जून महीने की तपती दुपहरी में तकरीबन 2 बजे दीप्ति के दरवाजे पर दस्तक हुई। घर में सभी लोग खा पीकर आराम फरमा रहे थे। कूलर पूरी ताकत से गरम हवा की लपटों को ठंडी शीतल बयार में बदलने का प्रयास कर रहा था फिर भी नाकाम सा नज़र आ रहा था। बाहर भीषण लू चल रही थी जिससे शाम के छह बजे तक भी राहत नहीं मिलती थी। दोपहर के 2 बजे तो गली मोहल्ले ऐसे वीरान हो जाते, जैसे यहाँ कोई रहता ही न हो। ऐसे में भरी दोपहर में दरवाजे के दस्तक ने उसे थोड़ा संशय में डाल दिया।
दरवाजा खोला तो सामने अपनी दोस्त, सहपाठी और पड़ोसन रीमा को खड़ा पाया।
“दीप्ति यार, चलेगी मेरे साथ वो मंदिर तक।” रीमा ने अनुरोध किया।
“तू पागल है क्या? इतनी दोपहर में वहां जाकर क्या करेगी!”
“अरे यार! मुझे छोले कुलचे खाने हैं, मम्मी ने घीया बनाया है मुझसे नहीं खाया जा रहा।”
“नाटक मत कर, जो बना है चुपचाप खाले!मेरी मम्मी नहीं जाने देंगी इतनी धूप में। “
” चल ना यार…”
दीप्ति के मना करने पर भी रीमा उसे घसीटते हुए साथ ले गई।
सड़कों पर ना आदम ना आदम की जात दिखाई पड़ रही थी।पेड़ों से टकराती गरम हवा की लपटें भाएं भाएं बोल रही थी। तिस पर मंदिर की ओर जाने वाला रास्ता था भी बड़ा सुनसान।दीप्ति भुनभुनाती हुई रीमा के साथ चली जा रही थी। अपनी कॉलोनी को पार करने के बाद उन्हे सुनसान सी पतली गली से होकर गुजरना था जो दो बंगलों के आपसी विवाद में छूटी हुई जगह पर बन गई थी। गली इतनी संकरी थी कि उसमें से एक बार में एक ही व्यक्ति निकल पाता था, उसमें भी अगर सामने से कोई आता दिख जाए तो किसी एक को वापिस लौट कर रास्ता देना ही पड़ता था। यह कोई आम रास्ता नहीं था, बस पैदल चलने वालों ने दो मोहल्लों के बीच मानों शॉर्ट कट गढ़ रखा था।
पहले दीप्ति गली में दाखिल हुई उसके पीछे रीमा भी सुस्त चाल से चल रही थी। अचानक दीप्ति पीछे मुड़ी और इशारे से रीमा को लौटने के लिए कहने लगी। दोनों गली से बाहर आकर रास्ता खाली होने का इंतजार करने लगे। दो मिनट तक कोई न आया तो रीमा ने दीप्ति को आँख दिखाई।
“कोई है भी, ऐसे ही बाहर खड़ा कर दिया लाकर।”
“अरे यार एक औरत थी साड़ी पहने हुए।” दीप्ति ने कहा।
अबकी बार रीमा आगे आगे चली और दीप्ति पीछे।
ठीक बीचों बीच पहुँचने पर रीमा को भी कोई सामने से आता दिखाई दिया। मुश्किल से 20 कदम की लंबाई वाली गली को पार करने के लिए वो दोनों फिर बाहर लौट आईं।
इस बार भी कोई बाहर नहीं आया। दोनों के माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थी। रीमा ने भी सेम वही साड़ी वाली औरत सामने से आती देखी थी। इतनी गर्मी में उनकी हिम्मत नहीं थी कि सड़क वाले रास्ते से जाकर मंदिर तक पहुँचा जाए इसलिए एक बार फिर दोनों गली में घुस गई।
इस बार उन्हे कोई नहीं दिखाई दिया तो दोनों जल्दी ही गली पार करके मंदिर तक पहुँच गई। मंदिर के सामने वाले दो मंजिला मकान के ऊपर की मंजिल पर फिर से रीमा को वही पीली साड़ी वाली औरत दिखाई पड़ी।
“देख यही थी वो जो गली में घूम रही थी। “रीमा ने कहा।
“कहाँ? कौन?… तेरा दिमाग ठीक है!” दीप्ति उसे घसीटते हुए वहाँ से ले आई।
दीप्ति का यूँ रीमा को मंदिर के सामने से खींच कर ले आना थोड़ा खटक सा रहा था।
“क्यूँ खींच लाई ऐसे? सच्ची यही थी जो गली में दिखी थी। तूने भी इसे ही देखा था क्या?”
