अतृप्त – सरिता गर्ग ‘सरि’

नारी -मन की संवेदना की अछूती कहानी

          उस रात  उसकी सुगन्धित देह को घर्षण और चोट से रौंदता वो आनंद पाता रहा और वो ठंडी और निष्प्राण चादर -सी ,वक्त की सिलवटों से मुड़ी -तुड़ी बिस्तर पर बिछी रही । इसी तरह वो हर रात रौंदी जाती रही,उस पर बलात्कार होता रहा,फिर भी वो मुस्कुराती रही और सूखी नदी सी बहती रही। उसने उससे कभी शिकायत नहीं की। वो उसके तन में उतरता रहा पर मन में कभी न उतर पाया। टटोल न पाया उसका अंतर्मन।

     जब कभी वो  खौफनाक हँसी हँसती तो वो उसे विस्फारित आंखों से देखता। एक प्रश्न हमेशा उसके मन में तैरता ,  सब कुछ सौंप कर यह हँसती क्यों है ? पूछने पर भी उसे जवाब नहीं मिलता। सामने से उसे सब ठीक नजर आता और वह बराबर के बिस्तर पर ,

बिना उसकी परवाह किये ,गहरी नींद में लुढ़क जाता । खुली आँखों से छत की दीवार को चीरती उसकी पनियाली आँखें नीले आकाश में  खुद को तलाशती । पथराई सी आँखें धीरे-धीरे  बुझते दीपक सी हो जाती । वो शनैः-शनैः मर रही थी, पर मन की घुटन कह नहीं पाती।

वो पूछता तुम उदास लगती हो सब कुछ तो है तुम्हारे पास घर, गाड़ी ,नौकर -चाकर ,कमाऊ पति किस चीज की कमी है तुम्हें और वो उसे गहरी नजर से देखती , जैसे पूछ रही हो ‘रोज मेरे तन से गुजर जाते हो ,वाकई क्या सब कुछ दे पाए मुझे। तन भीग जाता है पर मन क्यों नहीं भीग पाता मेरा ,

क्यों हर बार एक अतृप्त प्यास मेरे मन पर सूखे होंठों की पपड़ी -सी जम जाती है ,क्यों हिम-सी ठंडी हो जाती हूँ ‘? वो सोचती क्यों विधाता भी उसे ढाल कर समझ न पाया और किसी भी क्यों का जवाब वो खुद भी न पा सकी। नियति से समझौते के बाद वो टूट कर बिखर गई, मगर कभी किसी से बाँट न पाई अपनी तन्हाई और सूनापन । हर रात एक वजनी ट्रेन उसके तन-मन से गुजरती रही और  पटरियों के बीच क्षत-विक्षत उसकी रूह तड़पती रही ।।           

इस गहन पीड़ा के सागर में डूबते – उतराते, बेमकसद जिंदगी के बीच झूलती , अनगिनत बोझिल पल झेलती अपने मन के कमरे के उधड़े प्लास्टर  पर सिर टेके घण्टों शून्य दीवार देखती। वो उसे किसी मनोरोग से ग्रसित समझता। उसे वीरान आँखों से कहीं टकटकी लगाए देखता तो कहता, जाओ जाकर किसी डॉक्टर को दिखाओ तुम पागल होती जा रही हो। जब वो उसकी ओर एकटक देखती, वह डर जाता था और तुरन्त कमरे से बाहर चला जाता।



        कभी वो यूँ ही निरुद्देश्य सड़क पर चलती चली जाती , किसी अज्ञात मंजिल पर  बढ़ते  हुए अचानक ठिठक कर तन्त्रा से जागती ‘मैं कहाँ हूँ’ ? घर लौट कर निढाल सी बिस्तर पर घंटो पड़ी रहती। सूना घर काटने को आता तो सागर की गीली रेत पर जा बैठती। बीच सागर पर तैरते किसी समुद्री जहाज पर बैठे पंछी जैसी हालत उसकी हो जाती जो बीच सागर से कहीं उड़ जाना चाहता है मगर बार -बार उसी जहाज पर वापस आना उसकी नियति है। उसके घर लौटने से पहले ही वो भी घर लौट आती और यंत्रचालित सी घर के सब काम पूरे करती।

