अटूट बंधन -Top 10 moral stories in hindii

Top 10 moral stories in hindi :  दोस्तों आपको इसमे 10 चुनिन्दा दिल को छु जानी वाली 10 कहानियाँ पढ़ने को मिलेगी

अटूट बंधन

जल्दी करो बारात आती होगी जयचंद जी बौखलाए हुए इधर – उधर घूम रहें थें ।आज उनकी इकलौती बेटी की शादी है वो कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे । माथे से पसीना पोंछते हुए दरवाज़े पे निहारते हुए कश्मकश में खोए एक बाप की जिम्मेदारी निभा रहे थे । एक माँ- बाप के लिए बेटी की शादी कितने सुकून की बात होती है । लेकिन उससे पहले की चिंता चिता समान होती है । कहीं कोई गलती ना हो जाए ! जब बारात आई , तो सब दूल्हे को देख बाते बनाने लगे । जयचंद जी क्या देख के शादी कर रहे है ??? लड़की कितनी सुंदर है और लड़के को देखो पक्के रंग का है ! इन्ही सब बातों के बीच जय माला हो गई , सब रस्में भी संपन्न हो गई । लेकिन लोगो की सरगोशी से जय चंद जी काफ़ी हताश हुए । हमारे देश में लोगो के पास कितना ख़ाली समय है , जो बस दूसरो की बुराई में ही लगे रहते है । लोगो की बातों को नजर अंदाज करते हुए वो अपने काम में लग गए ।

स्टेज पे फोटो खिंचाने का कार्यक्रम चल रहा था । तभी एक आंटी शगुन का लिफ़ाफ़ा देने आयी और शालू के कान में फुसफुसाने लगी और बोली बेटा … तुमने क्या देख के लड़के से शादी के लिए हाँ की थी ! ये सब बाते जब पास खड़े रजत ने सुनी , तो रजत को हंसी भी आ रही थी और बुरा भी लग रहा था , कि आज भी हमारे समाज में रंग -रूप , धर्म-जाति के नाम पर कितना भेद भाव किया जाता है । रजत को बुरा ना लगे इसलिए शालू बोली “ आंटी शक्ल – सूरत ही सब कुछ नहीं होती ! इंसान का आचरण , उसकी सोच मायने रखती है “। मेरे पापा ने रजत को मेरा जीवन साथी चुना है तो कुछ सोच समझ के ही चुना होगा । जब हम दोनों के मम्मी- पापा हम दोनों को एक आँख से देखते है , तो आप कौन होती है ये पक्षपात करने वाली । ये सुन आंटी जी की बोलती बंद हो गई और लिफाफा पकड़ा अपना सा मुँह लिए चली गई ।

#एक आँख से देखना

स्वरचित रचना

स्नेह ज्योति a

 

*कुंँआ*

एक परती(खाली) जमीन के टुकड़े पर कुंँआ खोद रहे छेदी और उसके साथ काम कर रहे तीनों मजदूरों को प्यास ने विवश कर दिया था पानी तलाशने के लिए। घड़ा में रखा हुआ पानी भी समाप्त हो गया था। गैतों और फावड़ों की समवेत ध्वनि बन्द हो गई थी। इस खुदाई में छेदी और उसके मजदूर साथी कुंँए से बाहर निकल आए थे।

बाहर प्रचंड धूप व लू की तपिश से उनका हलक सूख रहा था। उनके शरीर से पसीना का झरना फूट पड़ा था।

छेदी ने उस पिछड़े हुए गांव के सुनसान टोलों की ओर अपनी दृष्टि दौड़ाई किन्तु प्यास बुझाने का कोई साधन वहांँ मौजूद नहीं था।एक हैंड-पम्प दिख रहा था, वह बर्षों से खराब पड़ा हुआ था। कुंँआ खुदाई करवाने वाले मालिक का भी उस वक़्त तक कहीं अता-पता नहीं था।

