असली पुरस्कार – लतिका श्रीवास्तव  : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi :

कितनी इज़्ज़त कितना सम्मान है मेरा यहां इतना कहीं और कभी नहीं मिल सकता… सुमेधा का प्रमोशन हो गया था और विदाई का भव्य समारोह शहर के प्रतिष्ठित स्कूल के विशाल सभागार में संपन्न हो रहा था….सुमेधा का मन मस्तिष्क गर्व  सम्मान और संतुष्टि पूर्ण प्रसन्नता से आप्लावित हो रहा था।

कितना अरमान था सुमेधा को अर्थात मुझको कि प्राचार्य पद का प्रमोशन मिले और मैं प्राचार्य बनूं…. कुछ ऐसा अलग कर दिखाऊं कि पूरे शहर में मेरी धाक जम जाए ….एक सुयोग्य लोकप्रिय दक्ष प्राचार्य का पुरस्कार  मुझे मिले…आज ये सारे दिल के अरमान पूरे करने का दिन आ चुका था …!

लेकिन…..

टेढ़ी मेढी पगडंडियों उबड़खाबड़ रास्तों और नदी के किनारे किनारे तंग रास्तों से दो चार होते हुए दुपहिया वाहन से जब हम उस विद्यालय  पहुंचे जहां मेरी पदोन्नति पदस्थापना हुई थी…तो मेरा दिल डूब ही गया…एक ही पल में प्राचार्य बनने का सारा उत्साह कपूर की मानिंद हवा में उड़ गया …कितना ज्यादा पिछड़ा गांव है एक भी पक्का मकान नहीं दिख रहा वही फूस के छप्पर वाली कच्ची मिट्टी की दीवाल वाली कतार बद्ध झोपड़ियां…और ये रहा वो स्कूल ..!!..जिसके मेन गेट के ठीक सामने रास्ते के दोनो ओर दो खंडहर नुमा भग्न्न कमरे मनहूसियत की जीती जागती तस्वीर सदृश्य खड़े थे!स्कूल के प्रवेश मार्ग पर ही मनहूस डेरा….!मन बुझ सा गया!

शाम हो चली थी वहां पहुंचते पहुंचते….किसी तरह स्कूल के मुख्य दरवाजे की छड़ों से झांक कर देखा तो स्कूल के अंदर बहुत गंदगी और अव्यवस्था नजर आई…लाइट तक नहीं थी वहां….दिल और बैठ गया..कितने पिछड़े और असभ्य विद्यार्थी होंगे यहां के उफ्फ .!!यहां मुझे आना है यहां की प्राचार्य हूं मैं!!!!वो सारे सपने और अरमान प्राचार्य बनने के और एक शानदार स्कूल प्राचार्य का पुरस्कार प्राप्त करने के….विखंडित हो बिखर गए थे!

मैने तुरंत वापिस लौटने का फैसला किया और वापिसी में रास्ते भर वहां नहीं जाने का संकल्प करती रही….एक तो घर से इतनी दूर कैसे रोज आना जाना कर पाऊंगी….अभी तक की नौकरी में हमेशा घर के ही पास स्कूल मिलता रहा…पैदल ही आना जाना सुलभ हो जाता था….शहर के सुव्यवस्थित सर्वसुविधायुक्त अनुशासित विद्यार्थियों वाले स्कूल की आदी हो चुकी मैं ऐसे दूरस्थ ग्रामीण अंचल के विद्युत विहीन  स्कूल में सांस भी कैसे ले पाऊंगी…हिम्मत खत्म थी इरादा पक्का था ….

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नहीं चाहिए प्रमोशन!!

सरकारी नौकरी और वो भी शिक्षा विभाग में ..!!विडंबना ये हो जाती है कि जिस पद पर नियुक्ति होती है लगभग  उसी पद पर रिटायरमेंट हो जाता है!एक अदद प्रमोशन को सरकारी कर्मचारी तरस जाता है..!जब एक ही घिसे पिटे ढर्रे से नौकरी करते हुए जीवन और नौकरी दोनो उत्साहहीन प्रतीत होने लगते हैं जीवन का संध्या काल आरंभ हो जाता है ….थका हुआ तन मन आराम की राह तलाशने लगता है तब प्रमोशन मिलना अब मानो  जिंदगी के सुख दांव पर लगाने जैसा लग रहा था मुझे!!

