कॉलेज की आख़िरी सालाना समारोह में जब मंच पर पूरे बैच के सामने टॉपर का नाम पुकारा गया, तो ऑडिटोरियम तालियों से गूंज उठा।
“काव्या सिंह!”
हल्के नीले रंग का सलवार सूट पहने काव्या ने घबराई-सी मुस्कान के साथ स्टेज पर कदम रखा। छोटे से कस्बे की यह लड़की महानगर की नामी प्राइवेट यूनिवर्सिटी से एमबीए कर रही थी। डिग्री लेने के बाद उसके लिए मल्टीनेशनल कंपनी का ऑफर लेटर इंतज़ार कर रहा था, और आँखों में अपने लिए, अपने माता-पिता के लिए, ढेर सारे सपने।
पीछली सीट पर बैठा अर्णव उसे लगातार देख रहा था। वही क्लास का चार्मिंग, कॉन्फिडेंट, अंग्रेज़ी में धाराप्रवाह, हमेशा महंगे इत्र और स्टाइलिश घड़ी में रहने वाला अर्णव मेहरा – शहर के बड़े बिल्डर “मेहरा ग्रुप” का इकलौता बेटा।
कॉलेज के दो साल में कई लड़कियाँ उस पर फ़िदा हुई थीं, पर उसने कभी किसी में दिलचस्पी नहीं दिखाई। पर काव्या को डिबेट, प्रेज़ेंटेशन और केस स्टडीज़ में सुनने के बाद उसके भीतर पहली बार किसी के लिए सम्मान और आकर्षण साथ-साथ जागा था।
समारोह के बाद कैंपस के कैफेटेरिया में दोनों आमने-सामने बैठे थे।
“काव्या, प्लेसमेंट के बाद क्या प्लान है?” अर्णव ने कॉफी का कप घुमाते हुए पूछा।
“जॉइन करूँगी कंपनी को, क्या प्लान होगा?” काव्या ने हँसकर कहा, “घरवालों ने भी कितना भरोसा किया है मुझ पर, पापा ने ज़मीन गिरवी रखकर मेरी फ़ीस भरी है।”
अर्णव ने सीधे उसकी आँखों में देखा।
“और अगर… कोई ऐसा साथ मिले, जो तुम्हें सिर्फ नौकरी नहीं, एक पूरी दुनिया देना चाहे? नाम, रुतबा, सुविधा… तुम्हारी पढ़ाई बेकार नहीं जाएगी, बस दिशा थोड़ी अलग होगी।”
काव्या उसकी बात समझ ही रही थी कि उसने एकदम से कहा—
“काव्या, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।”
काव्या के हाथ का कप हल्का-सा काँपा।
“तुम जानते हो न, मैं छोटे शहर के टीचर की बेटी हूँ। तुम्हारे घरवाले…?”
“पापा को मनाना मेरा काम है,” अर्णव ने तुरंत जवाब दिया, “तुम बस इतना बताओ—क्या तुम मेरे साथ अपना भविष्य देख सकती हो?”