अचानक छेदी को याद आया कि पाँच-सात वर्ष पहले इसी टोला में उसने एक कुंँआ खोदा था।

कुछ मिनट में ही अपने साथियों के साथ छेदी उस जाति विशेष के कुएंँ पर पहुंँच गया।

कुंँआ उस घर के दरवाजे के बगल में थोड़ी दूरी पर स्थित था। उसके मुड़ेर पर डोरी-बाल्टी भी रखी हुई थी।।

छेदी ने चीते की फुर्ती से एक बाल्टी शीतल जल कुंँएं से निकाला। वह अपने एक साथी के अंजुरी में पीने के लिए पानी उड़ेलना ही चाह रहा था कि यकायक दरवाजा खटाक से खुला, इसके साथ ही एक कर्कश ध्वनि ने छेदी को पानी से भरी बाल्टी को नीचे रखने के लिए मजबूर कर दिया।

“तुम लोगों को अपने मन में जरा भी सोच, विचार नहीं है.. छीः! छीः!.. सब चौपट करके रख दिया.. बाल्टी भी नई थी..”

“मांँजी!.. मैंने कौन सा अपराध कर दिया..”

“चुप!.. कहांँ से बिना पूछे-माते कुंँएं पर पहुंँच जाते हैं।.. उसी वक्त मैंने कहा था अपने मालिक(पति) से कि बाउंड्री वाल दिलवा दीजिए नहीं तो यह कुंँआ पनशाला बन जाएगा और घर मुसाफिरखाना.. लेकिन उनको घूमने-फिरने से फुर्सत मिले तब तो। “

वातावरण में सन्नाटा छा गया था। छेदी अपने साथियों के साथ सिर झुकाकर खड़ा था दोषी की तरह।

क्षण-भर बाद ही उसने फिर कठोर एवं व्यंग्यात्मक शब्दों में कहा,” इतना तरास लगा था तो अपने मालिक को क्यों नहीं कहा.. तालाब खुदवा देता.. कुंँआ तो अपवित्र किया ही बाल्टी का भी सत्यानाश कर दिया।”

शोर-गुल और तेज आवाज सुनकर उसका लड़का शैक्षणिक संस्थान बन्द हो जाने के कारण दिल्ली से घर आया हुआ था, अपनी आंँखें मलते हुए वहांँ पर पहुंँच गया यह कहते हुए ‘क्यों चीख-चिल्ला रही हो, मेरी नींद भी टूट गई।’

” पूछो इन लोगों से, मेरी बाल्टी को छू दिया.. कुंँआ का पानी भी कोई करम का नहीं रहा” कहती हुई बड़बड़ाने लगी।

उसके लड़के को स्थिति समझने में देर नहीं लगी।

उसने अपनी माँ से कहा, “क्यों इतना बक-बक कर रही हो बिना मतलब के, चुप भी रहो.. क्यों लकीर के फकीर बनी हुई हो, पुराने रिवाजों और दस्तूरों को क्यों पकड़कर बैठी हुई हो, दिल्ली में तो हमलोग अपने साथियों से पूछते तक नहीं हैं कि किस जाति-बिरादरी के हो, साथ में खाना-पीना, उठना-बैठना सब होता है, कोई जातिभेद नहीं है.. आदमी चांँद पर जा रहा है और यहांँ गांव में छोटी-छोटी बातों पर बखेड़ा करती हो.. “

” कैसी बातें करते हो बेटा!.. सारा काम, धरम-करम, पूजा-पाठ सब तो इसी कुंँएं के पानी और इसी बाल्टी से निपटाते हैं, सब मटियामेट करके रख दिया। “

” तुम अन्दर जाओ मांँ! “तल्खी के साथ उसके युवा पुत्र ने कहा।

अपने पुत्र की भाव-भंगिमा और बेरूखी को भांपते हुए वह अन्दर चली गई।

पल-भर बाद ही उसने मजदूरों से कहा,” माफ करना भाई!.. मेरी माँ नासमझ है.. जमाना बदल गया है लेकिन वह पुराने जमाने की बातों को ही मानती है।.. कुंँआ से पानी भरकर पी लो इच्छा भर।