“रीमा कोई नहीं था वहाँ, ज्यादा दिमाग मत चला!”
“ऐसे कैसे नहीं था, मैंने खुद देखा… तुझे भी तो दिखाया ना!”
संकरी गली पार करते ही रीमा को लगा जैसे उसके पीछे कोई चल रहा है।
मुड़कर देखा तो वो हैरान रह गई। दीप्ति को कोहनी मारकर बोली,” देख हमारे पीछे पीछे आ रही है, पूछूँ क्या कहाँ गायब हो गई थी तब।”
दीप्ति को तो जैसे ‘काटो तो खून नहीं’ वाली स्थिति थी। उसका गोरा रंग जो धूप की तपिश से लाल पड़ रहा था, रीमा की बात सुनकर सफेद पड गया।
” रीमा बिना मुड़े चुपचाप चल यहाँ से! घर पहुँच कर सारी बात बताती हूँ। “
दीप्ति रीमा का हाथ पकड़ कर तेज़ कदमों से चलती हुई घर पहुँच गई। घर के दरवाजे पर पहुंच कर उसने जोर जोर से दरवाजा पीटना शुरू कर दिया।
दीप्ति कांप रही थी, और रीमा हैरान परेशान सी उसका हाथ थामे खड़ी थी। दीप्ति और रीमा की ऐसी हालत देख सीमा, दीप्ति की मम्मी घबरा गई।
“मम्मी मैं आज के बाद कभी मंदिर की तरफ नहीं जाऊँगी।” कहकर दीप्ति सिसकने लगी।
सीमा ने हैरान परेशान होकर रीमा की ओर देखा तो बाकी की कहानी रीमा ने कह सुनाई।
“ये क्या बोल रही है बेटा रीमा! जिस घर की तू बात कर रही है वो तो दो हफ्तों से बंद पड़ा है। तुम जब पंद्रह दिन पहले छुट्टी मनाने गए थे तभी उस घर में रहने वाली महिला ने आत्महत्या कर ली थी। तब से वो घर बंद है। तुम लोग इतनी दोपहर में बिना पूछे बाहर गए ही क्यूँ?” सीमा जी सर पर हाथ रखकर बैठ गई।
इधर सारा सच सुनकर रीमा के हाथ पाँव ठंडे पड़ने लगे।
दीप्ति का भाई जाकर रीमा को उसके घर छोड़ आया।
लेकिन बात इतनी छोटी सी नहीं थी। दीप्ति के दिमाग में डर ऐसा बैठा कि वो हर आहट से चोंक जाती। डर ने दिमाग को इस तरह अपने कब्ज़े में लिया कि तीन दिन तक उसका बुखार नहीं उतरा। सीमा जी ने भी बेटी को सामान्य करने के खूब जतन किए। धीरे धीरे दीप्ति सामान्य हो रही थी।
हफ्ता बीतने को आया था लेकिन रीमा की कोई खबर नहीं थी। दीप्ति ने सोचा आज जाकर रीमा से मिल आती हूँ।
सुबह दस बजे ही वो रीमा के घर पहुँच गई थी।
“आओ बेटा! तुम ही समझाना अब इसको। अजीबोगरीब आदत पाल रखी है इसने, मेरी तो सुनती ही नहीं है।” सुधा आंटी ने दीप्ति को रीमा के कमरे में भेजते हुए कहा।
कमरे के अंदर का नजारा देख कर दीप्ति सन्न रह गई थी। रीमा ने सुर्ख लाल लिपस्टिक वो भी बेढंग सी पोत रखी थी। तेल लगाकर कस कर बंधे हुए बाल। और शायद भोजपुरी भाषा में आइने की ओर देखकर कुछ बड़बड़ाती हुई रीमा लग ही नहीं रही थी उसकी दोस्त फैशनेबल रीमा गुप्ता ही है। भोजपुरी में उसका बुदबुदाना दीप्ति को सबसे ज्यादा विचलित कर रहा था।
“रीमा! ये क्या हाल बना रखा है यार। चल अपना हुलिया ठीक कर, फिर आंटी के हाथ की चाय पीते हैं।” दीप्ति ने रीमा के कंधे पर हाथ रखकर कहा।
“काहे आई हो इहाँ…” रीमा ने आँखे तरेर कर दीप्ति की और देखा और उसका हाथ झटक कर उसे धक्का दे मारा।
दीप्ति दूर जा गिरी। लेकिन उसके चीखने की आवाज से सुधा आंटी और रीमा का भाई विनीत वहाँ पहुँच गए।
” क्या हुआ बेटा?”
इससे पहले कि दीप्ति कुछ बोलती रीमा ने फिर से अपनी कड़कती आवाज में कहा, “चले जाओ यहाँ से… ज़िन्दा रहना चाहते हो तो… अभी के अभी…”
रीमा की गरजती आवाज सुनकर तीनों गिरते पड़ते वहाँ से बाहर निकल आए।
“ये क्या हो गया मेरी बच्ची को!” आंटी रो रही थी।
पिछले दो तीन दिन से परेशान सी थी। बार बार बोल रही थी, मम्मी वो फिर आ गई। वो यहीं है। मुझे देख रही है, हँस रही है। अपने पास बुला रही है।”
“मुझे लगा बच्ची है डर गई है इसलिए मैंने उसके तकिये के नीचे चाकू रख दिया था। फिर दो दिन समान्य रही। कल से ऐसे श्रृंगार किए घूम रही है और आज….” आंटी की सिसकियाँ बँध रही थी।
क्रमशः…
“तो क्या रीमा पर किसी प्रेत का साया है?” दीप्ति ने हकलाते हुए पूछा।
“भगवान ही जाने बेटा लेकिन इसके हाव भाव देखकर तो यही लगता है।”
कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या किया जाए। दीप्ति के मम्मी पापा और रीमा के चाचा भी कुछ ही देर में वहां पहुँच गए थे। आपस में बातचीत कर के निष्कर्ष निकाला गया कि रीमा की दरगाह वाले बाबा के पास ले जाया जाए। किंतु प्रश्न यह था कि कैसे?
रीमा के चाचा ने यह जोखिम उठाने का प्रयास किया।
जैसे ही वे दरवाजे से भीतर दाखिल हुए उन्हे रीमा की कुछ गुर्राती हुई सी आवाज सुनाई पड़ी। नजर घुमा कर रीमा की तरफ देखा तो उनका कलेजा फट पड़ा। रीमा दीवार पर कुछ उकेर रही थी। कुछ अस्पष्ट सा किन्तु भयानक! उसका चेहरा भी बेहद डरावना लग रहा था। आँखें चढ़ी हुई और सलवार को घुटनों तक ऊपर खोंसे हुए, लग रहा था कि रीमा के भेष में कोई और ही है। चाचा जी की डर से घिघ्घी बँध गई और वे उल्टे पाँव बाहर लौट गए।
किसी तरह हनुमान चालीसा पढ़ते हुए सभी लोग एक साथ कमरे में दाखिल हुए तो पाया रीमा कुर्सी से टेक लगाए आँखें बंद किए बैठी है। हनुमान चालीसा पढ़ते हुए ही उसे कुर्सी से बाँधना शुरू किया तो वो बे तहआशा चीखने लगी और एक ही झटके में सबको दूर उठा कर पटक दिया। भय और साहस के बीच भय ही जीतने वाला था कि रीमा के भाई ने पीछे से आकर किसी तरह एक बार रस्सी से उसे कस दिया। सभी ने एक बार फिर से अपनी हिम्मत को एकत्र किया और उसे कुर्सी से बाँधकर ही गाड़ी में बैठा कर दरगाह ले गए। एक 17 साल की लड़की में न जाने कहाँ से इतना बल आ गया था कि वो छह छह लोगों को अकेले ही धकेल दे रही थी।
