शोभा जैसे ही फ़ोन बन्द करके मुड़ी तो एक दम से सामने पति राकेश को देख कर डरी और फिर चिल्ला कर बोली… हे भगवान पता भी है तुम्हें कि मैं डर जाती हूँ । आते हो तो कोई खटका ही कर दिया करो ताकि मेरे दिमाग़ को पता हो कि तुम आसपास हो । और वैसे एक बात बताओ तुम तो सैर करने गये थे ना फिर वापिस क्यूँ आ गये ??पत्नी की एक साथ बक बक सुनकर राकेश जी को भी ताव आ गया । शौक़ नहीं मुझे तुम्हारा लेक्चर सुनने का फ़ोन भूल गया था वहीं लेने आया हूँ । और निकल ही रहा था कि तुम्हारी बातों ने मेरे कदमों को रोक लिया ।
देखो शोभा तुम जो अपनी बेटी को पट्टी पढ़ा रही हो ना वो बिलकुल ठीक नहीं है । पहले तुम बड़ी बेटी काजू ( काजल ) के पीछे पड़ी रहती थी । अपने पति से काम करवाया कर , बच्चों की ज़िम्मेदारी उस पर डाल, उसे ज़रूरत नहीं अपनी सारी सैलरी देनी की वग़ैरह वग़ैरह तुम्हारी इन हरकतों की वजह टुटते टुटते बचा है उसका घर, दामाद जी तो छोड़ ही गये थे उसे यहाँ कि बेटी भी रखो और उसकी सैलरी भी रखो । ये तो शुक्र है मेरी बहन का जिसने बीच बचाव करके सारा मामला ठीक किया । वर्ना तुमने तो बेटी का दिमाग़ ख़राब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । भगवान का लाख शुक्र कि अब वो विदेश में अपने परिवार के साथ सेटल हो गई और अब तुम छोटी के पीछे पड़ गई कि सास को देवरानी के पास भेज … उसकी भी ज़िम्मेदारी है .. राकेश जी ना चाहते हुए भी उचें लहजे में बोलते गये ।
हाँ तो क्या ग़लत कह रही हूँ । हमारी बेटी श्वेता ही सारी ज़िम्मेदारी क्यूँ ले वो ही क्यूँ सम्भाले ! है ना उसकी देवरानी जाकर रहे उसके पास भी.. शोभा तनकर बोलीं ।
तुम्हारी बेटी क्या उसे गोद में लेकर बैठीं है क्या क्यूँ सम्भाले !! कैसी बातें करती हो शोभा थोड़ी शर्म करो सब जानते हुए भी तुम ऐसा कैसे सोच सकती हो ?? जानती हो ना सुनंदा जी का छोटे बेटे अंकित के घर मन नहीं लगता । सारा दिन पति पत्नी घर से बाहर रहते हैं । यह मत भूलो रामगढ़ से दिल्ली लाने का फ़ैसला तुम्हारे दामाद समर्थ का ही था । पति के गुजरते ही सुनंदा जी का घर बेच दिया बेटों ने अब माँ कहाँ जायेगी इन्हीं के साथ रहेगी .. राकेश जी अब थोड़े ताव में आ गये ।
हाँ तो जब हिस्सा बराबर का लिया है तो माँ कीं ज़िम्मेदारी भी उठाये ना .. शोभा अब पति से पूरे बहस करने के मूड में आ गई ।
पता नहीं श्वेता क्यूँ तुम्हें यह सब कुछ बताती है । देखो शोभा यह उनका पारिवारिक मामला है । तुम बेटी के दिमाग़ में ग़लत बातें मत भरो । माँ है वो उसकी इज़्ज़त करनी सिखाओ अगर ऐसा नहीं कर सकती तो भगवान के लिए चुप रहो । घर तोड़ने में सास का रिश्ता तो यूँ ही बदनाम है । तुम जैसी माएँ भी कम ज़िम्मेदार नहीं होती । दूर रहो इन सबसे राकेश जी ने दोनों हाथ जोड़कर ग़ुस्से में पत्नी की ओर देख कर कहा । पति की ओर जब शोभा ने ग़ुस्से से देखा तो राकेश जी यह कहकर मैं भी किसे सिखा रहा हूँ सिर को हिलाते हुए अपना फ़ोन लेकर बाहर निकल गये ।