काव्या चुप रही। आँखों के सामने पापा का सादा-सा चश्मा, माँ के हाथों की फटी उंगलियाँ, टूटी चारपाई—और दूसरी तरफ़, अर्णव की दुनिया।
कुछ दिनों की उधेड़बुन के बाद उसने पहली बार अपने दिल की ज़िद को माता-पिता की चिंता से ऊपर रख दिया।
“हाँ,” उसने एक शाम फोन पर धीरे से कहा, “अगर तुम्हारे घरवालों को कोई आपत्ति नहीं, तो मैं तैयार हूँ।”
काव्या के माता-पिता इस रिश्ते के सख़्त खिलाफ़ थे।
“रुतबे वाले घर में हमारी बेटी को कौन-सा सुख मिलेगा? उनकी दुनिया, उनकी सोच, सब अलग है,” पापा ने साफ़ कहा था।
पर अर्णव कई बार उनके घर गया, पाँव छुए, अपने सपने बताए।
उसने वादा किया—“काव्या जितनी पढ़ी-लिखी है, मैं उसे घर की चारदीवारी में नहीं बाँधूँगा, बल्कि उसे अपने बिज़नेस का पार्टनर बनाऊँगा।”
आख़िरकार बहुत समझाने-बुझाने के बाद, आँसू और दुआओं के बीच, साधारण-सी बारात मेहरा हाउस पहुँची।
मीडिया भी थी, क्योंकि मेहरा ग्रुप का इकलौता बेटे की शादी एक मिडिल क्लास लड़की से हो रही थी—“लव मैरिज, सिंपल सेरेमनी, बड़ा परिवार” जैसी सुर्खियाँ बन रही थीं।
शादी के शुरुआती महीनों में सचमुच काव्या को लगा कि उसने सही फैसला लिया है।
अर्णव हँसमुख था, अक्सर उसे डिनर पर ले जाता, शहर की ऊँची-ऊँची इमारतों से उसे बताते हुए दिखाता, “देखो, ये प्रोजेक्ट हमारा है, ये भी… कल को तुम ही संभालोगी।”
सास, ससुर भी औपचारिक तौर पर अच्छे थे।
पर धीरे-धीरे, उस चमकदार दुनिया के पीछे के धुंधले कोने सामने आने लगे।
एक रात, करीब दो बजे का समय था।
काव्या ने करवट बदली तो बिस्तर के दूसरे छोर पर स्थान खाली था।
“अर्णव…?” उसने पुकारा।
कोई जवाब नहीं।
वह उठकर ड्राइंग रूम में आई।
टेबल पर व्हिस्की की आधी खाली बोतल, चार ग्लास… और सोफ़े पर फैला पड़ा अर्णव, मोबाइल स्क्रीन पर किसी ऑनलाइन पोकर गेम में हार-जीत करते हुए गालियाँ बक रहा था। साथ में दो-तीन दोस्त भी थे, hö रहे थे।
“अर्णव… मुंह देखो, कितना लाल हो गया है तुम्हारा… अब बस करो, रात के दो बज रहे हैं,” काव्या ने चिंतित स्वर में कहा।
“तुम अंदर जाओ,” अर्णव ने झुंझलाकर कहा, “तुम्हें क्या पता बिज़नेस की दुनिया कैसी होती है। थोड़ी मस्ती, थोड़ा माल, थोड़ा रिस्क… इसे ही लाइफ कहते हैं।”
काव्या को लगा शायद यह कभी-कभार की बात होगी।
पर यह कभी-कभार, धीरे-धीरे रोज़ का हिस्सा बन गया।
दिन में ऑफिस जाता, शाम को देर से लौटता, रात को दोस्तों के साथ शराब, जुआ, क्लबिंग, विदेशी डांसर्स के साथ तस्वीरें…
सोशल मीडिया पर “नेटवर्किंग” के नाम पर वह किस तरह की दुनिया में उलझा था, यह धीरे-धीरे काव्या को समझ में आने लगा।
एक रात उसने बात करने की कोशिश की।
“अर्णव, तुम ये सब छोड़ो, ऐसा नहीं है कि मैं मॉडर्न नहीं हूँ… पर ये जो लगातार शराब, जुआ और… ये सब… ये अच्छी बात नहीं है,” काव्या ने धीरज से कहा।
अर्णव हँस पड़ा।
“तुम्हारी प्रॉब्लम यही है काव्या। तुम किताबों में टॉप कर सकती हो, पर असल दुनिया में फ़ेल हो जाओगी। हाई सोसाइटी में यह सब नॉर्मल है, समझी? तुम गांव की हो, तुम्हें ये सब ‘अय्याशी’ लगता है। Grow up, yaar!”
