short story with moral : वो सभ्य समाज से बाहर, परिवार से बाहर था , लेकिन हौसलों का वो दिया था जिसके सामने तूफानों ने भी घुटने टेक दिया। कल तक उपहास का पात्र था तो आज अनुकरणीय और गर्व का पर्याय था । इंसान चाहे तो अपनी जगह खुद बना सकता है, ये कीर्ति ने सिद्ध कर दिया।
“आपकी सफलता का राज क्या है..”मंच पर बेस्ट बिजनेस वुमन का अवार्ड लेते समय, मीडिया के एक पत्रकार ने उनसे पूछा।
“मेरी माँ…. “
“पर सुना था, आपके माता -पिता ने आपको घर से निकाल दिया था “किसी ने तंज मारा।
“आपने सही सुना, मेरी माँ ने अगर मुझे घर में रखा होता तो शायद मैं ये मुकाम हासिल नहीं कर पाती, लेकिन मेरी माँ ने मुझे अपने से दूर रख कर भी मुझ पर अपनी निगरानी रखती थी, ये उनकी जिजविषा थी, मैं शारीरिक रूप से भले पूर्ण ना हूँ लेकिन अपने ज्ञान, अपने व्यवहार, अपने संस्कार से पूर्ण रहूँ… ये मेरी माँ का सपना था, मुझे अपनी माँ पर गर्व है, और हर उस माँ से आग्रह करूँगा,जो मेरे जैसे बच्चों की माँ है,वे अपनी औलाद को पूर्ण अपूर्ण के भेदभाव से दूर रखें…,मेरी माँ ने जब मेरे समुदाय के लोग आये और मुझे ले गये,
तब सुबह वहाँ आई और सबको समझा -बुझा कर मुझे दूसरे शहर, अपनी दूर की बहन के पास भेजा,जो अकेली रहती थी,जहाँ कोई मुझे कार्तिकेय के नाम से नहीं जानता था, मैं कीर्ति बन गई…,मैंने भी माँ को निराश नहीं किया, अपनी पढ़ाई पत्राचार से पूरी की, और अपनी मेहनत,लगन से आपके सामने हूँ,
आत्मनिर्भर ही नहीं बल्कि मुझमें आत्मविश्वास भी मेरी माँ और मौसी ने जगाया…, मुझे इस काबिल बनाया, मैं अपने जैसे लोगों को मेहनत और सम्मान की जिंदगी जीने का रास्ता दिखाया, अगर मैंने भी हिम्मत हारी होती तो मैं भी ताली बजा अपना जीवनयापन करता।”
“ये बच्चा सामान्य नहीं है “डॉ. के कहे शब्द दयाशंकर और सावित्री जी के कानों में पिघले शीशे की तरह पड़े, तीन लड़कियों के बाद जब पुत्र रतन की प्राप्ति हुई, तो दयाशंकर और सावित्री फूले ना समाये,बच्चे का रूप देख कर नाम कार्तिकेय रखा,लेकिन बड़े होते बेटे के अजीब रंग ढंग और पसंद ने उनको संशय में डाल दिया, तभी तो डॉ के पास दिखाने लाये थे, संशय को हकीकत में बदलते देख दयाशंकर तो वही बेहोश हो गये।
बेटे का जो रूप आँखों को ठंडक देता था, आज वही उन्हें शूल की तरह चुभ रहा था।
“मेरे सामने से इसे हटा दो, मैं इसकी सूरत भी नहीं देखना चाहता हूँ “चीखते हुये दयाशंकर बोले,
कार्तिकेय को वहाँ से हटा दिया गया, बिचारा सात वर्ष का अबोध समझ नहीं पाया उसका कसूर क्या है, टुकुर टुकुर पिता को देखता माँ के साथ कमरे से बाहर निकल गया।आखिर बाबू को क्या हो गया जो उसे देखते ही गुस्सा हो जाते।
सावित्री जी की स्थिति अजीब थी, वे माँ थी, बच्चे का मुरझाया चेहरा देख बिलख पड़ी, एक ओर पति की उपेक्षा दूसरी ओर आशाओं पर तुषारापात…, किसे दोष दे, ईश्वर को या भाग्य को…।
घर आने पर तीनों लड़कियों की वक्र मुस्कान ने उनका सीना छलनी कर दिया, वे उपहास उड़ाती तीन जोड़ी आँखों का सामना नहीं कर पा रही थी, याद आया जब चौथी बार माँ बन रही थी, बड़ी लड़की सोलहवें साल में प्रवेश कर गई थी, बाकी दोनों भी दो -दो साल के अंतर पर थी। बड़ी बिटियाँ ने माँ से पूछा “क्या हम लोग काफी नहीं थे जो अब चौथा ला रही…”
बेटी की बत्तमीजी का गरल वो पी गई, जानती थी उसके मन के ठेस को, पर सावित्री जी करती भी क्या…?? पति के बाऱ -बाऱ आग्रह पर “ज्योतिषी ने बताया है इस बाऱ लड़का ही होगा…वे गिरते स्वास्थ्य के बावजूद चौथी बाऱ माँ बनने के लिये सहमत हो गई।
कल तक सबकी आँखों का तारा कार्तिकेय, सहमा से कोने में बैठा था, एक रात में ही सावित्री जी का जीवन बदल गया, कल तक पुत्रवती होने के दम्भ से उनका सर अकड़ा रहता था, आज सबसे नजरें चुरा रही थी।
