते हैं।हरिचरण के साथ भी ऐसा ही हुआ।उनकी बुआ ने नन्हें प्रशांत को अपनी गोद में ले लिया था लेकिन जब हरिचरण सामने दिखते तो ब्याह की बात अवश्य छेड़ देती थी।
तब वो बेटे के सिर पर हाथ फेरकर कहते,” बुआ..डरता हूँ…कहीं सौतेली माँ…।” तब बुआजी उसे बीच में ही टोककर कहतीं,” यशोदा ने तो कान्हा पर अपने बलराम से अधिक ममता लुटाई थी।”
” पर बुआ…।”
” पर-वर छोड़ और अपने दोस्त सदानंद की बहन सरोजनी से ब्याह करके उसे मुन्ना(प्रशांत) की नई माँ बना दे।” बुआ जी के आदेश को वो टाल नहीं पाये और सरोजनी से विवाह कर लिया।
सरोजनी ने आते ही घर को ऐसे संभाल लिया जैसे बरसों से वहाँ रह रहीं हों।प्रशांत भी उससे जल्दी ही घुल-मिल गया था।बुआ जी कुछ दिनों तक रुककर अपने गाँव लौट गईं।
सरोजनी के साथ प्रशांत का स्नेह देखकर हरिचरण की सारी दुविधाएँ दूर हो गई थी।स्कूल से आकर प्रशांत सीधे अपनी माँ के पास जाता और जब तक अपनी बात कह नहीं लेता, वो सरोजनी को कहीं जाने नहीं देता।
एक दिन सरोजनी प्रशांत को खाना खिला रही थी तो उसने प्रश्न किया,” माँ…तुम अस्पताल कब जाओगी?” सुनकर वो चौंक उठी।उसने कहा,” अस्पताल! मैं भला अस्पताल क्यों जाऊँगी?”
” मेरे दोस्त की माँ अस्पताल से ही उसके लिये बहन लाई थी।तुम भी जाओगी तो मेरे लिये एक बहिन लाओगी ना माँ..।” बेटे की इस भोलेपन पर सरोजनी पास बैठे अपने पति को देखने लगी।उन्होंने भी उसे मुस्कुरा कर देखा जैसे कह रहें हों,” अब तो तुम्हारा डर दूर हो गया ना।”
दरअसल सरोजनी तीन महीने से गर्भवती थीं।उन्हें डर था कि प्रशांत आने वाले बच्चे को स्वीकार करेगा या नहीं।आज तो उसने स्वयं ही बहन की डिमांड कर दी तो उनका भय जाता रहा।
नौ महीने पूरे होते ही सरोजनी ने एक बेटी को जनम दिया।अस्पताल में देखते ही प्रशांत बोला,” माँ देखो…इसकी आँखें कितनी बड़ी-बड़ी हैं..इसका नाम नयना रख दे…।” उसी दिन से प्रशांत की बहन का नाम नयना रखा गया।
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प्रशांत अब स्कूल से सीधे घर आता।वह नयना के साथ खेलता और बातें करता।नयना की उँगली पकड़कर चलाने में उसे बहुत आनंद आता था।एक दिन तो उसने अपनी माँ को ही टोक दिया,” माँ..ऐसे कंघी मत करो..नयना के बाल टूट जायेंगे..लाइये..मैं कर देता हूँ।” और तब सरोजनी ने उसकी नज़र उतारी थी।
देखते-देखते प्रशांत ने काॅलेज़ में दाखिला ले लिया।वह बीकॉम के द्वितीय वर्ष में था कि एक दिन अचानक रात को उसके पिता अपने दिल पर हाथ रखकर दर्द से कराह उठे।सरोजनी घबरा गई।उन्होंने बेटे को आवाज़ दी।एंबुलेंस बुलाकर प्रशांत उन्हें अस्पताल ले गया।डाॅक्टर ने बहुत कोशिश की लेकिन…।बेटे के हाथ में नयना का हाथ देकर इतना ही बोल पाये थे,” बाबुल बनकर विदा कर..।”
प्रशांत ने पढ़ाई छोड़कर पिता की दुकान संभाल ली और घर का मुखिया बन गया।नयना की हर छोटी- बड़ी इच्छा को पूरी करना उसकी प्राथमिकता होती थी।नयना भी अपने भाई पर जान देती थी।स्कूल जाने से पहले भाई को बाय करना उसका नियम बन गया था।दसवीं कक्षा में आने के बाद भी वह अपने भाई को ‘बाय भइया’ कहना नहीं भूली थी।
नयना की दसवीं बोर्ड की परीक्षा होते ही सरोजनी जी ने अपने ही एक परिचित की बेटी सुलेखा के साथ प्रशांत का विवाह करा दिया।
बारहवीं के बाद प्रशांत ने नयना का आर्ट्स काॅलेज़ में नाम लिखवा दिया।नयना काॅलेज़ की सारी बातें अपनी भाभी से शेयर करती थी।एक दिन उसने अपनी भाभी को बताया कि फाइनल ईयर में रजत नाम का लड़का है जो बहुत हैंडसम है।सुलेखा ने उसकी बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया।कुछ दिनों के बाद नयना ने अपनी भाभी को बताया कि आज उसने रजत के साथ कैंटिन में चाय पी।इसी तरह से वह अपनी भाभी से रजत के बारे में ढ़ेर सारी बातें करने लगी।
सुलेखा समझ गई कि रजत की ओर नयना का झुकाव बढ़ता ही जा रहा है।उसने सारी बातें प्रशांत को बताई।प्रशांत ने रजत के बारे में पूरी छानबीन की तो पता चला कि वह शहर के नामी बिजनेसमैन का बेटा है और काॅलेज़़ में उसका रिकार्ड बहुत खराब है।
