Moral Stories in Hindi : शुभदा और वाणी दो सहेलियाँ थीं। दोनों एक शहर के टॉप स्कूल में पढ़ रहीं थी। जहाँ वाणी के पिता एक सीनियर इंजीनियर थे वहीं सुभदा के पिता इलेक्ट्रीशियन फिटरमैन थे।
अर्थात दोनों के जीवन स्तर में काफी अंतर होना लाजिमी था। फिर भी दोनों सहेलियों के बीच अपार घनिष्ठता थी।
लेकिन वाणी के पिता मिस्टर जगत प्रकाश रायजादा को दोनों सहेलियों के रिश्ते खटकते थे।
वे वाणी को हमेशा सुभदा से दूरी बनाकर रखने की सलाह देते थे। फिर भी वाणी और शुभदा की दोस्ती कम नहीं हुई। वक्त बीतता रहा वाणी और शुभदा प्राथमिक, फिर माध्यमिक स्कूल से निकलकर हाईस्कूल में चली गईं।
दोनों की दोस्ती अभी भी वैसे ही कायम थी।
देखते ही देखते यह वक्त भी बीत गया। दोनों सहेलियाँ अब कॉलेज में पहुँच गईं थी। उनकी दोस्ती की लोग मिसालें दिया करते थे।
वाणी कहती किसी की नजर ना लगे हमारी दोस्ती को! आजकल लोग हमारी दोस्ती को नजर लगाने पर तुले हैं।
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शुभदा वाणी की बात पर हँसने लगती थी।
वाणी के पिता अभी भी वाणी को समझाते रहते थे, बेटा दुनिया अवसरवादी है जरा आँखें, कान खुले रखना।
वाणी कभी-कभी अपनी क्षमता से अधिक शुभदा की मदद किया करती थी।
कभी-कभी तो ऐसा भी करती कि शुभदा को नंबर वन रैंक पर लाने के लिए वह जान बूझकर प्रतियोगिता या फिर परीक्षाओं में कमतर परफॉर्मेंस करती ताकि शुभदा उससे आगे रहे।
शुभदा उसको अपनी कामयाबी समझ कर इतराती थी।
जब भी वाणी ऐसा करती थी, शुभदा को भनक भी नहीं लगने देती थी क्योंकि वो चाहती थी यह बात शुभदा को पता ना चले कि वह जानबूझकर उससे पीछे हुई है और शुभदा उसको हमेशा अपनी जीत ही समझती थी।
वक्त बीतता रहा इनका स्नातक भी पूरा हो गया था। चूंकि पढ़ने में दोनों ही सहेलियाँ अच्छी थीं।
वाणी जान बूझकर अपने आप को पीछे धकेल रही थी।
शुभदा इसे अपनी काबिलियत मान बैठी थी। धीरे-धीरे अपनी इस उपलब्धि का नशा शुभदा पर हावी होने लगा था।
वह यह भूलने लगी थी कि कोई उसकी अजीज मित्र भी है और इस बात से तो पहले से ही अनजान थी कि उसकी सफलता भी किसी की मेहरबानियों का ही नतीजा है ना कि उसकी अकेले की करामात!
कुछ ही दिनों में उनका स्नातकोत्तर भी पूरा हो गया था। इसके तुरंत बाद ही शुभदा का राज्य आयोग में बतौर अधिकारी सिलेक्शन भी हो गया था।
अब वाणी और शुभदा की मेल-मुलाकात भी ना के बराबर हो गई थी।
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कभी चार-छः माह में फोन पर बात हो जाती।
शुभदा स्वयं से कभी फोन नहीं लगाती थी। वाणी ही हमेशा फोन लगाती थी। उस पर भी जब शुभदा की इच्छा होती तो बात कर लेती अन्यथा कभी बिजी शेड्यूल तो कभी कुछ बहाना करके फोन काट देती या फोन ही नहीं उठाती थी।
वाणी सोचती अवश्य ही किसी की नजर लग गई है हमारी दोस्ती को।
कुछ ही दिनों बाद वाणी की भी उसी विभाग में नौकरी लग गई जहाँ शुभदा कार्यरत थी।
लेकिन अधिकारी की पोस्ट ना पाकर उसे क्लर्क की पोस्ट मिली थी।
वाणी ने सोचा फालतू बैठे रहने से तो बेहतर है क्यों ना यही जॉब ले लूँ फिर अच्छी सी जॉब मिलते ही दूसरी जगह ज्वाइनिंग ले लूँगी।
वाणी को शुभदा का साथ मिलेगा उसकी प्रसन्नता का एक कारण यह भी था।
लेकिन ये विचार उसके मन में कभी आया ही नहीं था कि शुभदा वहाँ ऑफिस में वाणी की अधिकारी है!
उसके लिए तो वह पुरानी वाली शुभदा ही थी।
माना कि ऑफिस के कुछ प्रोटोकॉल होते हैं। वहाँ शुभदा द्वारा वाणी की उपेक्षा करना, हमेशा उसे देखकर अनदेखा करना तो चलता था।
शुभदा अपने वरिष्ठ, कनिष्ठ और समकक्ष सभी अधिकारी-कर्मचारियों से बात करती थी लेकिन वाणी को नजरंदाज कर देती थी। वाणी सोचती शुभदा इसलिए बात नहीं करती होगी क्योंकि शायद वह नहीं चाहती कि लोगों को पता चले कि वे बहुत अच्छी सहेलियाँ हैं।
वाणी सोचने लगी कि वो जल्द ही अपना कहीं और ट्रांसफर करवा लेगी ताकि शुभदा को परेशानी ना हो!
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दिक्कत तो तब हुई जब शुभदा अपने मोहल्ले में भी वाणी को अनदेखा करने लगी। इतना ही नहीं वाणी की बेइज्जती भी करने लगी। अपने को श्रेष्ठ बताने लगी यह कहकर कि पढ़ाई-लिखाई किसी के पिता के पैसों या अमीरी पर निर्भर नहीं करती बल्कि यह अपनी लगन और मेहनत से मिलने वाला फल है।
गरीब माता-पिता की संतान भी ठान लें तो बहुत कुछ कर सकते हैं।
और पैसे वालों के बच्चे वहीं चपरासी बनकर पानी पहुँचायेंगे।
यह बात वाणी के दिल में नश्तर सी चुभो गई। वह घर पर आकर अपने बिस्तर में लेटकर बहुत रोई।
जब यह बात उसके पिता को पता चली तब उन्होंने कहा,,, बेटा मैं तो पहले ही कहता था, कुछ रिश्ते मतलबी होते हैं! अपना काम निकल गया तो दूसरों को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं।
वैसे अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। उस नौकरी से तुम इस्तीफा दे दो।
अपने फार्म भरते रहो, देखना तुम्हें एकदिन बहुत अच्छी नौकरी मिलेगी।
अपने पिता के कथनानुसार वास्तव में वाणी ने वहाँ त्यागपत्र दे दिया। कुछ ही दिनों बाद सचमुच वाणी की नियुक्ति भी बतौर ऑफिसर हो गई वह भी शुभदा से उच्च पद पर!
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अनिला द्विवेदी तिवारी
जबलपुर मध्यप्रदेश