दो दिन बाद दयाशंकर जी भी अस्पताल से घर आ गये, सारे मुहल्ले में कार्तिकेय की चर्चा थी, कल तक होठों पे लाली लगाने पर, बहनों के दुपट्टे को साड़ी पहनने पर लोग मासूमियत समझ हँसते थे, लेकिन अब असिलियत तो सामने आ गई।
“अरे हमें पहले ही लगता था, वो कुछ अलग है, तभी तो देखो मुआ लड़कियों के झुण्ड में ही रहता था, होठों और गालों पर लाली लगा कर…”पिंटू की माँ दूसरी पड़ोसन से बोली…।
पड़ोसियों के ताने और कटाक्ष सुन सुन कर दयाशंकर परेशान थे, इस समस्या का कोई समाधान ना दिखता, कार्तिकेय उन्हें अब जरा भी नहीं सुहाता, उससे छुटकारा पाने का उपाय उन्हें यही दिखता, उसे उस समुदाय में छोड़ आये,
कुछ दिनों बाद ताली बजाते वो कुछ लोग आये और कार्तिकेय का हाथ पकड़ने लगे, कार्तिकेय भाग कर माँ का पल्लू पकड़ लिया, लेकिन दयाशंकर जी ने बेरहमी से उसे खींच कर उन सब के हवाले कर दिया,
“अब तेरा इस घर से कोई नाता नहीं, इन्ही लोगों के साथ रह “कह दरवाजा बंद कर लिया।
” माँ मुझे बचा लो….”की गुहार सावित्री जी के बेचैन कर रही थी लेकिन पति ने कस कर हाथ पकड़ रखा था उनका।
रात भर सावित्री जी रोती रही, लड़का हो ya लड़की, पूर्ण हो या अपूर्ण हो… है तो उनकी औलाद ही…, अपूर्ण कैसे है, मातृत्व तो उसने भी पूर्ण किया था …,सुबह सवेरे घर से बाहर निकल गई। दो घंटे बाद लौटी तो उनके चेहरे पर शांति थी।
कई साल बीत गये तीनों लड़कियाँ अपने ससुराल में मग्न थी.., दयाशंकर और सावित्री अकेले जीवन बीता रहे थे…. ऐसे ही एक सुबह दयाशंकर जी के दरवाजे पर दस्तक हुई, दरवाजे पर मीडिया वालों को देख दयाशंकर जी घबरा गये…
“कीर्ति का घर यही है…”
“कौन कीर्ति…, कोई कीर्ति नहीं रहती यहाँ…, भागों यहाँ से…”
“हाँ कीर्ति उर्फ़ कार्तिकेय का घर यही है, मैं उसकी माँ हूँ..”सालों बाद सावित्री जी पति के अग्नेय नेत्रों की अवहेलना कर मजबूती से बोली।
“आपको पता है, कीर्ति मैडम को बेस्ट बिजनेस वुमन का अवार्ड मिला है, सुना है वो अपूर्ण है,.इसलिये उनके पिता ने उन्हें छोड़ दिया था…”
“कोई अपूर्ण नहीं है वो, अपूर्ण तो आप लोगों की सोच में है, मेरी बच्ची पूर्ण है,”तड़प कर सावित्री जी बोल उठी।
इतने दिनों की तड़प, आँसुओं में बह गई, जिस मातृत्व की कसक को वो दिल के भीतर बंद रखी थी, आज लक्ष्य पूर्ण होने पर, वे भावनाओं को रोक नहीं पाई…।
मीडिया वालों को भगा कर दरवाजा बंद कर ली, शाम को उनको लगा दरवाजा पर कोई है, वहम समझ वे बाहर जाते जाते लौट आई, ऐसा उनके साथ तब से हो रहा, जब से कार्तिकेय गया।
पर नहीं, आज वे दरवाजा खोलने जाते समय लौटी नहीं, जानती थी सपना सच हो गया, बच्चे को एक मुकाम मिल गया। दरवाजा खोलते ही एक साया भागने लगा ..
“रुक जाओ कीर्ति..,कब तक भागोगी,”
. “माँ…”एक अस्पष्ट स्वर उभरा..
सावित्री जी उसे गले लगा जोर से रो पड़ी, बीस साल बाद अपनी औलाद को गले लगाया।
“माँ, आप कभी दरवाजा क्यों नहीं खोलती थी “
“क्योंकि मैं जानती थी बेटा, जिसदिन मैं दरवाजा खोलूंगी तुम कमजोर पड़ अपने लक्ष्य से भटक जाओगे., तुमको मैं मजबूत और पूर्ण देखना चाहती थी .”कीर्ति के आँसू पोंछते सावित्री जी बोली।
“मुझे भी माफ करना बेटा .तुम्हारा ये पिता समाज से डर कर तुम्हे त्याग दिया था, पर मुझे गर्व है तुम पर,और तुम्हारी माँ पर जो विपरीत परिस्थितियों में भी हार नहीं मानी..। तुम्हारी माँ तुम्हारे साथ हमेशा चट्टान की तरह खड़ी रही…”दयाशंकर जी उठ कर कीर्ति के पास आ गये और उसे गले लगा लिया…।
—–संगीता त्रिपाठी
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