घर में सभी सदस्य बेसब्री से मेरी उत्साह पूर्ण प्रतिक्रिया के लिए बेसब्र हो रहे थे….आखिर प्राचार्य बनने की मेरी दिली ख्वाहिश पूरी होने का अद्भुत दिन था ये…..मेरी ज्वाइनिंग की शानदार पार्टी का प्रोग्राम तैयार हो चुका था…!सच में जब मैं छोटी थी तब मैंने अपने स्कूल की प्राचार्या को देखा था सराहा था …कितनी शान कितना रौब …हर जगह कितनी लोकप्रियता और इज्जत सम्मान ….बस तभी से मेरे हृदय में प्राचार्य बन कर कुछ कर दिखाने के अरमान का बीजारोपण हो गया था….!

…..अगर प्रमोशन का मतलब ऐसा देहात और ऐसा पिछड़ा स्कूल होता है ….तो मुझे नहीं लेना प्रमोशन …इससे अच्छा है कि मैं यहीं अपने शहर के पुराने स्कूल में पुराने पद पर ही बनी रहूं…यहां सब कुछ व्यवस्थित और सुविधा पूर्ण है घर के बगल में स्कूल है…!इतनी परेशानी कष्ट और इतना बुरा सा स्कूल…!!!ये तो  बिलकुल भी मेरे ड्रीम स्कूल जैसा नहीं था..!!!मैं अभी प्रमोशन पर नहीं जाने का एप्लीकेशन लिख दूंगी…सबकी उत्सुक और प्रश्नवाचक निगाहों को घोर निराशाजनक उत्तर देते हुए मैं अपने कमरे में आकर बिस्तर पर लेट गई…. आंखें बंद कर लिया मैंने….निराशा और हताशा के घटाघोप अंधेरे में खो सी गई थी मैं..!

पता नहीं लेटे लेटे ही कब मेरी आंख लग गई ….एक स्वप्न सा मेरे दृष्टि पटल पर कौंध गया… कि….

मैं अपने पुराने पद पर पुराने स्कूल में  पहुंच गईं हूं…सभी शिक्षक साथियों के चेहरों पर मेरे लिए उपहास युक्त हंसी थी…कुछ विद्यार्थी मेरे वापिस आने से खुश थे तो कुछ मजाक उड़ा रहे थे..मैडम आप क्यों वापिस आ गईं इसी स्कूल में!शहर में रहने की आदत पड़ गई है आपकी !!इतनी मेहनत अब आपसे नहीं हो पाएगी सही बात है!!!…. विद्यार्थियों के हर जटिल प्रश्नों और जिज्ञासा को संतुष्ट करने वाली मैं आज अपने ही विद्यार्थियों के इन अटपटे प्रश्नों के सामने निरुत्तर थी…!

…अरे वो गांव का छोटा स्कूल है ….वहां बहुत ज्यादा काम करना पड़ेगा ….वो अब इनसे होगा नहीं…मेरे सहकर्मी मुझ पर हंस रहे थे…!निर्मला मेरी जूनियर अब मेरी प्राचार्य बन गई थी मुझको आदेशित कर रही थी…अपने ही स्कूल में मैं आज अपरिचित और असहाय महसूस कर रही थी…चपरासी तक की नजरों में मैं आज  अक्षम और अयोग्य साबित हो चुकी थी…!!मेरा गला भर आया ..

मम्मी उठो उठो क्या हो गया है आप रो क्यों रही हो …लो पानी पी लो….पापा देखो मम्मी रो रही हैं…..बिटिया टीना मेरे गले से लिपट कर मुझे दिलासा दे रही थी…मैं स्वप्न से जाग गई….शुक्र है कि ये सब स्वप्न में हो रहा था…इस स्वप्न ने जैसे मुझे आगे का मार्ग दिखा दिया था…!…