बाबा ने जैसे ही रीमा को देखा वो सारा माजरा समझ गए।बाबा ने दोनों हाथ ऊपर की ओर उठाकर कुछ मंत्र पढ़े और रीमा की ओर एक फूंक मारी। इसके बाद जैसे ही उन्होने अपना हाथ रीमा के सर पर रखा उसने अपनी लाल सुर्ख भयानक आँखें खोल दी।उसके नेत्रों में इतना क्रोध था कि लगता था आँखों से ही सबको भस्म कर देगी।
बाबा को देखकर वो फिर से गुरराने लगी।
बाबा ने एक ओर फूंक उसकी ओर मारी तो वह भयावह आवाज में चीखी.. “छोड़ दे मुझे.. पछताएगा!”
“पछतायेगी तू… क्यूँ इस बच्ची के पीछे पड़ी है? छोड़ दें इसको! ये तेरी दुनिया नहीं है.. लौट जा अपनी दुनिया में…”
“नहीं….. जाऊँगी.. इसके बिना अब कहीं नहीं जाऊँगी.. ये मेरी है.. सिर्फ मेरी!”
“कौन है तू.. कहाँ से आई है.. सच सच बता! क्यूँ बच्ची के पीछे पड़ी है? “
” ये बच्ची नहीं है.. मैं भी तो बच्ची थी.. मुझे भी तो मरना पड़ा न! “
” मैं बिहार के एक छोटे से गाँव के बड़े जमींदार की बेटी थी। पैसे रुतबे की कमी नहीं थी मेरे बापू के पास लेकिन बुद्धि वही जाहिल वाली पाई थी उसने। मुझे कभी घर से बाहर न निकलने दिया। कभी किसी सहेली सखी से मिलने नहीं दिया न ही दो आखर पढ़ने की इज़ाज़त दी। मैं जैसे बापू की हवेली की कैद में जी रही थी। मेरी कोई पसंद नापसंद तय होती उससे पहले ही सिर्फ़ 17 साल की उम्र में बापू ने मेरी शादी का एलान कर दिया। लेकिन हमारे गाँव में सब अनपढ़ जाहिल भरे थे जिनसे वो मेरा ब्याह नहीं करना चाहते थे। उन्होने शहर जाने वाली सड़क से एक लड़के को उठवाया और मार पीट करके उससे उसका पता और सारी जानकारी निकाली। वो एक डॉक्टर था जो दिल्ली में नौकरी करता था। मेरे पिताजी ने बंदूक की नोक पर मेरी शादी उससे करा दी। हमारे गाँव में इसे पकड़वा विवाह बोलते हैं। डॉक्टर बहुत तेज़ दिमाग निकला उसने बंदूक देखते ही शादी की रजामंदी दे दी और खुशी खुशी फेरों में बैठ गया। एक हफ्ता हमारे घर पर उसकी खूब खातिर हुई वो भी सबके सामने बहुत अच्छा बना रहा, आखिर में एक हफ्ते बाद मेरी विदाई उसके साथ कर दी गई। वो मुझे लेकर दिल्ली आ गया और एक दो मंजिला मकान में मेरे साथ रहने लगा। मैं बहुत खुश थी। बापू ने भी कई बार बात कर के तसल्ली कर ली थी। इन सब में एक असामान्य बात थी वो यह कि डॉक्टर कभी मेरे नज़दीक नहीं आया। उसने मुझे छुआ तक नहीं। कुछ दिन यहाँ बिताने के बाद वो एक दिन काम के बहाने से निकल गया और फिर लौट कर नहीं आया। मैं उसका इंतज़ार करती रही।
