अशांत… – रश्मि झा मिश्रा : Moral Stories in Hindi

“दीदी अब मुझसे नहीं होगा… तुम्हें आना ही पड़ेगा…!”

” पर आकाश… मैं कैसे आऊंगी… दोनों बच्चों का क्या करूं… कहां छोड़ूं… कुछ तो सोचो…!”

” यही सब सोच सोच कर तो… इतने दिनों से अकेला सब झेल रहा हूं… पर अब नहीं… मुझे भी अपना घर देखना है… दो महीने हो गए… अस्पताल के चक्कर लगाते…!”

” वह तो ठीक है भाई… पर तू तो जानता है बच्चे अभी छोटे हैं… और तेरे जीजा जी इन्हें रख भी नहीं पाएंगे…!”

” वह सब मैं नहीं जानता… कल से परसों तक तुम आ जाओ… जो करना है… जैसे मैनेज करना है… करो… अकेले मेरे पापा थोड़े ना हैं… जब पापा ने कभी हम दोनों में कोई भेदभाव नहीं किया… तो उनकी बीमारी का बोझ मैं अकेले क्यों उठाऊं… मैंने इतने दिनों तक अपने घर को बहुत अशांत कर लिया… अब मुझे भी शांति चाहिए…!”

 बेचारे सारस्वत जी पिछले 3 सालों से बिल्कुल अकेले पड़ गए थे… जब से पत्नी का निधन हुआ… पहले तो वह हर चीज का प्रबंध करती थीं… तो अच्छे तंदुरुस्त भी रहते थे… पर उनके जाते ही बहू ने साफ कर दिया…” मुझसे खाना बनाने खिलाने के अलावा और किसी चीज की उम्मीद भी मत रखना…!”

 एक बुजुर्ग जो पूरी तरह अपनी पत्नी पर आश्रित थे… कौन सी दवा कब लेनी है… कौन सा कपड़ा पहनना है… कौन सा धोना है… कितना खाना है… कब खाना है… सब तो उनकी धर्मपत्नी ही ध्यान रखती थीं… अचानक से इस तरह छोड़ जाएंगी इसका सारस्वत जी को पता होता तो… शायद अकेले जीना भी सीख लेते… पर अब तो जिंदगी बोझ बन गई थी…मैले कुचैले कपड़ों में बेतरतीब जिंदगी जिए जा रहे थे…

 इसी तरह अचानक आई बारिश से अपने कपड़ों को बचाने आंगन की तरफ गए ही थे कि पैर फिसल गया… कोई दस मिनट बाद तो किसी ने आवाज सुनी और जाकर उठाया… तब से 2 महीने होने को आए… इस तरह अस्पताल के फेर में पड़े जो शांति से चार दिन घर में नहीं गुजरा… पहले तो केवल पैर की हड्डी टूटी थी… पर सही से देखभाल नहीं मिल पाने के कारण… इन्फेक्शन पूरे शरीर में फैल गया… इधर पंद्रह दिनों से तो… लगातार अस्पताल में ही पड़े थे…

 एक बेटा और एक बेटी के पिता थे सारस्वत जी… बहु पहले ही पल्ला झाड़ चुकी थी… बेटा पिता को लेकर घर से अस्पताल के चक्कर लगाते थक चुका था… कभी सीधे मुंह पिता से एक बात भी ना करता था… बेचारे बिस्तर पर पड़े पड़े अपनी मौत का रास्ता देख रहे थे…

 जब आकाश अपनी बहन से आने को कह रहा था… तब भी अपने बेटे की बातें सुनकर उनकी आंखें बही जा रही थी…” काश कोई ऐसी दवा होती… जिसे पीकर… मैं अपने बेटे को मुक्त कर देता…!”

