चारूदत्ता…जितना प्यारा नाम उतनी ही प्यारी सूरत और सीरत थी उसकी। ग्रामीण परिवेश, प्रकृति के अंचल में पली बड़ी, धार्मिक आचार विचार से संस्कारित चारूदत्ता, प्रखर बुद्धि की थी। गाँव में लड़कियों के लिए आठवीं तक का स्कूल था, आगे हायर सैकण्डरी और ग्रेजुएशन की पढ़ाई उसने प्राइवेट फार्म भरके की। चारूदत्ता के सपने ज्यादा बड़े नहीं थे, वह तो अपनी माँ और भाभी की तरह कुशल गृहिणी बनकर अपना जीवन यापन करना चाहती थी।
वह गृहकार्य में दक्ष और मृदु भाषी थी। हर तीज त्यौहार अपनी सहेलियों और परिवार के साथ प्रसन्न मन से मनाती। सजने संवरने का उसे बहुत शोक था। साड़ी, लहंगा चुन्नी अच्छे चटक रंग के सिलवाना, उसके मैच की चूड़ियों से उसकी कलाइयाँ हमेशा भरी रहती, हाथों में मेहंदी रचाती, बालों में जूड़ा बनाती और कभी लम्बी चोटी।
उसकी घनी लम्बी चोटी कमर तक लहराती और मजाल है उसमें वैणी लगाना भूल जाए। उसे घंघरू वाले बजने वाले पायल ही पसन्द थे। तीन भाइयों की सबसे छोटी लाड़ली बहिन थी वो। हर त्यौहार पर भाभियों को भी अच्छे से तैयार करती, अगर वे आलस करती तो भौजाइयों की लाड़ली ननन्द नाराज हो जाती।
अपनी भाभियों के साथ चुहल बाजी करती, मान मनुहार करती, त्यौहार बड़े प्रेम से मनाती। हर त्यौहार पर बनठन कर आइने में चेहरा निखरती। भाभियाँ मजाक करती -‘बस मांग में सिंदूर की कमी है लाडो। हम मांग में सिंदूर भरने वाले राजकुमार को ढूंढ रही है।’चारूदत्ता लजा जाती और भाभियों पर बनावटी गुस्सा दिखाती।
दरअसल उसे भी सिंदूर से भरी हुई मांग बहुत सुन्दर लगती थी। उसकी विवाह की उम्र हो गई थी और उसकी आँखों मे भी किसी का इन्तजार लहराने लगा था। मन उत्सुक था, उस अजनबी से मिलने के लिए, जो उसकी मांग में सिंदूर भरके जीवन भर उसका साथ निभाएगा।
चारूदत्ता की सुन्दरता और उसके गुणों की चर्चा उनके समाज में फैलने लगी थी। एक बार किसी सामाजिक कार्यक्रम में शेखर ने उसे देखा तो देखता ही रह गया। शेखर एक संभ्रांत परिवार का इकलौता लड़का था। उसकी बड़ी बहिन थी जिसकी शादी हो गई थी। शेखर एक बैंक में नौकरी करता था और सजीला जवान था।
उसने अपनी पसंद अपने माता पिता को बताई । वे चारूदत्ता के घर गए और उन्होंने चारूदत्ता के माता- पिता से अपने बेटे के लिए चारूदत्ता का हाथ मांगा। रमेश बाबू और रमा को यह रिश्ता बहुत पसन्द आया, उन्होंने अपने बेटो से सलाह की और रिश्ता पक्का हो गया। विवाह की तारिख निश्चित हो गई ।
अब तो चारूदत्ता की भाभिया उससे रोज मजाक करती आखिर लाडो की मांग में सिंदूर भरने वाले जमाई जी मिल ही गए, सुनकर चारूदत्ता के गोरे कपोल गुलाबी हो जाते। उसे अपने श्रंगार में सिंदूर की कमी लगती थी और वह भी अब पूरी होने वाली थी। और वह दिन भी आया जब उसकी शादी हुई और शेखर ने उसकी मांग में सिंदूर भरा।
वह बहुत खुश थी, मगर यह क्या? उसकी मांग में जलन होने लगी, वह दर्द से तिलमिला उठी। मगर समय की नजाकत को देखकर वह दर्द उसने सहन कर लिया। उसकी मांग में सिंदूर भरने के कारण जलन हो रही थी और उसमें छोटे-छोटे छाले आ गए थे। वह बिदा होकर ससुराल आ गई, उसने अपनी मांग को घूंघट से ढक रखा था।
ससुराल की सारी रस्में उसने प्रेम से निभाई अपने दर्द की भनक भी किसी को नहीं लगने दी, सुहाग सेज पर शेखर ने उसका घूंघट खोला और उसकी मांग में सिंदूर भरने के लिए जैसे ही सिंदूर चुटकी में लिया उसके हाथ पर अश्रु की बूंदे गिरी, उसने चेहरा ऊपर करके देखा तो चारूदत्ता की मांग पर नजर पड़ी।