मेरा इंतज़ार लम्बा होता जा रहा था। समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ। अंजान शहर नए लोग उपर से मैं अंगूठा टेक! ना फोन मिलाना जानती थी ना बस ट्रेन पकड़ना, ना ही शहर के तौर तरीके समझ में आते थे। मैं एक कुएँ के मेंढक की तरह जीती आई थी जिसकी आँखें बाहर की चमक से चौंधिया रही थी। एक हफ्ते तक डॉक्टर का इंतज़ार करने के बाद मन में आया किसी तरह बापू को खबर कर दूँ। फिर अगले ही पल मन मुझसे ही प्रति प्रश्न करने लगा – अगर बापू की सख्ती से डॉक्टर लौट भी आया तो क्या मेरे जीवन का अधूरापन भर जाएगा? कोई भी डॉक्टर को मेरे नज़दीक आने और संबंध स्थापित करने के लिए बाध्य तो नहीं कर सकता ना! इस तरह एक ही छत के नीचे अजनबी बनकर रहने का भी अर्थ ही क्या है! जब दिल में जगह ही नहीं तो इस तरह कितने दिन यह रिश्ता चल सकेगा?
मैंने बापू को फोन करने का विचार त्याग दिया था। फिर भी दिल्ली जैसे शहर में जीने के लिए पैसों की आवश्यकता होती है और मेरे पास कुछ पैसों और गहनों के अतिरिक्त कुछ नहीं था। मैंने अगले दिन अपने गहने बेचने का विचार बनाया, लेकिन ईश्वर ने मुझे फिर से एक रोशनी की किरण दिखा दी। अगले दिन सवेरे ही डॉक्टर घर आया और महीने भर का राशन रखवा गया। ना इससे अधिक मैं कुछ पूछ सकी न उसने बताना आवश्यक समझा। अब तो यही क्रम बन गया था। वो हर माह राशन और जरूरत का सामान दे जाता। उसे भी शायद मुझ पर विश्वास हो चला था सो घर में एक फोन भी लगवा दिया था।
मेरा जीवन रिक्त सा हो चला था। हृदय भावना विहीन लगने लगा था। हमारे ब्याह को 8 महीने बीत गए थे। दो पुरूषों के फैसलों के मध्य मेरा जीवन मानो बस कट रहा था, जीने का उत्साह तो जाने कबका छूट गया था।
उस रोज रात को तकरीबन 11 बजे उसने दरवाजा खटखटाया। कुछ परेशान सा दिखाई पड़ रहा था। मैंने खाना पूछा तो थाली लेकर खाने बैठ गया। आज रह रहकर मेरी ओर देख रहा था। कोई और स्त्री होती तो मारे खुशी के दोहरी हो जाती किंतु मेरे भीतर उसके लिए कोई अहसास नहीं पनप रहे थे। खाना खाकर वो बॉटल खोल कर बैठ गया। देर रात तक पीता रहा! जाने क्या भरा था उसके मन में उस दिन कि देर रात गए वो कमरे में आया और पहली बार मेरी पीठ पर उंगलियाँ फिराई।
मैं भाव विहीन सी जड़ हुई पड़ी रही। उसने मेरे होठों को छूने का प्रयास किया तो एकाएक मुझे उससे घिन्न सी उठने लगी। मैंने उसे धक्का देकर हटाया और दूसरी तरफ सर करके लेट गई।
मेरा व्यवहार मेरे खुद के लिए भी एक पहेली था। जिन परिस्थितियों में मेरा ब्याह हुआ उसके बाद सही मायने में यही तो वह पल था जो हमारे रिश्ते को सम्पूर्णता प्रदान करता। फिर क्यूँ मैं उस पल में नहीं बह सकी! क्यूँ मुझे घिन्न हुई उसके स्पर्श से जो मेरा पति है, जिसके नाम का रोज मैं सिन्दूर लगाए घूमती हूँ।