एक दिन समय निकालकर प्रशांत ने नयना को रजत के बारे में बताया और कहा कि उससे दूर रहे…अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे।सरोजनी ने भी बेटी को प्यार-से समझाया कि अपने भाई की बात मान ले…वो तेरा बुरा कभी नहीं चाहेगा।उस वक्त तो नयना ने हाँ कह दिया लेकिन इस उम्र में तो दिल पर ज़ोर चलता नहीं।रजत के काॅलेज़ छोड़ने के बाद भी वह उससे मिलती रही।
नयना को लेकर प्रशांत की चिंता बढ़ने लगी लेकिन उसके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया।अब तो वह अपने भाई को जवाब भी देने लगी थी।तब सरोजिनी जी ने बेटे से कहा,” आज ही मैं इसका काॅलेज़ बंद करा कर घर में बिठा देती हूँ…।तू अपनी पहचान में कोई लड़का देख ले…इसे यहाँ से विदा करके मैं गंगा नहाऊँ।”
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तब प्रशांत बोला,” माँ…तुम शांत हो जाओ..नयना मेरी बहन है और मुझे उस पर पूरा विश्वास है।पापा के मित्र किशनलाल अंकल है ना…उनका बेटा अभिषेक बैंगलुरु के एक आईटी कंपनी में काम करता है।उसे हमारी नयना बहुत पसंद है।अगले महीने नयना के फाइनल परीक्षाएँ हैं, खत्म होते ही दोनों एक-दूसरे को देख लेंगे और फिर शादी…।”
नयना पर रजत पूरी तरह से हावी हो चुका था।उसने सोच लिया था कि भाई तैयार न हुए तो वह रजत के साथ भाग जायेगी।परीक्षा खत्म होते प्रशांत ने अभिषेक को बुलाया।बेमन से नयना अभिषेक से मिली।अभिषेक के जाने के बाद प्रशांत ने कहा,” नयना..अगले महीने अभिषेक के साथ तुम्हारा विवाह है।माँ और अपनी भाभी के साथ जाकर शाॅपिंग कर लेना।” सुनते ही नयना विफ़र गई,” आखिर आपने अपना सौतेलापन दिखा ही दिया।
आपकी सगी बहन होती तो उसकी पसंद को स्वीकार कर लेते लेकिन मैं तो सौते…।”
” चुप हो जा नयना…।” सरोजनी चीखी और बेटी को थप्पड़ मारने के लिये हाथ उठाया ही था कि प्रशांत बीच में आ गया,” नहीं माँ…नयना को खरोंच भी आयेगी तो मुझे दर्द होगा।” सरोजनी रो पड़ी थी लेकिन नयना का दिल नहीं पिघला।
घर में शादी की तैयारियाँ होने लगी जिसे नयना बेमन-से निभाती चली जा रही थी।प्रशांत ने माँ और सुलेखा को कह दिया था कि कपड़े-गहने सब नयना की पसंद के होने चाहिए।दिन-भर के कामों से थक कर जब वह अपने कमरे में जाता तो पत्नी से कहता,” सुलेखा…मेरी नयना चली जायेगी तो ये घर कितना सूना हो जायेगा और उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते।तब सुलेखा उसे चुप कराते हुए कहती,” आज ही सब बहा देंगे तो विदाई के दिन…।”
देखते-देखते विवाह का दिन भी निकट आ गया।नयना की सहेली रीमा उससे मिलने आई तो उसने लपककर उससे रजत के बारे में पूछा।तब रीमा बोली,” तू बाल-बाल बच गयी नयना।रजत रईस बाप की बिगड़ी औलाद है।वो तेरे साथ तो टाइम पास कर रहा था।आजकल वो रीतू नाम की लड़की के साथ…।इसके आगे वह सुन न सकी।दौड़ कर वो अपनी माँ के पास गई और उनके गले लगकर फूट-फूटकर रोने लगी।
प्रशांत और सुलेखा ने नयना का हाथ अभिषेक के हाथ में देकर कन्यादान की रस्म पूरी की।विदाई की घड़ी आ गई।नयना रोते हुए अपनी माँ, भाभी, सहेलियों से गले मिलकर विदा ले रही थी लेकिन उसकी आँखें अपने उस भाई को खोज रही थी जिसने बाबुल बनकर उसका कन्यादान किया था।सभी प्रशांत को पुकार रहे थे और प्रशांत…वो तो अपने पिता की तस्वीर के आगे खड़ा रो रहा था,” पापा..मैंने नयना को अपनी गोद में
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खिलाया है..उसे विदा कैसे करुँ…।” तभी पीछे-से आकर दुल्हन बनी नयना ‘ भइया..मुझे माफ़ कर दो’ कहते हुए प्रशांत से लिपट पड़ी।दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे।प्रशांत ने नयना को गाड़ी में बिठाया और हाथ जोड़कर अभिषेक से बोला,” मेरी बहन से कोई भूल हो जाये तो माफ़..।” उसके आँसुओं ने बात पूरी कर दी।साथ खड़े लोग कहने लगे, प्रशांत ने एक बाबुल का फ़र्ज़ निभाया है। उधर लाउडस्पीकर पर गाना बज रहा था,” बाबुल का ये घर बहना, कुछ दिन का ठिकाना है…।”
विभा गुप्ता
# बाबुल स्वरचित, बैंगलुरु
पिता का साया न हो तो भाई ही बाबुल का फ़र्ज़ निभाता है।प्रशांत ने भी यही किया…अपनी बहन को बेटी की तरह प्यार दिया और बाबुल बनकर उसे डोली में बिठाया।