“मैं गाँव की नहीं, छोटे शहर की हूँ… और इंसान हूँ,” काव्या ने सख़्त स्वर में कहा, “और कोई भी इंसान रोज नशे में धुत पति और अजनबियों के साथ उसकी तस्वीरें बर्दाश्त नहीं करेगा।”
“मेरे ऊपर जजमेंट मत पास करो,” अर्णव की आवाज़ ऊँची हो गई, “तुमसे शादी मेरे लिए सबसे बड़ी गलती थी। कॉलेज में तुम्हारी ईमानदारी, तुम्हारी सादगी से इम्प्रेस हो गया था, पर अब लग रहा है तुम मेरी दुनिया के लायक नहीं हो।”
काव्या के दिल पर चोट लगी।
“तो किस दुनिया के लायक हूँ मैं? उस दुनिया के, जहाँ पापा दूध का उधार लिखवाकर मेरी फ़ीस भरते थे? जहाँ माँ हथेलियाँ फटने तक सब्जी काटती थीं? वही दुनिया शायद ज़्यादा सच्ची थी।”
झगड़े रोज़ होने लगे।
कभी बात कपड़े पर, कभी किसी पार्टी पर, कभी काव्या के ऑफिस जॉइन करने की इच्छा पर।
“तुम नौकरी क्यों करना चाहती हो? क्या कमी है यहाँ?” अर्णव पूछता।
“कमी सिर्फ पैसे की नहीं होती,” काव्या रोज़ समझाती, “कमी होती है अपनी पहचान की, अपने पैरों पर खड़े होने की…”
पाँच महीने के भीतर बात तलाक तक पहुँच गई।
“मैं इस शादी को आगे नहीं बढ़ाना चाहता,” एक रात अर्णव ने गरज कर कहा, “तुम्हारे साथ लिव-इन के लिए तो मैं तैयार था, पर तुमने तो सीधे गले में मंगलसूत्र डालवा दिया। मेरे पापा ने कितनी मुश्किल से ये इंटरकास्ट वाली शादी मान ली, अब तुम्हारे कारण उनकी इमेज पर फर्क पड़ेगा।”
“तुम्हारे पापा की इमेज?!” काव्या का स्वर काँप गया, “मेरे पापा की क्या इज़्ज़त बची होगी वहाँ मोहल्ले में?
उनकी बेटी ने बड़े घर के लड़के से शादी कर ली, बड़े-बड़े सपने दिखा कर… और आज अगर मैं मायके लौट जाऊँ तो लोग मेरे माता-पिता के चरित्र पर भी सवाल उठाएँगे। तुम्हें पता भी है, उनके लिए ये सब कितना भारी है?”
“तुम्हारे दो कमरे के घर की इज्जत और मेरे पापा के करोड़ों के साम्राज्य की इज्जत में फर्क होता है, मैडम,” अर्णव ने तिरस्कार से कहा, “उनकी पॉलिटिकल और बिज़नेस इमेज पर धब्बा पड़ता, तभी तो उन्होंने मना किया था इस शादी से। मैंने ही ज़िद की थी।”
काव्या ने पहली बार महसूस किया कि वह कितना अकेली है। ससुराल में भी, और अब मायके के लिए भी बोझ।
मेहरा निवास के बाहर गार्ड्स, वॉचमैन, सीसीटीवी—
अंदर बड़े झूमर, महंगी कटलरी, इम्पोर्टेड शोपीस, पर इन सबके बीच वह खुद को केवल एक सजा-धजा मोम का पुतला महसूस करने लगी।
सासु माँ दिन भर kitty पार्टी, मंदिर, सोसाइटी फंक्शनों में व्यस्त रहतीं, और लौटकर ड्राइंग रूम में सहेलियों के सामने ताना दे ही देतीं—
“बेटे की शादी की नाज़ुक उम्र में जिद कर दी गाँव की लड़की से शादी करने की। देखो, अब हमारा बेटा कितना परेशान है…”
ससुर, यानी राजीव मेहरा, बड़े बिल्डर, हमेशा फ़ाइलों और फोन में व्यस्त।
उन्होंने कभी ज़ोर से डाँटा नहीं, पर कभी काव्या से ठीक से बात भी न की। अपनी दुनिया, अपने प्रोजेक्ट।
लेकिन परिस्थितियों का रुख हमेशा एक जैसा नहीं रहता।
एक दिन, बेहद शांत लहजे में अर्णव ने कहा—
“काव्या, तुम सही कहती हो… शायद मैंने तुम्हारे साथ बहुत कठोरता की। मुझे तुमसे माफ़ी माँगनी चाहिए।”
काव्या ने अविश्वास से उसकी ओर देखा।
“ये अचानक…?”