श्वेता राकेश और शोभा की दूसरी सन्तान थी । जिसकी दस साल पहले दिल्ली में कार्यरत सोफ्टवेर इंजीनियर समर्थ के साथ शादी हुई थी । समर्थ के माता-पिता राजस्थान के रामगढ़ शहर में रहते थे । समर्थ अपनी पत्नी सात साल की बेटी और पाँच साल का बेटे के साथ दिल्ली में एक किराए के मकान में रहता था । कभी कभार माता-पिता से मिलने रामगढ़ चले जाते थे । सब सही चल रहा था । श्वेता पढ़ी लिखी थी लेकिन घर पर ही थी । घर की देख रेख और बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए श्वेता ने नौकरी ना करने का फ़ैसला लिया। एक कमाई से थोड़ा हाथ खींच कर चलाना पड़ता था लेकिन फिर भी सब ठीक चल रहा था । समर्थ के छोटे भाई अंकित का विवाह चार साल पहले हुआ था , दोनों पति पत्नी अलग अलग अस्पताल में बतौर नर्स काम करते थे । दिल्ली में रहना उनकी आर्थिक स्थिति के अनुकूल नहीं था । इसलिए दिल्ली से बाहर अपने लिए नौकरी तलाश रहे थे ।एक कमरे के छोटे से फ़्लैट में अपनी बसर कर रहे थे ।दोनों भाइयों की ज़िंदगी की गाड़ी खींच रही थी कि अचानक से दो साल पहले पिता की दिल के दौरे से मृत्यु ने उनकी ज़िन्दगी में एक नया अध्याय शुरू कर दिया ।
समर्थ परिवार का बड़ा बेटा था । शुरू शुरू में अपनी माँ सुनंदा को हर महीने देखने जाता रहा । लेकिन वापिस आने के बाद वो कई दिनों तक माँ कीं चिन्ता में ही खोया रहता । भले ही उसके चाचा का परिवार भी उसी शहर में था । लेकिन घर में तो उसकी माँ अकेली ही थी । गूजर बसर के लिए पापा की पेंशन थी और छोटा सा अपना ख़ुद का घर था । माँ ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी । इसलिए छोटी छोटी बातों से बहुत जल्दी घबरा जाती थी । हर बात के लिए समर्थ को फ़ोन करती । छोटा बेटा अंकित और उसकी पत्नी नम्रता ज़्यादातर अपनी नौकरी की वजह माँ कीं ज़िम्मेदारी की तरफ़ ध्यान नहीं दे पाते थे ।पापा के अचानक चले जाने से माँ काफ़ी टूट सी गई थी । अस्वस्थ रहने लगी थी । लेकिन जैसे भी हो वो दोनों बेटों को जरा तकलीफ़ नहीं दे रही थी ख़ुद को सम्भाल रही थी ।
समर्थ जब भी माँ से मिलने जाता तो उसे माँ को अकेला छोड़ कर आने को मन नहीं होता । उसने चाचा से बात की तो उन्होंने कहा कि अगर अपने साथ रख सको तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है । इस घर को बेच कर कुछ तो दिल्ली में घर ख़रीदने में मदद हो जायेगी । समर्थ ने इस विषय पर श्वेता से बात की तो घर में बहुत सारे पैसे आयेंगे इस लालच में बिना किसी ओर बात पर विचार किए झट से मान गई । अंकित भी समर्थ से सहमत हो गया । बैठे बिठाये पैसे मिले किसे बूरे लगते हैं । सुनंदा ने देखा कि बेटे उसकी ज़िम्मेदारी लेने को तैयार है तो उसने घर बेचने की सहमति दे दी । जल्दी ही लेनदार भी मिल गया और घर भी बिक गया । माँ ने कुछ सामान बेच दिया और कुछ दो तीन बक्सों में भरकर देवर के स्टोरेज में रखवा दिया और माँ दिल्ली बड़े बेटे के पास आ गई ।
शुरू शुरू में श्वेता सासु माँ के साथ ठीक रही । लेकिन जल्दी ही वो हर बात से खीझने लगी । माँ के आने से खर्चा काम बढ़ने लगा ।बेटी तन्वी के कमरे में ही दादी का पलंग लग गया और साथ में एक छोटा सा टी वी भी, दादी पोती खूब मज़े से अपना वक़्त बिताने लगी । सुनंदा तन्वी को खूब कहानियाँ सुनाती और जब दिल करता टी वी पर अपने पसन्दीदा प्रोग्राम देखती । उसे वहाँ बहुत अच्छा लगने लगा । समर्थ के घर के पीछे ही मंदिर था । शाम को वहाँ के कीर्तन में जाने लगी । जल्दी ही बहुत सारी सहेलियाँ भी बन गई । सासु माँ आकर एकदम से निश्चितता के घोड़े पर सवार हो गई यह बात श्वेता को जलन के कुएँ की ओर धकेलनी लगी । वो सुनंदा को बात बात पर टोकने लगी । कभी टी वी नहीं चलाओ बेटी ने पढ़ना है । कभी काम ना करने की शिकायत तो कभी रसोई में राशन की बर्बादी की शिकायत, कभी बाहर घूमने जाने पर माँ का साथ चलना उसे नहीं मंज़ूर कभी पति का माँ का ख़्याल रखना उसे काँटे की तरह चुभना ।