आशीर्वाद या श्राप ” ये मेरा सच है – रचना कंडवाल

आज कहानी की शुरुआत मैं जयनारायण दीक्षित अपने आप से कर रहा हूँ। मैं एक बेहद प्रसिद्ध बिजनेस मैन हूँ। मेरी गिनती शहर के नामचीन लोगों में होती है। उम्र पचपन साल पर लोग मुझे स्मार्ट ‌व हैंडसम कहते हैं। अब मेरे परिवार से मिलिए मेरी बीवी सुनीता दीक्षित व बेटी मुग्धा। मुग्धा छब्बीस साल की है व इंजीनियर है मेरी आंखों का तारा मेरी इकलौती बेटी एक महीनें बाद उसकी शादी होने वाली है।

हमारा दामाद ‌नरेन्द्र आईआईटी इंजीनियर है। मुग्धा की पसंद है। अच्छी कैसे नहीं होगी। सब तैयारी हो चुकी है एक से बढ़कर एक इंतजाम किए हैं कि दुनिया देख ले… जयनारायण दीक्षित बेटी की शादी कैसे कर ‌रहा है।

अरे सुनीता! जरा चाय पिलाओ कहां है मेरी लाड़ली मुग्धा। सुनीता मुग्धा के सिर पर तेल की मालिश कर रही है। मुग्धा आकर मेरे पीछे खड़ी होकर अपनी बाहें मेरे गले में डाल बोली “ओहो पापा मैं यहां हूँ जब मैं चली जाऊंगी तो आपका क्या होगा?” “मैं तेरा ससुराल यहीं ले आऊंगा। मेरी बिटिया को पापा के रहते भला किस चीज की कमी हो सकती है। मुग्धा तुम नरेंद्र में क्या-क्या खूबी चाहती हो मैंने उसका हाथ पकड़ कर अपनी बगल में बैठाते हुए पूछा।” मुग्धा मुझे देख कर पलक झपकाते हुए मुस्कराई पापा मैं चाहती हूँ नरेंद्र ऐसा ही पति बने जैसे आप हैं। मुझे आशीर्वाद ‌दीजिये।


मेरी पकड़ उसके हाथ पर से ढी़ली हो गई। सुनीता सामने खड़ी थी। पलट कर किचन में चली गई। मुझे पता है कि वो किचन में रो रही होगी। क्योंकि ऐसा हमेशा हुआ है। मेरा अहंकार हमेशा जीतता आया है।

” पापा बिस्किट लीजिए” मैं अभी आती हूँ।

उसके जाते ही मैं गहन सोच में डूब गया। क्या उसे ऐसा आशीर्वाद ‌दूं???? कि नरेंद्र मेरे जैसा पति बने।

“नहीं कभी नहीं”मन बेचैन हो उठा है।

सुनीता जब शादी होकर मेरे घर आई थी बहुत मासूम खुबसूरत भोली थी। मेरी माँ व बहन उतनी ही तेज व कठोर उन्होंने उसे अपने कठोर अनुशासन और तंजों से तंग करना शुरू किया तो मैंने कभी उन्हें रोका नहीं…. यह जानते हुए भी कि वो ग़लत कर रहे हैं। उसे असहाय देख कर अपने को गर्वित महसूस करना मेरा स्वभाव हो चुका था।‌ माँ की मृत्यु के बाद मैंने अपना व्यवहार ऐसा बनाया उसे बिना गलती के डांटना उसमें ढेरों नुक्स निकालना वो समझौता करती गई।

जब वह कभी मायके का नाम लेती तो उसके मम्मी-पापा, उसके भाई के लिए कुछ न कुछ बुरा कहना मैंने अपनी आदत बना ली थी। धीरे-धीरे उसने उनका जिक्र करना बंद कर दिया। राखी पर वह मायके जाने को पूछती तो उस एक दिन भेजने पर मैं उसे ढेरों अहसान से लाद देता। उसके मायके से कोई भी आता तो मैं उन से सीधे मुंह बात नहीं करता था। एक इंसान को कठपुतली बना दिया था अपने इशारों पर नाचने वाली। वो खामोश हो गई जो कहता हूँ चुपचाप से मान लेती है कोई राय देना चाहती है तो उसकी राय मेरे लिए अहमियत नहीं रखती। घर में एक निर्जीव वस्तु की तरह एक कोने में पड़ी मन हुआ तो इस्तेमाल कर लिया नहीं तो कोई जरूरत नहीं और मुग्धा कहती है कि नरेन्द्र मेरी तरह पति बने ऐसा आशीर्वाद कैसे दे दूं उसे।


ये आशीर्वाद नहीं ‌एक बद्दुआ होगी। सुनीता किचन में खडी़ है जरूर उसकी आंखों में आंसू होंगे। सुनीता सुनो… वह बाहर आकर मेरे सामने खड़ी हो गई है। अपनी बेटी को अपनी तरफ से क्या दोगी? वह आश्चर्य से मुझे देख रही है। फिर बोली मैं क्या ‌दूंगी? आपने सब कुछ तो दे दिया है।‌ मेरे पास सिर्फ आशीर्वाद है। तुमने भी तो कोई सपना देखा ‌होगा मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। उसकी आंखों में जमाने भर का दर्द उतर आया था। डबडबाई आंखों से मुझे देखने लगी मैंने तो हमेशा अपने फैसले उस पर थोपे थे बिना उसकी राय जाने। मेरे कर्मों के लिए शायद वो मुझे माफ़ कर भी दे पर मैं अपनी नज़रों में अपने आप को कभी माफ कर पाऊंगा…. शायद कभी ‌नहीं। क्योंकि मुग्धा के एक वाक्य ने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया है कि”कि वह अपने पति में मेरे जैसे गुण चाहती है”। बहुत देर से जागा हूँ… काश ये सब पहले किया ‌होता तो जिंदगी के ‌जो खूबसूरत पल जो सुनीता मेरी वजह से जी नहीं‌ पायी कुछ तो लौटा पाता। जो जिंदगी मैं अपनी बेटी के लिए सपने में भी नहीं सोच सकता वही जिंदगी मैंने अपनी पत्नी को दी। आज समझ में ‌‌आ‌ रहा है कि मैं तब भी स्वार्थी था, और आज भी स्वार्थी हूँ। अगर आज बदलाव की चाहत है तो उसकी वजह बेटी है।

“मुझे माफ़ कर देना सुनीता” आज ये सोचते हुए आंखों में आंसू हैं। मेरा खुद का वजूद सुनीता के सामने बौना हो चुका है।

पति को हमेशा अपनी पत्नी को प्यार व‌ सम्मान देना चाहिए जिसकी वह हकदार होती है क्योंकि वह अपनी जड़ों को छोड़कर कर किसी और का घर बसाने ‌चली आती है। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि वो  भी तो किसी की बेटी  है ।

लेखिका-© रचना कंडवाल

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