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तब तक पूरा घर मेरे पास इकठ्ठा हो गया था…प्लीज तुम इस कदर दुखी मत हो …. नहीं इच्छा है वहां जाने की तो मत जाओ हम लोग तुम्हे खुश देखना चाहते हैं तुम्हीं को प्रमोशन और प्राचार्य की चाहत थी इसीलिए हम लोग तुम्हारी चाहत पूरी होने की खुशी में पार्टी कर रहे थे परंतु अगर तुम्हे दुख हो रहा है तो ऐसा प्रमोशन किस काम का रहने दो…सही बात है इतनी दूर आना जाना …वो गांव देहात का स्कूल …असुविधाएं….असभ्य बच्चे …और कितना काम वो भी सब नया …बहुत कठिन ज़िंदगी हो जायेगी तुम्हारी ..ठीक ही नहीं जाने की सोच रही हो…सभी कह रहे थे..!

“अरे बस करो….. किसने कहा मैं गांव में नहीं जाना चाहती …किसने कहा मैं ये सब नहीं कर पाऊंगी …क्या मैं इतनी अशक्त हो गई हूं …सामने मेरी मंज़िल है और मैं उसे ठुकरा रही हूं..मैं समझ चुकी हूं कि अब इस पुराने स्कूल में जाने से मुझे वो इज्जत और सम्मान नहीं मिल सकता …अपने विद्यार्थियों के सामने बड़ी बड़ी बातें करने वाली मैं आज चुनौती का सामना करने से डर रही हूं …क्या शिक्षा दे रही हूं मैं अपने इस पालयनवादी निर्णय से उन्हें!!!

मुझे जाना है वो मेरा स्कूल है मैं वहां की प्राचार्य हूं …मेरा दिली अरमान था शहर के सबसे बड़े विद्यालय की लोकप्रिय प्राचार्य बनने का कुछ अलग कर दिखाने का…  बड़ा स्कूल शहर का स्कूल नहीं मिला तो क्या हुआ…गांव में ही तो कुछ बेहतर करने की आवश्यकता है  उस गांव के स्कूल को इस शहर के स्कूल जैसा ही बना दूंगी देख लेना…गांव के बच्चों के लिए बेहतर शैक्षणिक और सुसंस्कृत वातावरण निर्मित करने में जी जान लगा दूंगी  …उस गांव के स्कूल के बच्चे अब मेरी जवाबदारी है कुछ अलग कर दिखाने के मेरे अरमानों को उड़ने के लिए अभी ही तो आसमान मिला है …शहर के बच्चों के पास तो सब कुछ है गांव के बच्चों के लिए कुछ कर सकूं यही तो अलग बात होगी …बल्कि शहर से भी बेहतर बनाने की पुरजोर कोशिश करूंगी …तभी चैन से बैठूंगी …कहते कहते मैं हांफने लगी थी…

आश्चर्य चकित था पूरा घर मेरे तुरंत परिवर्तित रूप को देख कर ….जोर जोर से तालियां बजाते हुए सबने जोर से हर्षध्वनी की और तभी टीना ने कहा  “…तो फिर आज की पार्टी तो पक्की हैना मम्मी..!” मैने कहा हां हां एकदम पक्की ..मेरी तरफ से होगी आज की पार्टी एकदम पक्की वाली और कल सब लोग मेरे साथ मेरे नए स्कूल चलने की तैयारी कर लो…..!

 

कठिन कुछ नहीं होता चाह लो अगर….मेरे अरमानों को नई दिशा नवीन पंख मिल चुके थे …वे ऊंची उड़ान भरने को अधीर थे..।

… ….ठीक एक वर्ष के बाद आज सुमेधा के गांव के विद्यालय की रंगत बदल चुकी थी …पूरे विद्यालय में विद्युत आपूर्ति हर कक्ष में नवीन पंखे कंप्यूटर स्मार्ट क्लास बैडमिंटन और क्रिकेट खेलते अनुशासित विद्यार्थी हाथ में माईक लेकर अपनी बातें पूरे आत्मविश्वास से अभिव्यक्त करते बच्चे साफ सुथरा विद्यालय सहज रोचक अध्यापन कार्य करते अध्यापक …..यही तो ख्वाहिश थी सुमेधा की यही तो करना चाहती थी वो प्राचार्य बन कर ….ऐसा स्कूल बनाना ही तो असली पुरस्कार था उसका…!

लतिका श्रीवास्तव 

#अरमान

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