श्वेता अपनी तंगदिल की सोचो में उलझती गई । ऐसे में माँ शोभा ने भी आग में घी लगाने का काम किया की तू अकेली क्यूँ ज़िम्मेदारी उठाये अंकित की पत्नी नम्रता क्यूँ आज़ाद रहे !! बात तो माँ ठीक कह रही है । जब हिस्से में बराबरी चाहिए तो माँ भी बारी बारी से रहे । अब पति पत्नी में हर रोज़ तना कसी होने लगी ।
समर्थ माँ को पास रखना चाहता था । छोटे भाई के पास मुनासिब जगह नहीं थी । माँ कहाँ रहेगी एक ही तो कमरा है उनके पास !! लेकिन श्वेता अड़ गई ।इसे अंकित के पास भेजो ।माँ के साथ घटों फ़ोन पर बातें करती सिवाय सुनंदा की बुराई के और कोई दूसरी बात नहीं थी दोनों के पास.. सुनंदा इस बात को बड़े अच्छे से महसूस करने लगी कि इन दोनों की गृहस्थी उसकी वजह से ख़राब होने लगी है । बेटा तनाव में रहने लगा । घर की शांति ख़ुशी ख़त्म होती नज़र आ रही है । आख़िर उसने छोटे बेटे के पास जाने का मन बना लिया ।
सुनंदा अंकित और नम्रता के पास श्वेता की ख़ुशी के लिए आ गई । बाहर ड्राइंग रूम में ही पलंग पर सोती । पति पत्नी में से जो भी रात की शिफ़्ट करके आता वो अन्दर अपने बेडरूम में सोया रहता । माँ बाहर ना किसी से बात से फ़ोन पर बात कर सकती ना टी वी देख सकती । ना वहाँ पास कोई मंदिर ना कोई सहेली ना उस घर में बच्चे सुनंदा तीन महीने में बहुत ऊब गई । छोटी बहू अपने में ही मस्त रहती । छुट्टी वाले दिन ख़रीदारी करने अकेली निकल जाती और देर रात तक लौटती । समर्थ जब भी माँ से बात करता वो उसे सब ठीक है कहकर आश्वस्त कर देती । लेकिन एक दिन सुनंदा रो पड़ी और कहने लगी बेटा मुझे ले जा यहाँ से, जैसा श्वेता चाहेगी मैं वैसे ही रह लूँगी, लेकिन बस अब ओर यहाँ नहीं । अपनी माँ की ऐसी आवाज़ सुनकर समर्थ उसी समय जाकर माँ को ले आया । माँ ख़ुश थी बच्चे मंदिर सहेलियाँ कीर्तन टी वी सब फिर से मिल गया । लेकिन श्वेता वैसी की वैसी रही । हर रोज़ की चिक चिक उसका स्वभाव बन गया ।
ज़िन्दगी फिर से उसी ढर्रे पर चल ही रही थी कि अचानक से फिर से एक मोड़ आया । रामगढ़ से चाचा की अचानक मृत्यु की ख़बर आई । समर्थ और माँ उसी रात की गाड़ी से रामगढ़ के लिए रवाना हो गये ताकि अगले दिन संस्कार में शामिल हो सके । रामगढ़ में एक हफ़्ते गमगीन माहौल में रहने के बाद समर्थ ने माँ को वापिस चलने के लिए कहा तो माँ ने कहा कि वो शिल्पा चाची के साथ कुछ दिन ओर रहेगी । दोनों देवरानी जेठानी में अच्छी बनती थी । एक दूसरे से खुलकर अपने मन की बात कर लेती थी ।माँ को लगा कि शिल्पा को अभी उसकी ज़रूरत है । इसलिए अभी वो यही रहेगी,दो हफ़्ते के बाद आकर उसे ले जाना । अंत्येष्टि से सम्बंधित सभी विधि विधान के समापन और मेहमानों के चले जाने के बाद दोनों देवरानी जेठानी अकेले में बैठकर अपने सुख दुख साझा करने लगी ।