छेदी और उसके साथियों के चेहरों पर खुशी छा गई।

स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित

मुकुन्द लाल

हजारीबाग(झारखंड)

 

मुझे कोई मलाल नहीं…

“माँ जल्दी से अस्पताल आ जाओ… दादी की तबियत बहुत ख़राब है… वो बार बार तुम्हें याद कर रही है ।”वंशिका ने जैसे ही फ़ोन पर ये कहा मानसी जल्दी से अपना मोबाइल और बैग हाथ में लेकर वंशिका के अस्पताल की ओर भागी

अस्पताल के बिस्तर पर मनोरमा जी असहाय नज़र आ रही थी… क्षमा याचना उनके चेहरे पर व्याप्त था पर मानसी आज भी तटस्थ थी।

टूटे हुए शब्दों में मनोरमा जी मानसी से कहने लगी,” बहु अब ना बचूँगी… पर मुझे मुक्ति तब तक ना मिलेगी जब तक तू मुझे माफ ना करेगी…विवान और वंशिका में हमेशा पक्षपात करती रही काश पहले से ही दोनों को एक आँख से देखती तो ना वंशिका से और ना तुझसे मुझे नज़रें चुराने की ज़रूरत पड़ती… तुमने आज तक एक शब्द पलट कर ना कहें मुझसे …पर आज तू बोल बहू नहीं तो मेरी आत्मा मुझे हमेशा झकझोरती रहेंगी ।”

“ क्या कहूँ माँ जी… सच तो यही है आपके उस व्यवहार ने मेरी बेटी को डॉक्टर बना दिया… पति के गुजर जाने पर मैंने हिम्मत कर काम पर निकलना शुरू किया…आज आपके उसी पक्षपात ने हमारी ज़िंदगी तो संवार दी पर विवान को देखो आपने क्या बना दिया ।” कमरे में एक कोने पर खड़े विवान की ओर देखती मानसी ने कहा जो नज़रें झुकाएँ खड़ा था

कमरे में उसके अलावा जेठ जेठानी भी थे जो आज मानसी से नज़रें नहीं मिला पा रहे थे ।

“ बहू ये पकड़…।” कहते हुए तकिये के नीचे से एक लिफ़ाफ़ा मानसी को देते हुए मनोरमा जी ने आँखें मूँद ली

सब काम क्रिया सम्पन्न होने के बाद मानसी ने वो लिफ़ाफ़ा खोल कर देखा जिसमें एक चिट्ठी लिखी थी..

“ बहू मुझे पता है तू मुझे कभी माफ़ नहीं कर पाएँगी… मैंने काम ही वैसे किए…मेरे दो ही बेटे….जब बड़े के बेटा हुआ मैं बहुत नाची….खुश थी मेरे घर का चिराग़ रौशन करने वाला आ गया… पर जब तेरे बेटी हुई… मानो मुझ पर व्रजपात हुआ… वंशिका के जन्म के साल भर बाद मेरा बेटा सड़क दुर्घटना का शिकार हो चल बसा… तुमसे बेटे की उम्मीद ख़त्म हो गई थी…अब जो भी था वो विवान ही था…मुझे उससे ख़ास लगाव रहने लगा.. वंशिका और तू मुझे फूटी आँख ना सुहाती थी… उपर से तेरी जेठानी कान भरने में माहिर … मैं बस बहकावे में आती चली गई और उसको ही सर्वेसर्वा मान लिया…और परिणामस्वरूप तुम्हें घर से निकाल दिया… पर देख ना क़िस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था… विवान के कुकृत्य ख़त्म नहीं होते और वंशिका दिन पर दिन अपने स्कूल कॉलेज का नाम रौशन करने लगी…. अब जब तबियत बिगड़ी सबने अस्पताल लाकर छोड़ दिया… यहाँ वंशिका मिली जिसने अपनी दादी की जी भर सेवा की… तू सामने नहीं आती थी पर मुझे पता है मानसी बहू तू वंशिका से मेरी हर पल की खबर लेती थी… बस बहू मुझे माफ़ करना…।”

मानसी चिट्ठी एक तरफ़ रख कर बोली,” माँ मैंने आपको तभी माफ़ कर दिया था जब मैं घर से निकली … क्योंकि उस देहरी के भीतर आपने मेरा बुरा सोचा पर उसके बाहर निकल कर मैं खुद को साबित कर पाई और मेरी बच्ची ने हर दुख दर्द को भूला कर पापा के सपने को पूरा करने के लिए जी जान लगा दिया… जो उसके पैदा होते ही बोले थे बेटी को डॉक्टर बनाएँगे….उसके लिए कहीं ना कहीं आपका वो एक आँख से ना देखने वाला रवैया ही काम कर गया नहीं तो लाड़ प्यार में पता नहीं वंशिका क्या बनती… इन सब के लिए आपको धन्यवाद देती हूँ …आप जहाँ रहे ख़ुश रहे मेरी तरफ़ से मन में कोई मलाल ना रखें।

स्वरचित

रश्मि प्रकाश

 

शरारत

माया और मयंक की अभी कुछ दिनों पहले ही शादी हुई थी, दोनों हनीमून जाकर वापस घर आ गए थे, आज कल मौसम भी बारिश वाला था, तो उन दोनों को एक दूसरे को छेड़ने में भी बड़ा मज़ा आता था।

माया किचन में सुबह-सुबह मयंक के लिए टिफ़िन बना रही थी, तभी मयंक ने अपने कमरे से उसे आवाज़ लगाई, ” माया ज़रा इधर तो आना, इन पेपर्स पर तुम्हारे दस्तख़त चाहिए। “

माया ने किचन से ही जवाब दिया, ” कुछ देर रुकिए, ये आखिरी पराँठा बाकी है, बस हो ही गया, आपका टिफ़िन भी तैयार ही है। “

मयंक से जैसे एक पल का भी इंतज़ार नहीं हो रहा था उसने फ़िर से आवाज़ लगाते हुए कहा, ” जल्दी करो, बाबा, मुझे ऑफिस जाने में देरी हो रही है। “

अच्छा बाबा, रुको आई, कहते हुए माया अपनी साड़ी का पल्लू अपने कंधे से लगाकर पीछे की ओर से अपनी कमर में लगाते हुए, अपने दोनों हाथों से अपने बालों का जुड़ा बनाते हुए मयंक के सामने आती है, उसकी पतली कमर और चेहरे पर बिखरे बाल देख कर मयंक का मन एक पल के लिए ललचा जाता है, वह उसकी और जैसे खींचा चला जाता है, मगर ऑफिस जाने का वक़्त था, तो उसने अपने आप पर कण्ट्रोल कर लिया और माया से नज़रें चुराते हुए फ़िर से कहा, ” अरे, जल्दी करो बाबा, मुझे ऑफिस के लिए अभी निकलना है, तुम्हारी बजह से मैं रोज़ लेट हो जाता हूँ। “

माया का मिज़ाज़ भी थोड़ा आशिक़ाना हो रहा था, तो माया ने मयंक के करीब जाते हुए उसे कमर से पकड़ लिया और उसकी आँखों में आँखें डालते हुए कहा, ” ऐसे कोई दस्तख़त नहीं मिलेंगे, पहले मुझे आज सुबक की ढ़ेर सारी पप्पियाँ चाहिए। ” कहते हुए माया खुद ही मयंक को प्यार करने लगी, मयंक मुस्कुराया भी और नाराज़ भी हुआ और कहने लगा, ” अरे माया, छोडोना, अभी सुबह-सुबह क्या तुम भी, दस्तख़त कर दो ना, प्लीज, मुझे जाना है, ( अपने आपको कण्ट्रोल करते हुए कहा ) माया फिर भी नहीं रूकती और कहती है, ” नहीं पहले मुझे पप्पी चाहिए, बाद में तुम जहाँ बोलो वहाँ पर दस्तख़त। “