“इतने दिनों से देख रहा हूँ तुम्हें,” अर्णव बोला, “तुम सचमुच घुट रही हो यहाँ।
ना तुम नौकरी कर पा रही हो, ना बाहर निकल पाती हो।
मैं सोच रहा था… क्यों न हम थोड़ा समय अकेले बिताएँ, यहाँ की राजनीति, बिज़नेस, परिवार से दूर… कहीं हिल स्टेशन चला जाएँ कुछ दिनों के लिए।”
काव्या का दिल पहली बार इन महीनों में कुछ हल्का हुआ।
“तुम सच में… मेरे साथ शांति से समय बिताना चाहते हो?”
“हाँ,” अर्णव ने उसकी हथेली थाम ली, “मैं कोशिश करना चाहता हूँ कि सब ठीक हो जाए। बस कुछ दिन हम दोनों… बिना किसी तनाव, बिना किसी दिखावे के।”
काव्या के भीतर एक उम्मीद जगी।
शायद प्रेम अभी पूरी तरह मरा नहीं था।
शायद यह रिश्ता मरम्मत किया जा सकता था।
कुछ दिनों की मनुहार, थोड़ी तकरार, थोड़ी चुप्पी और थोड़ी मुस्कान के बाद वह मन ही मन तैयार हो गई।
मेहरा हाउस से पहाड़ों की ओर जाने का ये उनका पहला सफ़र होता।
उन्होंने मसूरी चुना।
पाइन के पेड़ों से घिरी घाटियाँ, ठंडी हवा, दूर-दूर तक फैले बादल—
काव्या ने सोचा, शायद यहाँ आकर अर्णव सच में बदल जाए।
पहले दो दिन अच्छे गुज़रे।
अर्णव ने शराब कम पी।
वह काव्या के साथ केम्प्टी फॉल घूमा, मॉल रोड पर टहलता रहा, चाय और मकई के भुट्टे खाए, सेल्फी ली।
तीसरे दिन सुबह, अर्णव ने कहा—
“चलो, आज थोड़ा एडवेंचर करते हैं… चट्टानों के दूसरी तरफ़ एक बहुत खूबसूरत व्यू पॉइंट है, वहाँ गाइड नहीं ले जाते, पर एक लोकल दोस्त ने बताया है मुझे। बस थोड़ी चढ़ाई है।”
काव्या ने नीचे गहरी खाई की तरफ़ देखते हुए कहा—
“मुझे ऊँचाई का थोड़ा डर लगता है…”
“डर से लड़ोगी तभी तो मज़ा आएगा,” अर्णव ने उसका हाथ खींचते हुए कहा, “मैं हूँ न तुम्हारे साथ। भरोसा रखो।”
पतली-सी पगडंडी थी, बगल में चट्टानी ढलान, नीचे बहुत गहरी घाटी, जिसमें बादल तैर रहे थे।
एक जगह रास्ता और पतला हो गया।
ऊपर एक बड़ा सा पत्थर झुका हुआ था।
“यहाँ से सावधान…” अर्णव ने आगे बढ़कर कहा, “तुम धीरे-धीरे आओ… मैं सामने खड़ा हूँ।”
काव्या ने डरते हुए कदम बढ़ाया।
उसकी चप्पल फिसलते-फिसलते बची।
तभी अचानक ऊपर से झड़-झड़ दो-तीन छोटे पत्थर गिरे।
वह सहम गई।
“अर्णव… ये…?”