अपनी बातें ख़त्म करने के बाद शिल्पा सुनंदा से उसका हाल पूछने लगी .. और भाभी दिल्ली में सब कैसा है । मन लग गया आपका, श्वेता आपका ख़्याल तो रखती है ना ?? एक साथ शिल्पा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी ।
एक लम्बी साँस लेकर सुनंदा ने अपनी चुप्पी तोड़ी … दिल तो छोटी अपने घर में ही लगता है । दूसरों के घर तो लगाना पड़ता है । ख़ुद को समझाना पड़ता है हर घड़ी हर पल कि अब यही तेरा घर है ।
शिल्पा सुनंदा के हाथ पर हाथ पर रखकर हैरानी से बोली.. ऐसा क्या हो गया भाभी ?? ऐसे क्यूँ बोल रही हो ,मेरा दिल बैठा जा रहा है !! क्या हुआ भाभी भगवान के लिए मुझसे कुछ मत छुपाना ।
सुनंदा -जानती हो छोटी हम हमेशा भगवान से यह दुआ माँगते हैं कि बस कुछ ओर दे ना दे मोहताजी ना देना । अधीनता की चुपड़ी हुई रोटी से अच्छी अपनी रूखी सुखी है । कम से कम उसमें सुकून है शांति है । हर रोज़ आसपास क़िस्से कहानियों में सुनते हैं कि इन्सान को अपने जीते जी अपना प्रभुत्व निजता तब तक दूसरों के हाथ में नहीं देना चाहिए । जब तक अपनी हिम्मत और विश्वास जवाब ना दे जाये । जानती हो शिल्पा.. हम औरतें भावनाओं में बह कर फ़ैसले लेने में बहुत जल्दबाज़ी कर जाती हैं .. ख़ासकर जब बात ममता बच्चों की है । पति जीते जी तो ख़्याल रखते ही है । मरने के बाद भी सारा इन्तज़ाम करके जाते हैं ।समर्थ के पापा मेरी रोटी कपड़ा छत सबका इन्तज़ाम करके गये और मुझे देखो एक पल में सब गँवा बैठी ।सोचा बेटे ख़ुद आगे बढ़कर ज़िम्मेदारी उठा रहे हैं तो मैं किस बात की रोक लगाऊँ ।
शिल्पा – लेकिन भाभी माँ बेटे के पास नहीं जायेगी तो कहाँ जायेगी । पति के जाने के बाद वहीं तो उसके सहारा है ।
सुनंदा- हाँ सहारा तो है, लेकिन माँ भी तो इन्सान है । उसका भी आत्मसम्मान है । उसका भी एक वजूद है ।उसे भी दर्द होता है जब बेवजह की बातें सुननी पड़ती हैं ।
शिल्पा – क्या भाभी समर्थ भी ???
सुनंदा आँखों से आँसू पोछते हुए बोली .. नहीं समर्थ तो बहुत ख़्याल रखता है मेरा !! ना जाने क्यूँ शिल्पा ही अपनी गृहस्थी में मुझे अपना नहीं पाई । मेरी हर बात पर उसे आपत्ति है । कभी टी वी देखना, कभी रसोई में जाकर कुछ बनाना, कभी देर शाम तक महिलाओं के साथ बैठकर बातें करना । मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि मैं करूँ तो क्या करूँ ! कैसे रहूँ वहाँ !! चुप रहकर देख लिया जवाब देकर भी देख लिया । वो कहीं ना कहीं से हर रोज़ मेरे हर काम में दोष ढूँढ ही लेती है । पति पत्नी का बात बात पर झगड़ा, बच्चों का डरा डरा सा रहना .. कैसे देख लूँ यह सब । अपनी माँ से हर रोज़ घटों बात करती है जिसमें अधिकतर मैं ही विलेन होती हूँ । पहले तो धीमें सूर में बात करती थी लेकिन अब तो उसे मेरे सम्मान की भी तनिक परवाह नहीं । मेरा अब दम घूँटता है वहाँ, छोटी बहु तो पहले से हमसे घुली मिली नहीं । उसके घर भी जीवन सुना और यहाँ परेशान एक घुटन में निकले मेरे ये दो साल !! सच बताऊँ शिल्पा !! मेरा वापिस जाने का अब बिल्कुल मन नहीं । सोच रही हूँ यही एक कमरा किराए पर ले लूँ । मेरा काफ़ी सामान तो तुम्हारे स्टोरेज में पड़ा है । इस शहर की हर चीज मेरी जानी पहचानी है । यहाँ तक की जिस बैंक में पैशन आती हैं मुझे तो वहाँ का भी सब पता है ।मुझे एक बार कोशिश ज़रूर करनी चाहिए और फिर तुम सब लोग भी तो हो यहाँ !!