” अच्छा बाबा, तुम भी बड़ी ज़िद्दी हो ” कहते हुए मुस्कुराते हुए मयंक ने भी माया को आखिर पप्पी दे ही दी और मुस्कुराते हुए कहा, ” चलो प्लीज अब दस्तख़त कर लो। “

” अच्छा बाबा, अभी करती हूँ ” कहते हुए माया ने मुस्कुराते हुए दस्तख़त कर दिए और कहा, कि ” अब से अगर मेरे दस्तख़त चाहिए तो पहले पप्पियाँ देनी होगी, बाद में ही दस्तखत मिलेंगे। “

मयंक मुस्कुराते हुए अपने माथे पर हाथ फेरते हुए फाइल और टिफ़िन लेकर ऑफिस के लिए चला जाता है, इस तरफ मयंक के जाने के बाद माया भी अपने आप को आईने में देख कर शर्मा रही थी और अपनी आँखों पर हाथ रखकर, ज़रा हाथ हटाते हुए चुपके से आईने में अपने चेहरे को देख रही थी।

तो दोस्तों, शादी के बाद कभी-कभी ऐसे मीठे पल और यादें ही ज़िंदगी जीने का सहारा या कहूँ तो ज़िंदगी जीने की उम्मीद बन जाती है, इसलिए शादी के बाद ज़िंदगी में कुछ शरारत भी बहुत ज़रूरी है।

स्व-रचित

#शरारत ( हास्य-रोमांस )

Bela…

 

तुम अपना समय भूल गई 

नेहा बड़े मन से खाना बनाकर अपने पति और ससुर को खिलाने के बाद उसे थाली में लगाकर अपनी सास को देने के लिए गई तो खाने का एक कौर मुंह में लेते ही उसकी सास विमला बोली” ये कैसा खाना बनाया है तुमने इसमें ना नमक है ना मिर्च है कितनी बार कहा है तुझसे खाना ढंग से बनाया कर जिस दिन से आई है उसी दिन से भूखी रहती हूं मैं तो… वापस ले जा यह खाना मुझे नहीं खाना” सास की बात सुनकर कुछ दिन पहले ही दुल्हन बन कर आई नेहा का चेहरा उतर गया था ऐसा नहीं था कि उसे खाना बनाना नहीं आता उसे बहुत अच्छा खाना बनाना आता था खाना बनाने के अलावा वह घर के सभी कार्यों में निपुण थी झाड़ू, पोछा, बर्तन, कपड़े धोना सभी कार्य वह अच्छे ढंग से करती थी परंतु, फिर भी उसकी सास उसके द्वारा किए कार्यो में कोई ना कोई कमी जरूर निकाल देती थी कभी कहती कपड़े साफ नहीं धुले कभी कहती खाना अच्छा नहीं बना उसके ससुर और पति उसके किसी काम में कभी कमी नहीं निकालते थे बल्कि उसके द्वारा किए काम की प्रशंसा करके उसका उत्साह बढ़ाते थे।