          जब सुध में होती तो खुद से सवाल करती ‘यह मुझे क्या हो जाता है, मेरा दुख क्या है, मैं क्यों भटकती घूमती हूँ, क्यों कभी -कभी मुझे लगता है ईश्वर मेरे लिए कुछ अच्छा सोच रहा है’। यही सब सोचते -सोचते वह फिर खुद में गुम हो जाती

वह धीरे -धीरे अंदर से कुछ बदल रही थी। अब वह कहीं बाहर नहीं जाती। घण्टों आंखें बंद किए बैठी रहती। कोई अनजानी शक्ति उसे अपनी ओर खींच रही थी। आज उसका मन किया मंदिर चली जाऊँ,शायद मन को कुछ शांति मिले और उसके कदम बढ़ गए मंदिर की ओर । वहां वह ऑंखें बन्द किए बैठी थी,मगर आँखें में तरल नेह घुमड़ रहा था। उसे लगा वह मीरा बन गई है। आसपास से बेखबर ,कानों में मंदिर के घण्टों की मधुर ध्वनि में लीन थी ,सामने उसके कृष्णा थे।



          आरती खत्म हुई ,प्रसाद लिए उसके सम्मुख खड़ा अनजान उसे पुकारता एकटक उसी को देख रहा था। यन्त्रचालित से दोनों हाथ प्रसाद के लिए आगे बढ़ाए उसकी नजरें उसी पर अटक कर रह गई। प्रसाद लेने वाला और देने वाला दोनों कुछ देर के लिए दुनिया भूल गए।

यह कैसा सम्मोहन था जिसने उसे बाहुपाश में कस के जकड़ लिया । सब चले गए। मंदिर खाली था, वह भगवान के चरणों में गिर फूट -फूट कर रो पड़ी। न जाने कितनी बर्फ की तहें सीने पर लिए घूम रही थी, एकाएक सारी हिम एक साथ पिघल गईं और एक सैलाब सब बांध तोड़ ,

आंखों के रास्ते बह चला। उसे लगा किसी ने धीरे से उसे मीरा कहकर पुकारा , जब सुध में आकर ऑंखें खोली ,वही अनजान उसके पास खड़ा था ,क्या यही मेरा कान्हा है जिसने मुझे पुकारा। वह चुपचाप धीरे से उठी और कदम घर की तरफ बढ़ा दिए।

         वह पूरा दिन ,पूरी रात बहुत बेचैन थी। वह उसी के बारे में सोच रही थी। अगली सुबह कोई अनजान शक्ति उसका हाथ थामे फिर मंदिर की ओर बढ़ चली। मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा वही अनजाना इकतारा हाथ में थामे, आंखें बंद किए गा रहा था-

‘काहे को पीर जगाई रे…’ और वह शून्य में निहारती  उसी के पास बैठ गई। मन में उठता अंतर्द्वंद  पर्वतों की तलहटी पर सिर धुनती लहरों सा

क्रंदन करता छाती फाड़ बाहर आने को मचल रहा था। एक तरफ उसका

मुरझाया अतीत पीड़ा के गहरे सागर में डूब-उतरा रहा था दूरी तरफ अनजानी मगर मोहक प्रीत भरी दुनिया उसे अपनी ओर खींच रही थी। अचानक जैसे उसे राह सूझ गई। मन को शांत कर बन्द आँखों में प्रभु का आह्वान कर अपने जीवन का निर्णय  उसी पर छोड़ स्थिर ध्यानमग्न हो गई।

सरिता गर्ग ‘सरि’

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