शिल्पा – लेकिन भाभी समर्थ क्या सोचेगा ??
सुनंदा – वो मैं नहीं जानती.. उसे समझना होगा । क्या तुम्हारी नज़र में है कोई ऐसी जगह ??
शिल्पा – हाँ चार घर छोड़कर शर्मा जी का घर है । सुना है वो एक साल के लिए बाहर गये हैं । घर पर उनकी पत्नी अकेली है और वो किसी महिला किरायेदार की ही तलाश में है ।
सुनंदा – अच्छा तो फिर ले चल मुझे वहाँ !
शिल्पा भाभी का प्यार से हाथ पकड़ते हुए बोली .. भाभी यही रह जाओ । अब तो मैं भी अकेली हो गई हूँ ।
सुनंदा उसके चेहरे को प्यार से सहलाते हुए बोली.. तेरा दिल बहुत बड़ा है और उसमें मेरे लिए प्यार भी बहुत है । और मैं उस प्यार को खोना नहीं चाहती । यह भी बहु बेटों वाला घर है । मुझे फिर से कोई कहानी नहीं चाहिए । तू मुझे बस वहाँ ले जा ।
शिल्पा – ठीक है दीदी कल चलेंगे । बहुत बड़ा फ़ैसला है । रात भर अच्छे से सोच लो।
अगले दिन दोनों जाकर किराए के कमरे का फ़ैसला कर आई । मकान मालकिन अलका जी सुनंदा की ही हम उम्र थी । उसे एक साथ मिल गया । उसने सुनंदा को हर सुविधा देने का आश्वासन दिया । उसी दिन सुनंदा ने वहाँ अपना एक छोटा सा घर बना लिया
दो हफ़्ते के बाद समर्थ माँ को लेने आया । वो चाची के यहाँ चाय पीते पीते माँ को ही ढूँढता रहा । थोड़ी देर बाद चाची ने कहा..चल तुझे तेरी माँ के पास ले चलती हूँ । वो सुनकर हैरान हुआ कि माँ कहाँ चली गई ।
समर्थ ने जैसे ही माँ का नया ठिकाना तो उसके पैरों के नीचे की ज़मीन निकल गई । माँ ने बिना बात किए इतना बड़ा फ़ैसला ले लिया । वो हैरान था साथ में थोड़ा शर्मिंदा भी, उसकी आँखों के कोर गीले हो गये ।बेटे को असमंजस की हालत में देख कर सुनंदा उसे गले लगाते हुए कहने लगी …मुझे यहाँ रहकर देखने दे । शायद इस फ़ैसले में ही कोई अच्छाई छुपी हो । मैं नहीं चाहती मेरी वजह से तेरा घर बच्चों का बचपन और तुम पति पत्नी का रिश्ता ख़राब हो । तेरे बच्चे माता-पिता के झगड़े देख कर नहीं प्यार देखकर बड़े हो । उन्हें अच्छे संस्कार और एक सुन्दर स्वस्थ जीवन मिले बस यही चाहती हूँ मैं । तू मेरी चिंता नहीं कर बेफ़िक्र होकर जा , कुछ परेशानी होगी तो तुझे बुला लूँगी ।
समर्थ अपनी सारी कोशिशों में नाकाम होने के बाद अकेला वापिस दिल्ली आ गया ।