आज भी उन्होंने उसके द्वारा बनाए खाने की प्रशंसा की थी जब विमला नेहा के द्वारा बनाए खाने की बुराई कर रही थी तब नेहा का दुखी चेहरा देखकर वे विमला को समझाते हुए बोले” इस तरह खाने का तिरस्कार करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती अपना समय भूल गई तुम जब इस घर में नई – नई आई थी तब कितनी गलतियां करती थी कभी रोटी जला देती थी तो कभी कच्ची पक्की सब्जी में नमक ज्यादा डाल देती थी तब मम्मी तुम्हें कुछ सुनाने की बजाए प्यार से रसोई में तुम्हारे पास खड़े होकर तुम्हें खाना बनाना सिखाती थी जिससे कुछ समय बाद तुम घर के सदस्यों की पसंद के अनुसार खाना बनाने में निपुण हो गई थी यदि तुम भी बहू के खाने में कमी निकालने की बजाय उसके पास खड़े होकर उसे प्यार से समझाओ तो वह भी कुछ दिनों में ही तुम्हारी पसंद का खाना बनाने में निपुण हो जाएगी भगवान का शुक्र मनाओ कि इतनी अच्छी बहू मिली है जो तुम्हारी बात सुनकर तुम्हें कुछ नहीं कहती और चुपचाप घर का सारा काम करती रहती है नहीं तो आजकल की बहु सास के द्वारा काम में कमी निकालने पर घर का काम करना तो छोड़ ही देती हैं उल्टा अपनी सास को बस दिन भर घर में पड़ी पड़ी खाती रहती हो और काम में कमी निकालती रहती हो यह कहते हुए खरी-खोटी भी सुना देती हैं” पति की बात सुनकर विमला शर्मिंदा हो गई थी नेहा को अपने पास बुला कर प्यार से बोली” बहू आज से खाना बनाने में मैं तुम्हारी मदद करूंगी और हां वह खाने की थाली में अपने लिए भी खाना लगा कर लिया हम दोनों साथ में बैठकर खाना खाएंगे सब्जी में नमक थोड़ा कम है थोड़ा नमक भी ले आना” सास की बात सुनकर नेहा के चेहरे पर मुस्कान आ गई थी खुशी-खुशी वह अपने लिए भी थाली में खाना लगाकर सास के साथ बैठकर खाने लगी थी।

दोस्तों आज भी हमारे समाज में ऐसी बहुत सी औरतें हैं जो नई बहू के आते ही घर का सारा काम करना छोड़ देती हैं और बहू के हर काम में कमी निकाल कर खुश होतीं हैं ये सोचे बगैर कि ऐसा करने से बहू के मन में सास के प्रति प्यार और सम्मान की जगह अपमान और घृणा की भावना जन्म ले लेती है जिससे बहु जल्द ही उस घर से किनारा कर लेती है घर का बटवारा ना हो इसलिए सास को बहू के काम में कमी निकालने की बजाए प्यार से उसे समझाना चाहिए और काम में उसकी मदद करनी चाहिए ताकि बहू के मन में सास के प्रति प्यार और सम्मान बना रहे।

बीना शर्मा 

 

वहम 

सुमन की नई नई शादी हुई ।चार पांच दिन सास ससुर के साथ रही। फिर पति नीरज के साथ जहां उसकी नौकरी थी, चली गई। दो साल बाद ससुर रिटायर हो गए तो वो और सास भी सुमन और नीरज के साथ जाकर रहने लगे। सुमन पूरा दिन सास ससुर की जरुरतों का ध्यान रखती जैसे उसके मायके में उसकी मां उसकी दादी का ध्यान रखती थी। पर एक दिन सुमन ने सुना, सासू मां, ससुर जी से कह रही थी, ‘ सुमन हमे दूध में पानी मिलाकर देती है।’

सुमन ने इसका हल निकाला वो किसी बहाने से सारा दूध का पतीला सासू मां के पास ले जाती और वही उनको डाल कर दे देती। फिर एक दिन सासू मां फोन पर अपनी बेटी को कह रही थी कि ‘ यह सुमन हमें देसी घी बहुत कम डाल कर देती है। बस ऊपर ऊपर दिखावा कर देती है।’

सुमन ने अगले ही दिन पूरा देसी घी का डिब्बा सास ससुर के कमरे में रख दिया, यह कहकर कि ‘ मैं कई बार घर पर नहीं होती तो आपको ढूंढने में दिक्कत होती है।जब खत्म हो जाएगा तो दूसरा रख दूंगी।’

कुछ दिन बाद सासू मां ससुर से कह रही थी, ‘ नीरज इतना फल लाता है। हमें तो थोड़ा सा देती है। सारा खुद ही खा जाती होगी।’