अरे यह क्या? यहाँ तो घाव हो रहा है, चारूदत्ता की ऑंखो में ऑंसू झिलमिला रहै थे।उसने सिंदूर को नीचे रखा, और चारूदत्ता के अश्रु को अपनी हथेलियों में झेल लिया और पूछा -‘चारू तुम्हें इतना दर्द हो रहा था, तो तुमने किसी को कुछ कहा क्यों नहीं?’ ‘बस वैसे ही… घर में सब लोग इतने खुश थे कि उनकी खुशी के आगे मेरा यह दर्द कुछ भी नहीं लगा।
मुझे दुख इस बात का है कि यह पवित्र सिंदूर मेरी मांग में….’ कहते कहते वह रो पढ़ी। शेखर उसके मासूम, पवित्र चेहरे को देख कर मुग्ध हो रहा था। वह बोला- ‘ठीक है तुम रोओ मत हो सकता है तुम्हें सिंदूर से एलर्जी हो, कल डॉक्टर को बता देंगे । रही बात तुम्हारे मांग में सिंदूर भरने की, तो भई वह तो मैं रोज भरूँगा, तरीका जरूर अलग होगा।’ कहते हुए उसने चारूदत्ता की मांग पर अपने होटों से प्यार की एक मोहर लगा दी, चारूदत्ता का चेहरा खिल उठा था। शेखर ने कहा- ‘अब तो खुश हदिया-वह कुछ नहीं बोली बस शेखर की बाहों में ढुलक गई।
दूसरे दिन शेखर ने मॉं को बताया और चारूदत्ता को डॉक्टर के यहाँ ले गया, उसका अनुमान सही था चारूदत्ता को सिंदूर से एलर्जी थी, और इस वजह से उसकी मांग में घाव हो गया था। शेखर के घर अभी कुछ मेहमान रूके हुए थे, शेखर और चारूदत्ता को इस तरह घर से बाहर जाते देख कर उनमें कानाफूसी शुरू हो गई थी।
शेखर की माँ मालिनी जी ने किसी से कुछ नहीं छिपाया,और सबको सच बता दिया, वे जानती थी कि एक झूठ, सौ झूठ को जन्म देता है। जब चारूदत्ता घर आई तो उसके कानो में किसी मेहमान की आवाज पड़ी- ‘भई, सिंदूर तो सुहागन का गहना होता है, बिना सिंदूर के कैसी सुहागन।’
यह बात मालिनी जी ने भी सुनी, वे समझदार महिला थी, इस समय बात को बढ़ाने से ज्यादा जरूरी उन्हें अपनी बहु की चिन्ता थी। वे सोच रही थी कि बहू को कितना बुरा लगा होगा। वे उसके पास गई, प्यार से उसके सिर पर हाथ रखा तो वह रो पड़ी। अनायास उसके मुंह से निकला- ‘मॉं! मुझे डॉक्टर ने सिंदूर से एलर्जी बताई है, मैं क्या करूँ?
सब लोग मेरे बारे में क्या कह रहे हैं।’ उसकी रूलाई फूट पड़ी। उसका इस तरह मॉं कहना मालिनी जी को अन्दर तक भिगो गया। उन्होंने कहा-‘बेटा चारू सबसे पहले तो तुम रोना बंद करो, घर की लक्ष्मी रोते हुए अच्छी नहीं लगती। बेटा लोगों की बातों पर ध्यान मत दो, उनका तो काम ही है बात का बतंगड़ बनाना।
शेखर ने, मैंने और तुम्हारे बाबूजी ने तो तुमसे कुछ नहीं कहा ना। बेटा ये सिंदूर तो एक प्रतीक मात्र है असली सिंदूर तो मन की वह पवित्र भावना है कि हम अपने पति की लम्बी स्वस्थ आयु की ईश्वर से प्रार्थना करें,उसका हर परिस्थिति में साथ दें। तुम अपनी मांग में सिंदूर नहीं लगा सकती, इसमें तुम्हारा तो कोई दोष नहीं है,
बस तुम शेखर के प्रति अपनी पवित्र भावना रखो वही तुम्हारे मांग का सिंदूर है। और तुम अगर चाहो तो मांग में न सही सिंदूर की पुड़िया अपने साथ में रख सकती हो।’ चारूदत्ता के मन का बोझ हल्का हो गया था उसने आगे बढ़ कर मालिनी जी के पैर छुए और उन्होंने आशीर्वाद दिया – ‘खुश रहो, तुम्हारा सिंदूर अमर रहै।’
उस समय शेखर भी आ गया था, उसने हौले से चारूदत्ता के कान में कहा -‘क्यों चिन्ता करती हो मैं हूँ ना, तुम्हारी मांग में सिंदूर भरने के लिए।’ चारूदत्ता के होटों पर मुस्कान खिल उठी थी, उसे लग रहा था कि उसकी मांग का सिंदूर झिलमिला रहा है।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित