औलाद के मोह के कारण वह सब सह रही थी – दीपा माथुर : Moral Stories in Hindi

दुर्गा – नाम ही नहीं, उसका स्वभाव भी वैसा ही था। पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर सोच की महिला। बचपन से ही किसी पर बोझ बनना नहीं सीखा था। स्कूल में जब किसी दोस्त के पास फीस भरने के पैसे नहीं होते, तो वह अपनी गुल्लक तोड़ देती। उसके लिए दूसरों का दर्द बाँटना कोई अहसान नहीं, इंसानियत थी।

शादी के बाद वह एक छोटे शहर के एक मध्यमवर्गीय परिवार में आ गई। ससुराल में किसी को उसकी पढ़ाई या सोच से कोई मतलब नहीं था। वहां बस एक ही अपेक्षा थी—”बहू को चुप रहना चाहिए, जो दिया जाए उसमें खुश रहना चाहिए।”

पति—एक प्राइवेट कंपनी में काम करने वाला, घर से दूर शहर में पोस्टिंग थी। महीने में एकाध बार आना-जाना होता। धीरे-धीरे, दुर्गा को लगने लगा कि वह सिर्फ एक ‘हाउसकीपर’ बनकर रह गई है। कोई बात करे, न सुने, न समझे। दिन भर काम और रात को ताने। माँ बनने के बाद जब बेटे को गोद में उठाया, तो मानो सब कुछ सहने की शक्ति एकत्रित हो गई।

घटना – एक दिन का संघर्ष

एक सुबह की बात है। बेटे को स्कूल छोड़कर दुर्गा सब्ज़ी लेने निकली। रास्ते में देखा—स्कूल के बाहर कुछ अभिभावक खड़े होकर किसी महिला से बहस कर रहे थे। पास जाकर देखा, तो पता चला—एक विधवा महिला जो स्कूल में सफाई का काम करती थी, उसके बेटे को फीस ना भरने के कारण क्लास से बाहर निकाल दिया गया था।

दुर्गा का मन काँप उठा। वो बच्चा फर्श पर बैठा रो रहा था—”माँ, मैं पढ़ूंगा… माँ, गलती मेरी नहीं है।”

लोग देख रहे थे, कुछ ताने मार रहे थे, लेकिन कोई आगे नहीं आया। दुर्गा ने तुरंत उस महिला को उठाया और अंदर प्रिंसिपल केऑफिस ले गई।

“सर, क्या आप इस बच्चे की पढ़ाई रोक देंगे सिर्फ इसलिए क्योंकि इसकी माँ झाड़ू लगाती है? ये बच्चा कल बड़ा होकर अगर डॉक्टर बना, तो शायद हमारे बच्चों की जान बचाएगा। इसे क्लास से बाहर करके आप क्या सिखा रहे हैं?”

प्रिंसिपल झेंप गया। कुछ देर बाद बच्चे को वापस क्लास में भेजा गया। लेकिन बात यहीं नहीं रुकी।

दुर्गा ने स्कूल में पहल की—एक ‘मदद फंड’ की, जहाँ हर महीने अभिभावक 50 रुपए जमा करेंगे, जिससे जरूरतमंद बच्चों की फीस भरी जा सके। शुरुआत में कुछ लोगों ने मुँह बनाया, लेकिन धीरे-धीरे समर्थन बढ़ा। अब हर बच्चा क्लास में बराबर था, चाहे उसकी माँ झाड़ू लगाए या गाड़ी चलाए।

उस दिन घर लौटते वक्त बेटे ने पूछा,

“माँ, तुमने आज किसी को सुपरहीरो की तरह बचाया। क्या मैं भी बड़ा होकर तुम्हारे जैसा बन सकता हूँ?”

दुर्गा की आँखें भर आईं। उसके सारे जख्म जैसे भर गए।

समय बीतता गया। दुर्गा अब पहले जैसी चुप नहीं रही। उसने अपने मोह को अपनी शक्ति बना लिया। वो स्कूल के ‘मदद फंड’ की नियमित सदस्य बन गई, बच्चों के बीच किताबें बाँटना, कमजोर विद्यार्थियों को पढ़ाना उसका रोज़ का काम हो गया था।

पर उसका सबसे बड़ा सपना था—अपने बेटे को ऐसा इंसान बनाना, जो सिर्फ पढ़ा-लिखा न हो, बल्कि दूसरों के लिए भी जीना सीखे।

रात को जब वो बेटे को कहानियाँ सुनाती, तो राजकुमार और परी की जगह कहती—”एक लड़का था जो दूसरों के आंसू देखकर मुस्कुराना भूल जाता था, और तब तक कुछ खाता नहीं था जब तक किसी का दुख कम न कर दे।”

बेटा, अब दस साल का हो चला था। एक दिन स्कूल में ‘स्पोर्ट्स डे’ था। सारे बच्चे एक-दूसरे को धक्का दे रहे थे कि पहले नाम लिखा जाए दौड़ में। लेकिन एक कोने में बैठा एक लड़का चुपचाप सब देख रहा था।

दुर्गा का बेटा—आरव—उसके पास गया। पूछा, “तुम क्यों नहीं दौड़ रहे?”

लड़का बोला, “मेरे पास जूते नहीं हैं। दौड़ते वक्त सब हँसते हैं मेरे पैरों को देखकर।”

आरव चुप रहा। फिर उसने अपनी पर्ची फाड़ी, और बोला—”तुम दौड़ो। मैं तुम्हारी चीयरिंग करूँगा। मेरी मम्मा कहती हैं, किसी को हरा कर जीतने से बड़ी बात है—किसी को साथ लेकर उसे जिताना।”

वो बच्चा दौड़ा, और चौथे नंबर पर आया। लेकिन उस दिन सबसे ज़्यादा तालियाँ उसी के लिए बजीं। क्योंकि आरव ने तालियाँ बजाने की शुरुआत की थी।

शाम को जब दुर्गा ने ये सुना, तो आँखों में आँसू भर आए। उसने बेटे को गले लगाकर कहा,

“बेटा, तूने मेरा जीवन सफल कर दिया। तूने वो कर दिखाया जो मैंने तेरे लिए चाहा था—दूसरे के जूते न देखना, उनके ज़ख्म देखना।”

आरव मुस्कुराया और बोला,

“माँ, जब तुम दूसरों के लिए रोती हो, तो मैं सीखता हूँ। जब तुम किसी को हँसाने के लिए चुपचाप अपने आँसू छुपा लेती हो, तो मैं समझता हूँ। तुम मेरी सबसे बड़ी टीचर हो, माँ।”

आरव अब संवेदनशील और समझदार हो चला था, और उसकी परवरिश का श्रेय पूरे गाँव में दुर्गा को मिलने लगा था। लेकिन एक कोना अब भी ऐसा था, जहाँ दुर्गा का संघर्ष जारी था—उसका ससुराल।

सास हमेशा ताने देती—

“बहू कितनी भी पढ़-लिख जाए, घर का काम ही करना पड़ता है। माँ बनने से औरत की दुनिया रसोई और परवरिश में ही सिमट जाती है।”

और ससुर का साफ कहना होता—

“घर की औरत को बाहर की दुनिया में क्या जरूरत है? घर संभालो, चुपचाप रहो। समाज बदलने का काम मर्दों का है।”

दुर्गा चुप थी, लेकिन असहाय नहीं। उसे पता था, हर परिवर्तन को वक्त और दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है।

एक दिन मौका आया।

गाँव के स्कूल में एक ‘पेरेंट्स-अवेयरनेस सेमिनार’ रखा गया, जहाँ दुर्गा को बोलने के लिए बुलाया गया। सास और ससुर भी भीड़ में मौजूद थे, यह दुर्गा को पता नहीं था।

मंच पर खड़े होकर उसने कहना शुरू किया—

“आज हम बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर और अफसर तो बना रहे हैं, लेकिन क्या हम उन्हें अच्छा इंसान बना रहे हैं? क्या हम उन्हें यह सिखा रहे हैं कि किसी मजदूर की थाली भी उतनी ही पवित्र है जितनी किसी ऑफिसर की? क्या हमने अपने घरों में यह माहौल बनाया है जहाँ बेटे अपनी बहनों से सीखें, और दादी अपनी बहुओं से?”

भीड़ शांत थी। दुर्गा की आँखें थोड़ी नम थीं, लेकिन आवाज़ दृढ़।

“मुझे सिखाया गया था कि बहू को सहना पड़ता है। पर मैंने सोचा, क्यों न समझाया जाए? और मैंने समझाना शुरू किया, सबसे पहले अपने बेटे को… ताकि वो एक दिन सबको समझा सके।”

तालियाँ गूंज उठीं।

सभा के बाद जब दुर्गा घर लौटी, तो दरवाज़े पर खड़े उसके सास-ससुर ने उसे रोका।

सास ने कहा—

“बहू, तुझसे बहुत कुछ सीखना बाकी है… और हमें अब सीखने की शर्म नहीं।”

ससुर ने गला साफ करते हुए कहा—

“हमने तो सोचा था तू घर की औरत है, पर तू तो पूरे समाज की बेटी निकली। आज गर्व है कि तू हमारी बहू है।”

उस दिन पहली बार, दुर्गा के हाथ की चाय सास ने खुद ले जाकर ससुर को दी, और बोली—

“अब यह घर साथ में चलेगा, किसी के सिर पर बोझ रखकर नहीं।”—एक माँ जब खुद की पीड़ा को छुपाकर अपने बच्चे के सामने संवेदना, साहस और सेवा का पाठ पढ़ाती है, तो वह आने वाली पीढ़ियों को एक बेहतर इंसान बना देती है। ओलाद के मोह में जो सहन किया गया वह व्यर्थ नहीं गया—उसने एक सुंदर सोच वाला इंसान जन्म दिया।

ओर

 

परिवर्तन कभी झगड़े से नहीं होता, वह समझ से आता है। दुर्गा ने सिखाया कि बहू अगर विद्रोह नहीं करती, इसका मतलब यह नहीं कि वह कमज़ोर है। वह जब बोलती है, तो पीढ़ियाँ सुधर जाती हैं।

दीपा माथुर

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