घर में समर्थ को अकेला देख कर श्वेता बिना एक पल रूके झट से बोली.. माँ कहाँ है ?? समर्थ ने उसकी तरफ़ देखा और बिना बात किए फ़्रेश होने चला गया । श्वेता ने उस दस मिनट में घटों जैसी बेचैनी महसूस की । पति के बाहर आते ही फिर से वही सवाल !! माँ अब नहीं आयेगी हमारे घर , उसने वही किराए का घर ले लिया है ।समर्थ के यह शब्द सुनकर शिल्पा को लगा जैसे किसी ने कान में गर्म सीसा डाल दिया हो । पैर उसके ज़मीन पर गढ़ गये । लगा उसे जैसे किसी ने उसके अहंकार तेवर को खींच कर तमाचा मारा हो । उसे चक्कर सा आने लगा । साथ पड़ी मेज़ का सहारा लेकर कुर्सी पर बैठ गई । लेकिन फिर थोड़ा संभल कर बोली .. लेकिन क्यूँ ?? समर्थ ने उसकी ओर देख कर कहा यह तुम पूछ रही हो जिसने यह सारी स्थिति पैदा की है ।शिल्पा का चेहरा एकदम से फीका पड़ गया । ख़बर के हिसाब से उसे ख़ुश होना चाहिए था । लेकिन वो ख़ुद हैरान थी अपनी हालत पर इस ख़बर ने उसके मन को एक ज़ोर का झटका दिया था ।
ज़िन्दगी फिर से वैसी हो गई जैसी माँ के आने से पहली थी । हम दो हमारे दो और कोई नहीं । खाना पीना घूमना सब हो रहा था । समर्थ घर आता बच्चों के साथ समय बिताता , जो श्वेता कहती वैसा करता लेकिन उसे एक भी उचीं आवाज़ में बात करने का मौक़ा नहीं देता । समर्थ एकदम से बदल गया । शांत चुपचाप और उदास सा रहने लगा । श्वेता पति की उदासी को साफ़ महसूस कर रही थी । सबके घर से जाने के बाद वो बहुत देर अकेली बैठी विचारती रहती । माँ के साथ ऐसा मैंने क्यूँ किया । माँ ने तो हमेशा उससे प्यार से ही बात की , कभी उसके घर पर अधिकार ज़माने की कोशिश नहीं की , कभी वो पति पत्नी के बीच नहीं आई । वो आकर घटों माँ के पलंग पर बैठी रहती । अब घर में हर रोज़ आरती नहीं होती थी । अब तन्वी को कोई कहानी नहीं सुनाता था । नीचे पार्क में बैठी आंटियों में अब माँ नज़र नही आती थी । वो अकेले में हर चीज़ में माँ को ढूँढती । उसने कभी नहीं सोचा था कि वो माँ की इतनी आदी हो चुकी है । उसे धीरे-धीरे घर माँ के बिना सुना भी लगने लगा । अपने अन्दर मचे इस बवाल को वो ख़ुद अपना नहीं पा रही थी इसलिए पति से क्या बात करती । अब अपनी माँ से भी कम ही बात करती थी । और सास की बुराई करने की सब दीवारें ढह चुकी थी । मन के सुविचारों ने मिलकर उसके दिल को एक प्रेम और सम्मान की राह दिखाई । घर में बड़े बूढ़ों की अहमियत का अर्थ समझाया ।आँखों को नम करना सिखलाया वाणी को मिठास का अहसास करवाया । छह महीने हो चुके थे माँ को अकेले रहते हुए ।
तभी एक दिन समर्थ को रामगढ़ से अपने एक दोस्त की शादी का निमंत्रण आया । उसने श्वेता को बताया कि वो चार दिनों के लिए जा रहा है । कुछ समय माँ के साथ बिताएगा । तभी श्वेता ने पूछा क्या निमन्त्रण आपके अकेले का है । हम सब को नहीं बुलाया आपके दोस्त ने ?? अरे नहीं उसने तो सपरिवार बुलाया है यहाँ तक कि माँ को भी बुलाया है । मुझे लगा कि शायद तुम !!