उधर डॉक्टर के स्वाभिमान को गहरी चोट पहुँच गई थी। उस दिन के बाद उसने मुझे नजर उठा कर देखना भी बंद कर दिया।
मुझे भी उस लंबे चौड़े, गौर वर्ण और गठिले बदन के डॉक्टर से कोई आकर्षण महसूस नहीं होता था। मैं धीरे धीरे सहज हो रही थी। इतना समझ में आने लगा था कि डॉक्टर का यूँ मुझे त्याग कर चले जाना हो या पिता का मेरा सौदा कर देना, वजह जो भी हो मेरे भीतर पुरुषों के लिए कोई आकर्षण, प्रेम की भावना बची ही नहीं थी। इसके उलट मैं लड़कियों को देखकर आकर्षित हो जाती थी। घर की बालकनी से मैं रोज उसे मंदिर जाते देखती थी। बड़ी मनमोहिनी सी सूरत थी उसकी। बड़ी बड़ी आँखें और लहराते लंबे बाल। जब चलती तो चोटी उसकी कमर पर झूलती रहती। उसे देख मैं उसकी ख्वाहिश में पड़ जाती थी। उसकी सुगंध मुझे घर के भीतर से खींच कर बालकनी तक ले आती थी। शायद गुलाब वाला इत्र लगाती थी जो मुझे उसके करीब खींच लेता था। मेरे मन में अक्सर खयाल आता, काश कि इस घर में वो मेरे साथ रहती! जीवन कितना सुगंधित हो उठता। उसके साथ के अहसास से ही मैं खुशी से भर उठती थी। शायद यही प्रेम होता है, जो बिना कहे, बिना सुने आपको अपनी तरफ खींच ही लेता है।
मैंने तय कर लिया था अपने दिल की बात उसे बता कर रहूँगी। एक मर्द से ज्यादा प्रेम मैं उसे देना चाहती थी। लेकिन उसने मेरी बात का उपहास बनाया। और कुछ ही दिन बाद वो हाथों में चूड़ा पहने एक लड़के का हाथ थामे मुझे दिखाई दी। मेरी अंतिम उम्मीद भी खत्म हो गई थी। मुझे जीवन से अब कोई आशा नहीं थी, गहरी निराशा में मुझे मर जाना ही सबसे आसान लगा और उसी रात मैंने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
क्रमशः…
अतृप्त भाग – 5
“जब तुम खुद ही अपनी मौत मरी हो तो क्यूँ भटक रही हो? क्यूँ इस बच्ची के शरीर पर काबिज़ हो?” मौलवी साहब ने फटकार लगाते हुए कहा।
रीमा ने जोर का अट्टहास किया, “मैं मरी नहीं, मैं भी जीना चाहती थी। जीवन के हर रंग को महसूस कर तृप्त होना चाहती थी किन्तु मेरी आत्मा, मेरा शरीर, मेरा मन अतृप्त ही रह गया। मुझे मिली तो बस उपेक्षा! कैसे जीती मैं! मेरी जिजीविषा ख़त्म हो गई थी। मैं जन्म से तो ऐसी नहीं थी। इसलिए मेरी मौत भी एक हत्या ही है। अब मुझे तृप्त होना है। शरीर से नहीं आत्मा से!”, कहकर रीमा कुर्सी सहित कमरे में सरकने लगी।
बाबा ने इशारे से सभी को कमरे से बाहर जाने के लिए कहा। उन्हे शक था कि आत्मा कभी भी अपने रौद्र स्वरूप में आकर उन्हे नुकसान पहुँचा सकती है। बाबा ने एक काग़ज़ पर कुछ जल्दी जल्दी लिखा और उसे गिलास में रखे पानी में डालकर हिलाने लगे। कुछ क्षण के पश्चात वो बुदबुदाते हुए वो पानी रीमा पर डालने लगे। रीमा भयंकर आवाज में गुरराने लगी।