सुमन ने सुना और अगले दिन फ्रिज सास ससुर के कमरे में रखवा दिया, कहने लगी, ‘ आपको पानी, दूध, फल लेने के लिए इतनी दूर नहीं जाना पड़ेगा। इस उम्र में आपको वहा तक जाने मे दिक्कत होती है। मैं तो यही से आकर ले जाया करूंगी। ‘

सुमन के जाने के बाद ससुर बोला, ‘ अब तो ठीक है। सब कुछ तेरे कमरे में रख दिया सुमन ने।’

‘ यह सब तो ठीक है जी, पर मुझे शक है, गड़बड़ तो करती ही होगी- – आखिर बहू है।’

‘ गड़बड़ वह नहीं करती। गड़बड़ तेरे दिमाग में है क्योंकि तू खुद जैसी बहू रही वैसा अपनी बहू के बारे में सोच रही है। वहम का इलाज तो लुकमान हकीम के पास भी नही था- – – – – ‘

ससुर बोले जा रहे थे और सासू की अंतरात्मा उससे कह रही थी कि शायद यही सत्य है।

डॉ अंजना गर्ग

म द वि रोहतक

हरियाणा ।

निर्णय ले लिया

आज अचला जी को अपने बच्चों का बचपन याद आ रहा था और उनकी आंखों में ढेरों आंसू थे। पति की कमाई सीमित होने के कारण वह स्वयं पूरा दिन सिलाई करके बच्चों की जरूरतों को पूरा करती थी। सिलाई मशीन चलाते चलाते उनकी कमर भी दुखने लगती थी। एक बेटी प्रिया और दो बेटे सोनू मोनू सबको एक जैसी सुविधाएं देती थी।

नए कपड़े आते थे तो तीनों के लिए। अगर एक बच्चा कहता कि आज ठंडा दूध पीने का मन कर रहा है तो तीनों बच्चों को ठंडा दूध शरबत मिलाकर दे देती थी फिर चाहे अपनी चाय के लिए दूध बचे या ना बचे। तीनों की पढ़ाई का खर्चा, स्कूल दूर होने के कारण रिक्शा का खर्चा और भी अन्य खर्चे वह अपनी सिलाई के द्वारा निकाल लेती थी।

तीनों बच्चों को वह एक आंख से देखती थी और आज वही बच्चे बड़े होकर उनसे कैसा बर्ताव कर रहे हैं यही सोचकर उनकी आंखों में आंसू आ गए थे। उनके पति रिटायर हो चुके थे। बच्चों ने उन्हें और अपने पिता को सबसे छोटा और गरम कमरा रहने के लिए दे दिया था और खुद अपने कमरों में ऐसी लगाकर चैन की बंसी बजाते थे।

उन्हें पता था कि उनके पिता को गर्मी बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होती है और अचला जी जिन्होंने बच्चों की जरूरतें पूरी करने के लिए सिलाई करते करते अपनी कमर तोड़ ली थी उन्हें सोने के लिए एक बिस्तर भी नसीब नहीं था। अब उन्होंने अपने मन को कठोर करके निर्णय ले लिया था कि अब हम बच्चों की कारस्तानी और बर्दाश्त नहीं करेंगे और उन्हें साफ साफ कह देंगे कि यह घर हमारा है, तुम लोग अपना इंतजाम अपने हिसाब से कर लो। यह सब सोचते सोचते उन्होंने अपने आंखों के आंसू पोंछ डाले और मजबूती से उठ खड़ी हुई।
स्वरचित अप्रकाशित
गीता वाधवानी दिल्ली

एक आँख से देखना

बचपन से ही भाइयों की बजाय मुझे अपने माता पिता का अधिक प्यार ,अधिक मान और प्रशंसा प्राप्त होती थी। हालाँकि भाई भी मुझसे स्नेह करते किन्तु फिर भी मम्मी पापा का मेरे प्रति विशेष स्नेह उन्हें खटकता था। वैसे मेरा स्वभाव भी उन दोनों की अपेक्षा मृदु था और मैं मम्मी पापा की आज्ञा मानने वाली अनुशासित बच्ची रही, साथ ही पढ़ने के लिए मुझे कभी कहना न पड़ता बल्कि “बस करो थक जाओगी अपने दिमाग को सुकून दो” जैसे वाक्य ही सुनने को मिलते ।

