बाऊजी के लिये खाने की थाली लगाना आसान काम नहीं था।उनकी थाली लगाने का मतलब था-थाली को विभिन्न पकवानों से इस तरह सजाना मानो ये खाने के लिए नहीं बल्कि किसी प्रदर्शनी में दिखाने के लिए रखी जानी हो। सब्ज़ी,रोटी,दाल सब चीज़ व्यवस्थित तरीके से रखी जाती।
घर मे एक ही किनारे वाली थाली थी और वो थाली बाऊजी की थी।खाने की हर सामग्री की अपनी एक जगह थी बाऊजी की थाली में।मजाल है कोई चीज़ इधर से उधर रख दी जाये।दो रोटी, उसके एक तरफ दाल, फिर कोई भी सब्ज़ी, थोड़े से चावल और उसके साथ कोई भी मीठी चीज़। मीठे के बिना बाऊजी का खाना पूरा नहीं होता था।
पहले घर में कुछ ना कुछ मीठा बना ही रहता था और यदि न हो तो शक्कर , घी बूरा मलाई कुछ भी हो लेकिन मीठा बाऊजी की थाली की सबसे अहम चीज थी और दूसरी अहम चीज़ थी पापड़। पापड़ का स्थान रोटी के ठीक बगल में होता था जो कि लंबे समय तक नहीं बदला। बस घर के बने पापड़ की जगह बाजार के पापड़ ने ले ली थी।
अचार का बाऊजी को शौक नहीं था। हाँ, कभी कभार धनिया पुदीने की चटनी जरूर ले लिया करते थे। दही बाबूजी को पसंद नहीं थी लेकिन रायता तो उनकी जान थी फिर चाहे वह बूंदी का हो या घीया का और रायता थाली में पापड़ के ठीक साथ विराजमान रहता था।
मणि को तो शुरु शुरु में बहुत दिक्कतें आई।काफी समय तक तो नई बहू को यह जिम्मेदारी दी ही नही गई लेकिन फिर जब-जब सासू माँ बीमार रहती थी या घर पर नहीं होती थी तो बाऊजी को खाना खिलाने की जिम्मेदारी मणि पर आ जाती।खाना बनाने में तो मणि ने महारथ हासिल कर रखी थी लेकिन बाऊजी के लिए खाने की थाली लगाने में उसके पसीने छूटने लगते।कभी कुछ भूल जाती तो कभी कुछ और कभी-कभी तो हड़बड़ाहट में कुछ न कुछ गिरा ही देती।
एक बार तो थाली लगाकर जैसे तैसे बाऊजी के सामने रखी।बाऊजी कुछ सेकंड थाली को देखते रहे फिर समझ गए कि आज उनकी धर्मपत्नी घर पर नहीं है। फिर चुपचाप खाना खाकर चले गए।
“माँ जी, यह कैसी आदत डाल रखी है आपने बाऊजी को। इतना समय खाना बनाने में नहीं लगता है जितना समय उनकी थाली लगाने में लगता है” उस दिन झल्ला सी गई थी मणि।
“मैं क्यूँ आदत डालूंगी मैं तो खुद इतने साल से इनकी इस आदत को झेल रही हूँ।” सासू माँ ने मुस्कुराकर जवाब दिया।
“तो बाऊजी हमेशा से ऐसे थे?”
“हाँ, बचपन से ही। सात भाई बहनों में सबसे छोटे थे। माँ के लाडले थे। खाना सही से नहीं खाते थे तो मेरी सास थाली में अलग अलग तरह के पकवान रखकर लाती थी कि कुछ तो खा ही लेंगे और फिर धीरे-धीरे तेरे बाऊजी को ऐसी ही आदत पड़ गई।उसके बाद मैं आई। पहले पहल मुझे भी बहुत परेशानी हुई। थाली में कुछ भी उल्टा-पुल्टा होता था तो तुम्हारे बाऊजी गुस्सा हो जाया करते थे। वैसे स्वभाव के बहुत नरम थे लेकिन शायद खुद ही अपनी इस आदत से मजबूर थे।
अव्यवस्थित थाली उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी। शुरू-शुरू का डर मेरी भी आदत में ही बदल गया और बाद में तो कुछ सोचना ही नहीं पड़ता था। हाथों को हर चीज अपनी जगह पर रखने की आदत पड़ गई थी।”
मणि भी अपनी सासू माँ की तरह धीरे-धीरे आदी हो गई। अपने पूरे जीवन काल में बाऊजी ने कभी किसी चीज की अधिक चाह नहीं की थी। संतोषी स्वभाव के थे लेकिन भोजन के मामले में समझौता नहीं करते थे। बहुत अधिक खुराक नहीं थी। थाली में प्रत्येक चीज़ थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ही होती थी। मणि तो कई बार हँसकर बोल दिया करती थी कि बाऊजी को खाने में क्वांटिटी(quantity) नहीं वैरायटी(variety) चाहिए।बचपन में बेटे के प्रति लाड दिखाती माँ से लेकर बुढ़ापे में अपनी जिम्मेदारी निभाती बहु तक के सफर ने थाली के अस्तित्व को बरकरार रखा।
समय बीतता गया। अब मणि खुद सास बन चुकी थी। सासू माँ का देहांत हो गया था।बाऊजी भी काफी बूढ़े हो चले थे। ज्यादा खा-पी भी नहीं पाते थे।समय के साथ थाली की वस्तुएं व आकार दोनों ही घटते गए। अपने अंतिम दिनों में अक्सर बाऊजी भाव विह्वल होकर मणि के सिर पर हाथ रख कर बोल पड़ते कि अब मेरी आत्मा तृप्त हो चुकी है।
बाऊजी का स्वर्गवास हुए पाँच साल हो गए थे। आज भी श्राद्ध पक्ष की अमावस्या पर उनके लिए थाली लगाई जाती जिसमें पहले की तरह सभी चीजें व्यवस्थित तरीके से होती हैं। बाऊजी की आत्मा का तो पता नहीं लेकिन मणि का मन जरूर तृप्त हो जाया करता है।