अर्णव ने एक क्षण के लिए कुछ आकलन-सी नज़र से ऊपर देखा, फिर बोला—
“कुछ नहीं, पहाड़ है… होता रहता है। चलो, जल्दी करो।”
उसी क्षण ऊपर का बड़ा पत्थर हल्का-सा खिसका।
धीरे-धीरे, फिर तेज़ी से।
काव्या के पैर के पास मिट्टी खिसकने लगी।
“अर्णव!” उसने चीखकर उसे पुकारा।
उससे पहले कि पत्थर पूरी ताकत से गिरता, पीछे से दौड़कर आए एक लोकल मजदूर ने काव्या को खींचकर जमीन पर गिरा दिया।
बड़ा पत्थर ज़ोर की आवाज़ के साथ कुछ ही इंच दूर जा गिरा, और फिर लुढ़कता हुआ खाई में जा समाया।
काव्या हाँफ रही थी, उसके कानों में अपने दिल की धड़कन की आवाज़ गूँज रही थी।
अर्णव के चेहरे पर हैरत का भाव था या अफ़सोस का, वह समझ नहीं पाई।
पर मजदूर की आँखों में गुस्सा साफ़ झलक रहा था।
“साहब…” उसने भारी साँसों के बीच अर्णव से कहा, “मैं सुबह से देख रहा हूँ आपको। आपने जानबूझकर उस पत्थर के पास पत्नी को खड़ा किया।
कल शाम भी आप होटल के बाहर किसी से फोन पर कह रहे थे—
‘एक छोटा-सा पुश काफी है, बस सही वक्त चाहिए… पहाड़ अपना काम खुद कर देगा।’
हम तो मजदूर हैं, पर इंसान हैं… सब समझते हैं।”
अर्णव सकपका गया।
“तुम्हें गलतफहमी हुई है,” उसने बड़बड़ाया, “मैं बस…”
मजदूर ने बीच में ही उसकी बात काट दी।
“गलतफहमी हमें नहीं, उन्हें थी साहब, जो आपके साथ यहाँ चली आई।” उसने काव्या की तरफ़ इशारा किया, “पर ऊपर वाला देख रहा है सब। जिस पत्थर से आप उनकी जान लेना चाहते थे, उसी पत्थर की आवाज़ ने मुझे जगा दिया। मैं यहीं पास के साइट पर काम कर रहा था।”
काव्या के पैरों तले की ज़मीन सचमुच खिसक गई।
उसने धीरे-धीरे सिर उठाकर अर्णव की आँखों में झाँका।
“क्या ये सच है?” उसकी आवाज़ काँप रही थी।
अर्णव ने नज़रें बचाईं।
“काव्या… बात उतनी सीधी नहीं है जितनी दिख रही है,” उसने एक आखिरी कोशिश की, “पापा को हमारी शादी से बहुत समस्या है। अगर तुम… अगर तुम इस दुनिया से चली जातीं, तो… बीमा, sympathy, सब कुछ उनकी इमेज के लिए अच्छा होता… मैं दबाव में था…”
काव्या को लगा जैसे उसके कानों में किसी ने पिघला हुआ सीसा उड़ेल दिया हो।
“तो तुम्हारे लिए मैं सिर्फ़ एक ‘सिचुएशन’ थी?” उसने फटे गले से कहा, “एक समस्या, जिसका समाधान तुम्हें मेरी मौत में दिख रहा था?”
मजदूर बीच में बोला, “बहन जी, आप पुलिस के पास चलिए। ये हादसा नहीं, क़त्ल की कोशिश है।”
उस छोटे से पहाड़ी थाने में उस दिन लम्बी रिपोर्ट लिखी गई।
मजदूर ने गवाही दी, होटल के सीसीटीवी फुटेज निकाले गए जिसमें अर्णव किसी से फोन पर शक़ी अंदाज़ में बात करता दिख रहा था, पहाड़ के उस क्षेत्र के बारे में, जहाँ अक्सर लैंडस्लाइड होती थी।
राजीव मेहरा के वकील, पैसे, पॉलिटिकल संपर्क—सब लगे बेटे को बचाने में।
पर इस बार काव्या ने चुप रहने से इनकार कर दिया।
“मैं चुप थी जब मुझे अपमानित किया गया,” उसने पुलिस को बयान देते हुए कहा, “मैं चुप थी जब मेरे माता-पिता को ‘दो कौड़ी के लोग’ कहा गया।
पर आज जब किसी ने मेरे भरोसे की आड़ लेकर मेरी जान लेने की सोची…