इसके विपरीत लड़के स्वभाव से ही जैसे कुछ उद्दंड और जिद्दी होते हैं और बेटियों की तरह संवेदनशीलता भी उनमें कम होती है इस कारण से वे शायद मम्मी पापा के मर्मस्थल को उतनी गहराई से महसूस नहीं करते थे जितना कि मैं महसूस कर पाती थी। इसी कारण उनका लगाव और झुकाव संभवतः मेरी तरफ ज्यादा था लेकिन दोनों भाई कभी कभी इसे उनका पक्षपाती रवैया मान कर मुझे भी लाड़ली राजकुमारी होने का ताना देते और उनको भी कि “आप अपने बच्चों को एक आँख से नहीं देखते ।

“तब पापा ने उनको समझाया “तुम सब बच्चे हमारे अपना खून हो ,हमारी जान हो। माता पिता कभी अपने बच्चों में भेदभाव नहीं करते लेकिन अगर किसी बच्चे को वो दूसरे से ज्यादा प्यार करते हैं तो उसका कारण कभी भी शारीरिक सौन्दर्य,लिंग,या आर्थिक भेदभाव नहीं होता हाँ व्यवहार जरूर कारण हो सकता है इसका ।

यह तो तुमने सुना ही होगा कि जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा होता है तो यही समझ लो कि जितना प्यार और जितनी परवाह जो संतान माता पिता की करती है उसे उतना ही मीठा व्यवहार मिलता है। हम तो “एक आँख” से ही बच्चों को देखते हैं लेकिन जो बच्चा आँखो के करीब रहेगा आँख तो उसी को ज्यादा देखेगी ना।”
शायद यह उदाहरण भाइयों को समझ आ गया था इसलिए ही उन्होंने दुबारा हम सबको “एक आँख से न देखने” की शिकायत नहीं की ।

पूनम अरोड़ा

छोटी बहू

सुहानी कहाँ चली गई है बेटा इधर तो आ सासु माँ ने बड़े ही प्यार से अपनी छोटी बहू सुहानी को पुकारा ।
सुहानी ने रसोई से आवाज़ दी माँ मैं रसोई में दीदी की मदद कर रही हूँ ।
सासु माँ ने ज़ब्त फिर से पुकारा तो वह रसोई से आकर कहती है बोलिए माँ क्या चाहिए ।
तुम रसोई में क्या कर रही हो बडी बहू है ना वह कर लेगी यहाँ बैठ हम दोनों सीरियल देखेंगे ।
सुहानी ने कहा माँ जब से मैं ब्याह करके आई हूँ देख रही हूँ कि आप मुझे काम नहीं करने देती हैं और दीदी बिचारी बच्चे को सँभालतेहुए घर का सारा काम अकेले करती हैं ।
सासु माँ ने कहा कि – तुम्हारे पिता ने बहुत सारा दहेज दिया है और उसके पिता ने कुछ नहीं दियाइसलिए वह काम करेगी और तुम राज करोगी समझ गई है न ।
सुहानी — मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ सासु माँ मैं दीदी की सहायता करूँगी आप मुझे माफ़ करदीजिए कहते हुए रसोई में चली गई । सुहानी से बड़ी बहू ने कहा उनकी बात मान ले मैं काम कर लूँगी मुझे आदत है ।
सुहानी – मैं उनकी बात नहीं मान सकती दीदी उनका इस तरह का भेदभाव मैं पसंद नहीं कर सकती हूँ ।
सासु माँ मन ही मन मुस्कुराते हुए सोचती है मैं दोनों को एक आँख से देखना चाहती हूँ । अधिक दहेजलाई छोटी बहू को परखने के लिए यह नाटक किया था । अब मैं निश्चिंत होकर रह सकती हूँ ।
स्वरचित
के कामेश्वरी

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