अच्छा तो ठीक है फिर सब चलते हैं और अपनी ही गाड़ी लेकर चलते हैं और माँ को भी सरप्राइज़ देते हैं । समर्थ की आवाज़ में अचानक से ख़ुशी का जोश आ गया ।
रात ढलने से पहले सब माँ के आवास पर पहुँच गये । सबको सामने खड़े देख सुनंदा अपनी ख़ुशी सँभाल नहीं पा रही थी । बच्चे दादी से मिलकर बहुत ख़ुश हुए । समर्थ ने रास्ते से ही खाना पैक करवा लिया था । सबने मिलकर खाना खाया । श्वेता माँ के कमरे को बड़े गौर से देख रही थी जिसमें घर जैसी कोई बात नहीं थी । एक अजीब सी खामोशी थी वहाँ, कमरे में गिनती की चार चीजें थी । सहूलियत आराम की कोई वस्तु नहीं थी । उसको वो कमरा अपनी बेवक़ूफ़ियों की सजा के रूप में नज़र आया।
माँ ने शादी में जाने से इनकार कर दिया । उस रात वो सब चाचा के यहाँ रूके । अगले दिन ब्याह समारोह में चले गए । श्वेता पुरा समय माँ के बारे में ही सोचती रही ।
घर वापिस जाने से पहले सब माँ से मिलने फिर आये । माँ मनु के लिए मोटर कार और तन्वी के लिए साँप सीढ़ी की गेम लाई । उसने तन्वी को दी तो तन्वी बोली मैं खेलूँगी किसके साथ ?? इससे पहले कोई ओर कुछ कहता श्वेता झट से बोली दादी के साथ और किसके साथ .. सब हैरानी से श्वेता की ओर देखने लगे ।
श्वेता आकर माँ के पास बैठ गई वो थोड़ी भावुक थी गला उसका रूँधा हुआ था …माँ के हाथ को पकड़ कर कहने लगी मैं यहाँ शादी अटेंड करने नहीं आपको लेने आई हूँ । मुझे बहुत पहले ही आ जाना चाहिए था लेकिन नहीं आ पाई । ख़ुद से ही जूझती रही, सोचती थी आपके चले जाने से हमारी ज़िंदगी बहुत ख़ुशगवार होगी । लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ । सच तो यह कि मैं और समर्थ ज़्यादा उदास रहने लगे । अब श्वेता की आँखों से आँसू भी झरने लगे …. हर रोज़ मैंने अपने मन को समझाया और हर रोज़ मेरे मन ने मुझे धिक्कारा । मुझे अपनी गलती साफ़ दिखाई देने लगी ।मेरे अन्तरिम से बस यही आवाज़ आई कि माँ बस वापिस आ जाये ।मैं आपको साथ लिए बिना वापिस नहीं जाऊँगी ।
माँ और समर्थ बहुत हैरानी से श्वेता की ओर देख रहे थे । इससे पहले वो कुछ कह पाते आँगन में बैठी अलका जी जो ना चाहते हुए भी इस वार्तालाप का हिस्सा बन चुकी थी वहाँ आ गई और सुनंदा के पास बैठ कर कहने लगी … आपकी बहू सही कह रही है । आप को वापिस चले जाना चाहिए । बेटे तो अपने है ही लेकिन जब बहू दिल से ससुराल के रिश्ते अपनाती है तो यह पूरे घर के लिए बहुत शुभ संकेत है । आज आपकी बहू के दिल पर जो मंदिर के द्वार खुले हैं उसके साथ साथ आप भी इसमें प्रवेश कर जाइये । बाक़ी घर की चिंता मत कीजिए मैं आपकी देवरानी के यहाँ सामान पहुँचा दूँगी । वैसे एक महीने तक यह घर आपका है और मुझे पुरा भरोसा है कि अगले महीने आपको किराया देने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । चलो बेटा माँ का सामान बँधवाने में मदद करो । मैं आपके लिए चाय बनाकर लाती हूँ ।
सुंनदा मन ही मन मुसकरा रही थी ।बहू की ममता और प्यार ने आँखें सजल कर दी थी । दोनों पति पत्नी जल्दी से पैकिंग करने लगे । बीच बीच में समर्थ पत्नी की तरफ़ प्यार से देखने लगा । आज उसको श्वेता में अपनी एक सम्पूर्ण अर्द्धांगिनी नज़र आ रही थी जो बिगाड़ना ही नहीं संवारना भी जानती थी । जो टूटे मायूस दिलों को घर को जोड़ना जानती थी । जो फिर से उसे आत्मग्लानि की पीड़ा से बचाना जानती थी । आज उसे श्वेता का पति होने का गर्व हो रहा था । जिस अर्द्धांगिनी की सदा से उसके मन में तस्वीर थी आज उसमें उसे श्वेता नज़र आ रही थी । ज़िन्दगी ने फिर से ख़ुशी के द्वार खोल दिए
स्वरचित रचना
अभिलाषा कक्कड़