मैं अब चुप नहीं रहूँगी।”
लम्बी कानूनी प्रक्रिया शुरू हुई।
मीडिया में यह खबर चलने लगी—
“प्रसिद्ध बिल्डर के बेटे पर पत्नी की हत्या की साज़िश का आरोप।”
राजीव मेहरा ने शुरुआती दिनों में यही स्टैंड लिया—
“ये सब लड़की के मायके वालों की साज़िश है। हमारे परिवार को बदनाम करने का षड्यंत्र।”
पर धीरे-धीरे सबूतों के बोझ के नीचे यह बयान भी लड़खड़ाने लगा।
गवाहों के दबाव में आने के कई प्रयास हुए, पर उस पहाड़ी मजदूर ने इसका जमकर विरोध किया।
“मुझे जितना डराना है डरा लो, पर मैं झूठ नहीं बोलूँगा,” उसने कोर्ट में कहा, “हम गरीब हैं, पर हमारी आत्मा भी होती है।”
अर्णव जमानत पर बाहर ज़रूर रहा, पर सामने आने से कतराने लगा।
समाज जिस चमकदार चेहरे के लिए उसे पहचानता था, वह दरारों से भरता जा रहा था।
उधर, काव्या दो मोर्चों पर लड़ रही थी।
एक, कोर्ट में—जहाँ उसे अपना सच साबित करना था।
दूसरा, अपने भीतर—जहाँ उसे टूटे भरोसे, चूर-चूर आत्मसम्मान और बिखरे हुए सपनों को समेटना था।
एक दिन उसने फैसला किया कि वह मेहरा हाउस नहीं लौटेगी।
उसने अपने मायके की तरफ़ नहीं, बल्कि एक छोटे से रेंटेड फ्लैट की तरफ़ कदम बढ़ाए।
“बेटा, तुम हमारे पास आ जाओ,” पापा ने काँपती आवाज़ में फोन पर कहा था, “ये शहर तुम्हें निगल जाएगा।”
“नहीं पापा,” काव्या ने प्यार से कहा, “आपने अपने बूढ़े कंधों पर मेरे सपने ढोए हैं।
अब मेरी बारी है अपने कंधे मज़बूत करने की।
मैं कभी भी, किसी भी दिन आपके पास सिर रखकर रोने आ सकती हूँ, यह विश्वास मुझे आगे बढ़ने देगा।
पर अभी मुझे अपने पैरों पर खड़ा होना सीखना होगा।”
उसने अपने पुराने एमबीए के प्रोफेसरों से संपर्क किया।
घुमाफिरा के, कई जगह इंटरव्यू दिए।
“मेहरा” नाम शुरू में उसके साथ जुड़ा तो कई लोग देखरेख से भर गए।
किसी ने कहा—“हमें विवादित नाम नहीं चाहिए।”
किसी ने फुसफुसाकर माफी माँगी—“आपके केस की खबर हमने पढ़ी है… हमें तो गर्व होना चाहिए कि आप इतनी हिम्मत से खड़ी हुई हैं, पर कंपनी की पॉलिसी… समझिए न।”
आख़िरकार एक मध्यम स्तर की स्टार्टअप कंपनी में उसे प्रॉजेक्ट मैनेजर का काम मिला।
तनख्वाह बहुत ज्यादा नहीं थी, पर काव्या के लिए यह उसकी खोई हुई पहचान का पहला किस्त था।
दिन में वह काम करती, शाम को लॉयर के साथ बैठकर केस की बारीकियाँ समझती, देर रात अकेले फ्लैट में चुपचाप रो लेती।
फिर अगले दिन फिर वही दिनचर्या।
कुछ महीने बाद उसने अपने अनुभवों पर एक ब्लॉग लिखना शुरू किया—
“टूटी नहीं, झुकी नहीं।”
इसमें उसने नाम नहीं लिखे, पर उन महिलाओं के लिए लिखना शुरू किया, जो रिश्तों के नाम पर ज़हर पी रही थीं, पर बोलने से डरती थीं।
धीरे-धीरे उसके लेख वायरल होने लगे।
किसी ने लिखा—“आपकी कहानी पढ़कर पहली बार लगा कि मैं अकेली नहीं हूँ।”
किसी ने कमेंट किया—“मैं भी ऐसी ही शादी में घुट रही हूँ, पर मायके की इज्जत के नाम पर चुप हूँ।”
काव्या ने महसूस किया—
उसकी निजी पीड़ा, अगर सही दिशा में बहाई जाए, तो कई और जिंदगियों के लिए रास्ता बन सकती है।