“तुझे जो भी पूछना है जल्दी पूछ, लेकिन इसे छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊँगी।” रीमा गर्दन टेढ़ी करके डरावनी हँसी बिखेरते हुए बोली।
“इस बच्ची के शरीर को क्यूँ चुना तूने! क्यूँ नहीं छोड़ती इसका पीछा! बहुत ढीठ आत्मा है।”
“मेरे हाथ खोल दो, बहुत दर्द हो रहा है।” अचानक से रीमा ने कराहते हुए कहा।
” कौन हो आप, मुझे बहुत प्यास लगी है, कोई दो बूँद पानी पिला दो। दर्द से मेरी जान निकल रही है।” रीमा विलाप कर रही थी।
उसकी आवाज सुनकर सुधा दौड़ती हुई कमरे में वापिस चली आई।
” बाबा पिला दो न मेरी बच्ची को पानी।”और उसने झट से रीमा के हाथ खोल कर पानी थमा दिया।
“तू ही लेकर आई ना हमका इंहा? “रीमा ने गिलास का पानी सुधा के मुँह पर फेंकते हुए सीधा उसका गला पकड़ लिया। बाहर से कुत्तों के रोने की भयानक आवाज सीना चीर रही थी। कोई एक दो नहीं लगता था मानो 8 दस कुत्ते एक साथ सुर मिलाकर रो रहें हो। बाबा ने फिर से पानी का गिलास उठाया और कुछ बूँदे रीमा के चेहरे पर डाली तो उसकी पकड़ कुछ ढीली पड़ने लगी। सुधा ने खांसते हुए किसी तरह अपना गला छुड़ाया और बाबा के साथ मिलकर उसे फिरसे मसजिद के अंदर ही बांध दिया।
“जिस खुशबू की तलाश में मेरा मन भटक रहा था, एक दिन मैंने वही सुगंध अपने आसपास महसूस की। कितने ही दिनों से मंदिर के बाहर के पीपल पर अटके हुए मैं जैसे इसी पल का इंतज़ार कर रही थी। मैंने पास जाकर देखा तो लंबे बालों और इत्र की खुशबू में नहाई हुई एक खूबसूरत लड़की मुझे दिखाई पड़ी। मैं इसके पीछे पीछे चली आई। इसने खुद पीछे मुड़कर मुझे बार बार देखा तो मुझे यकीन हो गया कि ये भी मुझे चाहती है।इसके बाद मैंने पीपल को छोड़ कर इसके शरीर को ही अपना ठिकाना बना लिया। ” टूटती और दोहरी सी आवाज में उसने खुद ही आगे की कहानी सुना दी।
रीमा को वहीं पर छोड़ कर बाबा मौलवी साहब कमरे से बाहर निकल आए।
” बहुत शक्तिशाली आत्मा है यह। इसकी ताकत इसी में है कि यह नफरत नहीं प्रेम को अपनी शक्ति का आधार बनाए हुए हैं। खैर इसके यहाँ होने की वजह जो भी है, इसका आपकी बेटी के शरीर में इस प्रकार रहना बहुत खतरनाक है।कोई भी शरीर एक साथ दो आत्मओं को नहीं झेल सकता। रीमा आप सभी के लिए भी खतरा है। इसलिए शीघ्र ही कोई उपाय सोचना होगा। ” मौलवी साहब ने चिंतित स्वर में कहा।
क्रमशः….
अतृप्त – अंतिम भाग
मौलवी साहब की पेशानी पर उभरती लकीरें, अगले पल होने वाली अनहोनी का संकेत दे रही थी। सुधा ने मौलवी साहब के सामने हाथ जोड़ कर कहा, “बस आपका ही सहारा है, कुछ कीजिए!”