 यही आकाश था… जिसे बचपन में एक बार भयंकर डायरिया ने अपनी चपेट में ले लिया था… तब मां पिता ने पूरा घर बार त्याग कर… अस्पताल में ही पूरे 3 महीने अपना घर बना लिया था… जब तक आकाश पूरा ठीक नहीं हुआ… तब तक घर नहीं आए थे… आज वही आकाश अपनी बहन से कह रहा है कि… उसका घर अशांत हो गया है… सारस्वत जी कुछ ना बोले… वैसे भी उनकी सुनता कौन… या पूछ कौन रहा था…

 आकाश ने गुस्से में फोन काटा और अपनी पत्नी को फोन लगाया…”तनु मैंने दीदी को कह दिया है… अब वही आकर संभाले… रहे यहां… देखता हूं कब तक आती है… उसके आते ही मैं निकल जाऊंगा…!”

” हां यार… परेशान हो गई है जिंदगी…!”

” कितना बढ़िया मां घूमते फिरते निकल गई… पापा ने तो अच्छा बदला लिया हमसे… अब क्या पूरी जिंदगी अस्पताल में ही बैठा रहूं… वह तो अच्छा है कि… पापा की सरकारी नौकरी थी तो कार्ड पर इलाज मुफ्त हो रहा है… नहीं तो समय के साथ-साथ पैसे भी खत्म हो जाते… चलो ठीक है सुबह देखता हूं…!”

 सुबह-सुबह आकाश ने फिर दीदी को फोन लगाया. “आ रही हो ना दीदी… मैं निकल रहा हूं…!”

” हां आ रही हूं…!”

 दीपा ने रात में ही बच्चों के लिए सारी व्यवस्था की और सुबह निकल पड़ी अस्पताल के लिए… उसके पहुंचते ही आकाश निकल गया… 

“अच्छा हुआ दीदी तुम आ गई… अब तुम ही संभालो… मुझसे नहीं होगा…!”

 आकाश जाते-जाते पापा से मिला भी नहीं… उसके निकलने के बाद दीपा पापा के पास गई… पापा आंख मूंदे बिस्तर पर पड़े थे… इतने दिनों में ही बिस्तर से चिपक गए थे… उनकी हालत देखकर दीपा का मन रो पड़ा… दीपा ने प्यार से पापा के सर पर हाथ रखा तो पापा ने आंखें खोली… बेटी को पास खड़ा देख फफक पड़े… दीपा ने प्यार से कहा… “पापा अब आप चिंता मत करिए… मैं आ गई हूं ना…!”

 दीपा ने पूरे जतन से पापा की देखभाल की… दस ही दिनों में सारस्वत जी की हालत बहुत बेहतर हो गई थी… दीपा ने डॉक्टर से पापा को घर ले जाने की इजाजत मांगी तो… पापा सहम गए…” नहीं बेटा… मुझे यहीं रहने दे… मैं फिर से आकाश के घर को अशांत नहीं करना चाहता…और गांव में मुझसे अकेले रहा नहीं जाएगा…!” 

“अरे पापा मैं मेरे घर ले जाऊंगी…!”

” नहीं नहीं… बेटी के घर जाकर कैसे रहूंगा…!”

दीपा पहले से ही जानती थी कि पापा तैयार नहीं होंगे आसानी से… इसलिए उसने अपने पति और बच्चों को बुला लिया था… आते ही दीपा के पति बोल पड़े… “क्यों नहीं पापा… क्यों नहीं रह सकते… जब आपने बचपन से अब तक आकाश और दीपा में कोई भेदभाव नहीं किया… तो अब क्यों… चलिए… आप हमारे साथ ही रहेंगे…!”

 दोनों बच्चे… “नानू नानू चलिए ना हमारे साथ… चलिए ना…!” बोलकर जिद करने लगे तो सारस्वत जी की आंखें भर आई… आज सच में उन्हें एहसास हुआ कि मेरे बेटे और बेटी में बहुत बड़ा अंतर है… संस्कार का… भले ही परवरिश दोनों को एक सी मिली… पर मैं आकाश को संस्कार नहीं दे पाया… सोचते हुए सारस्वत जी बेटी दामाद के कंधे का सहारा लेकर… उनके घर चल दिए…

स्वलिखित 

रश्मि झा मिश्रा

2 thoughts on “अशांत… – रश्मि झा मिश्रा : Moral Stories in Hindi”

  1. Bahut sunder kahaani. Aaj ki sachai. Lakin kya yahi beti Apnea SaaS Saturday ka bhi issi Tarah khyal rakhegi.

    Reply

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!