उसने कुछ और दोस्तों के साथ मिलकर एक छोटा-सा हेल्पलाइन ग्रुप बनाया।
कानूनी सलाह, काउंसलिंग, नौकरी के लिए मार्गदर्शन—जितना हो सके, वह और उसकी टीम करने की कोशिश करती।
इधर कोर्ट का फैसला भी धीरे-धीरे अपनी ओर बढ़ रहा था।
कई सुनवाइयों के बाद, आखिर वो दिन भी आया जब जज ने अपना निर्णय पढ़ा—
“अर्णव मेहरा पर अपनी पत्नी की हत्या की कोशिश का आरोप प्रमाणित होता है…
पत्नी की सहमति के बिना उसे ऐसे स्थान पर ले जाना, जहाँ जान का खतरा हो, पहले से साजिश रचकर परिस्थितियाँ बनाना…
इन सबको हार्मलेस ट्रिप कहकर नहीं टाला जा सकता।
आरोपी को पाँच साल की सज़ा… और भारी जुर्माना।”
कोर्ट रूम में सन्नाटा छा गया।
अर्णव ने एक बार भी काव्या की तरफ़ नहीं देखा।
शायद वह देख ही नहीं पा रहा था उस लड़की को, जिसे उसने एक दिन “मेरे सपनों की रानी” कहा था, और दूसरे दिन “मेरे लिए बोझ”।
काव्या ने आँखें मूँदकर गहरी साँस ली।
यह उसके लिए जीत नहीं, सिर्फ़ न्याय की एक हल्की-सी किरण थी।
बाहर निकलते हुए माइक लिए रिपोर्टरों ने उसे घेर लिया।
“मैडम, आपने इतने बड़े परिवार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत कैसे की?”
“आपको डर नहीं लगा कि समाज क्या कहेगा?”
“अब आगे क्या प्लान है?”
काव्या ने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा—
“डर मुझे तब लगा था, जब मैं हर रात अपने ही घर में अपने होने पर शर्मिंदा महसूस करती थी।
आज मैं अकेली हूँ, रेंटेड फ्लैट में रहती हूँ, छोटा-सा काम करती हूँ, पर जो भी कदम उठा रही हूँ, सिर ऊँचा करके उठा रही हूँ।
समाज को जवाब देने से पहले, हमें खुद के सामने जवाबदेह होना सीखना होगा।”
कुछ साल बाद, काव्या एक जानी-मानी कॉर्पोरेट ट्रेनर और मोटिवेशनल स्पीकर बन चुकी थी।
उसके सेमिनार में young लड़कियाँ, working women, homemakers—सब आतीं, सुनतीं, सीखतीं, रोतीं, और हँसते हुए लौटतीं।
कभी-कभी, किसी कोने में शांत बैठकर, वह अपने पुराने दिनों को याद करती।
वह कैफेटेरिया, वह कॉफी कप, वह “मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ”…
सब एक धुंधला-सा सपना लगने लगा।
पर आज जब वह मंच से यह कह पाती—
“जीवन में सबसे बड़ी गलती प्रेम करना नहीं है।
सबसे बड़ी गलती यह है कि हम प्रेम के नाम पर अपने आत्मसम्मान को मार दें, अपनी आवाज़ खो दें।
आपकी ज़िन्दगी सिर्फ़ आपके फैसलों की नहीं, आपके साहस की कहानी होती है।”
—तो उसे लगता, उसकी हर चोट, हर आँसू, हर ठोकर बेकार नहीं गई।
उसने सीखा था—
किसी की झूठी चमक के पीछे छिपे अंधेरे में खुद को गुम होने देने से बेहतर है,
एक बार टूटकर, अपने टुकड़ों से खुद की दुनिया फिर से बनाना।
और कहीं, किसी छोटे शहर में बैठी कोई लड़की, अपने पिता की पुरानी अलमारी के बीच उसके ब्लॉग पढ़ते हुए सोचती—
“अगर काव्या दीदी ने कर लिया, तो शायद मैं भी कर सकती हूँ…”
यही सोच, यही भरोसा, यही हिम्मत—
वह असली कहानी थी, जो किसी भी प्रेम विवाह, रुतबे वाले घर, या पहाड़ी हादसे से कहीं ज़्यादा बड़ी थी।