मौलवी साहब कुछ सोचकर भीतर गए और एक काग़ज़ पर कुछ उर्दू में लिखकर, मोड़ कर काले कपड़े में सिला और सुधा को पकड़ाते हुए कहा, “मैं अपनी शक्तियों से कुछ पल के लिए उस आत्मा को रीता के शरीर से दूर करूँगा, तुम्हें ठीक उसी समय ये तबीज़ उसके गले में बांधना है।”
सुधा कुछ घबराते हुए अपनी बच्ची के भविष्य के लिए राजी हो गई।
मौलवी साहब ने आत्मा को शरीर से अलग करने के लिए पूरा अनुष्ठान तैयार किया और विधि करने लगे।
मंत्रों की गूँज से रीता कुछ बेचैन सी महसूस होने लगी थी। जैसे जैसे मौलवी के मंत्र का उच्चारण बढ़ रहा था, कमरे से अजीब आवाजें सुनाई पड़ने लगी। रीता की दर्द से भरी चीखें कानों को लहूलुहान किए जा रही थी। एकाएक सुधा का फोन बज उठा, ” रितेश का एक्सिडेंट हो गया है। आप जल्दी हॉस्पिटल पहुँचिये!”
बेटे का नाम सुनते ही सुधा बदहवास सी कमरे से बाहर की ओर भागी। बाहर निकलते ही विधि खंडित हो गई और रीता के हँसने की आवाज से कमरा गूँज उठा।
सुधा ने फिर से उसी नंबर पर फोन मिलाने के लिए जैसे ही फोन देखा, वहाँ कोई कॉल ही नहीं थी। कुछ क्षण तक वो यूँ ही ठगी सी खड़ी रही। फिर अगले ही पल दौड़ते हुए मौलवी साहब के पास पहुँची तो वहाँ का नजारा देख कर दंग रह गई। कुर्सी के दोनों हत्थे उखड़ चुके थे, जिनसे रीता को बांधा गया था। मौलवी साहब खून से लथपथ जमीन पर गिरे पड़े थे। और पास ही में रीता मूर्छित अवस्था में गिरी हुई थी। बेहोश होने से पहले अपनी जान की बाजी लगा कर मौलवी साहब ने ताबीज रीता के गले में पहना दिया था।
सुधा ने बाहर लोगों की मदद से मौलवी जी को हस्पताल पहुंचाया। काफी दिनों के इलाज के बाद वे चलने फिरने लायक हुए। इधर रीता बिल्कुल सामान्य थी। सबको यकीन हो गया था कि मौलवी जी का ताबीज काम कर गया है। बस एक ही बात असामान्य थी वो यह कि सुधा अब कुछ बीमार सी रहने लगी थी। नीम हकीम किसी के भी पकड़ में उसका रोग नहीं आ रहा था। दिनो दिन भीतर से खोखले होते शरीर के ठीक होने की कोई आस बाकी नहीं थी। अन्ततः सुधा ने अपनी आंखों के सामने रीता के हाथ पीले करने का फैसला किया। कई प्रयासों के बाद एक संस्कारी, और अच्छा कमाने वाले लड़के से रीता का ब्याह तय हो गया।
शीघ्र ही ब्याह की तारीख भी निकल गई और सात फेरे लेकर रीता, बिना मां बाप के एकलौते बेटे की दुल्हन बन कर कुछ ही दूरी पर स्थित पिया के आँगन में आ पहुँची।
पहली रात को पूरे घर में एक चुप्पी सी पसरी हुई थी। रात के बारह बजे उस मनहूस चुप्पी को तोड़ते हुए राजीव ने कहा, “बहुते इंतज़ार कराया, बहुत तड़पे हैं तुम्हरे लिए, आज से तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ हमरी हो, सदा के लिए!”
घूँघट की ओट से झाँक कर राजीव की ओर देखा तो पाया उसकी आँखें में सुर्खी तैर रही थी। आवाज इतनी भारी कि सुनकर ही वो कांप उठी थी। राजीव ने कसकर उसे बाहों में जकड़ रखा था। शैतानी मुस्कुराहट होंठों पर बखेर उसने जो कहा उसे सुनकर रीता चक्कर खाकर नीचे गिर पड़ी।
” मैं तृप्त हुई! राजीव के शरीर के साथ साथ मैंने सात फेरे लिए हैं तुझसे, दुनिया की कोई तांत्रिक शक्ति अब मुझे तुझसे अलग नहीं कर सकती। अब मैं अतृप्त नहीं!”