” माफ़ कीजियेगा भाभीजी…अब हमारे आकाश की शादी आपकी सिमरन के साथ नहीं हो सकती…।” देवीलाल ने सगाई का सामान लौटाते हुए प्रमिला जी से कहा तो वो चौंक गई।
” शादी नहीं हो सकती!…मगर क्यों भाईसाहब? सिमरन या हमसे ऐसी क्या भूल गई है जो आप…।आपकी कोई डिमांड हो तो बताइये…मैं पूरा करुँगी…।”
” नहीं भाभाजी…डिमांड वाली कोई बात नहीं है।मेरी माताजी कह रहीं हैं कि विवाह से पहले ही लड़की के पिता की मृत्यु होना अपशगुन है, इसलिए सिमरन…।” कहकर देवीलाल ने अपनी आँखें नीची कर ली।
प्रमिला जी ने बड़ी मुश्किल से अपने आँसू रोके।दस दिन पहले उनके पति का हृदयाघात से देहांत हो गया था।घर में पहले से ही शोक का माहोल था और अब बेटी का रिश्ता टूट जाना…।किसी तरह से उन्होंने खुद को संभाला और भरे गले से देवीलाल से बोलीं,” ठीक है भाईसाहब…जैसी आपकी मरज़ी…लेकिन आप मेरे साथ ऐसा व्यवहार करोगे कभी सपने में नहीं सोचा था।” देवीलाल चले गये तो वो अपने कमरे में जाकर पति की तस्वीर के आगे फूट-फूटकर रोने लगीं।
प्रमिला जी के पति गोपाल दास और देवीलाल बचपन के दोस्त थें।स्कूली पढ़ाई पूरी करके दोनों शहर आ गये और काॅलेज़ में दाखिला ले लिया।गोपाल दास अपनी पढ़ाई पूरी करके एक सरकारी दफ़्तर में नौकरी करने लगे और दो साल के बाद उन्होंने अपने पिता की पसंद की हुई लड़की प्रमिला से विवाह कर लिया।
देवीलाल कम समय में अधिक पैसा कमाकर अमीर बनना चाहते थे।इसलिये उन्होंने इंटर की पढ़ाई अधूरी छोड़कर कपड़े की छोटी-सी दुकान खोल ली।कुछ ही दिनों में उनकी वो दुकान शोरूम में बदल गई।विवाह और त्योहारों के सीजन में तो उनके शोरूम में तिल रखने की भी जगह नहीं होती थी।
फिर उन्होंने एक बड़ा घर खरीद लिया और अपने माता-पिता को अपने पास ले आये।उनके पिता ने माधवी नाम की सुशील लड़की के साथ बेटे का विवाह करवाकर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली।
गोपाल दास और देवीलाल की दोस्ती पहले जैसी ही बनी रही।एक दिन देवीलाल ने अपने मित्र को पत्नी के साथ चाय पर बुलाया।चाय पीते हुए वो मित्र से बोले,” गोपाल…मेरा बेटा आकाश अब कारोबार संभालने लगा है।
तुम्हारी बेटी सिमरन भी दो महीने बाद ग्रेजुएट हो जाएगी। तुम उचित समझो तो मैं सिमरन को अपनी बहू बनाना चाहता हूँ।दोनों बच्चे एक-दूसरे को जानते तो है ही…।” देवीलाल बोल ही रहे थे कि गोपाल दास की पत्नी बोली,”
लेकिन भाईसाहब…आपकी हैसियत के अनुसार हम दहेज़ तो नहीं दे पाएँगे।”
” भाभीजी…दहेज़-वहेज छोड़िये…आप तो बस हाँ कह दीजिये।”
तब गोपाल दास हँसते हुए बोले,” अब तो समधी जी गले मिलते हैं।” इस तरह आकाश और सिमरन की सगाई हो गई।
गोपाल दास शादी की तैयारियों में जुटे हुए थे।कभी बैंक जाते तो कभी बेटे ललित को मेहमानों और उपहारों की लिस्ट बनाने को कहते।एक दिन वो दफ़्तर से घर के लिये निकल ही रहे थे कि अचानक आह..कहते हुए अपनी छाती पर हाथ रखकर गिर पड़े।
एंबुलेंस बुलाकर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया।होश आया तो पत्नी से इतना ही कहा कि प्रमिला…सब संभाल लेना…मैं..और उनकी आँखें हमेशा के लिये बंद हो गई।तब देवीलाल बोले,” भाभी…धीरज रखिये…हम हैं ना..।” मित्र को गये अभी दस दिन भी नहीं बीते थे कि देवीलाल आकर सिमरन को अपशगुन कहकर रिश्ता तोड़ गये।प्रमिला जी का हृदय चीत्कार उठा था।
समय अपनी गति से चलता रहा।सिमरन कंप्यूटर-कोर्स करके एक स्टेशनरी शाॅप पर काम करने लगी।उसने ललित का एडमिशन भी एक इंजीनियरिंग कॉलेज़ में करा दिया।
देवीलाल ने अपने एक परिचित की बेटी मुक्ता को आकाश के लिये पसंद कर लिया और दोनों की सगाई कर दी।दो महीने बाद विवाह का शुभ मुहूर्त था।
एक दिन सिमरन अपनी बीमार सहेली पायल से मिलने अस्पताल गई।वहाँ पर पायल का चचेरा भाई वरुण भी आया हुआ था।वरुण पायल को देखता ही रहा गया।पायल ने बताया कि वरुण दिल्ली की एक कंपनी में काम करते हैं।तीन दिनों तक अस्पताल में ही सिमरन और वरुण की मुलाकातें होती रहीं।
एक दिन वरुण अपने माता-पिता के साथ सिमरन के घर पहुँच गया।उसके पिता महेन्द्र नाथ जी अपना परिचय देते हुए प्रमिला जी से बोले,” बहन जी…आपकी सिमरन हमारे लिये बहुत लकी है।जिस दिन वो वरुण से मिली, उसके अगले ही दिन आठ साल से चल रहा एक मुकदमे का फ़ैसला हमारे हक में हो गया।आप अनुमति दें तो मैं सिमरन को अपने घर की बहू बनाना चाहता हूँ।” तब प्रमिला जी ने उन्हें आकाश के बारे में बताया।
सुनकर महेन्द्र नाथ जी की पत्नी बोलीं,” बहन जी..हमारे किस्मत के द्वार तो सिमरन के आने से खुले हैं।हमारे घर की लक्ष्मी तो वही है।अगले सप्ताह वरुण दिल्ली जा रहा है…आप चाहें तो बेटी को विदा कर दीजिये या फिर हम आपके जवाब का इंतजार करेंगे।”
प्रमिला जी की आँखें खुशी-से छलछला उठी।अगले ही दिन उन्होंने सिमरन की सगाई वरुण के साथ कर दी और तीन दिनों के बाद विवाह का मुहूर्त भी निकल गया।
देवीलाल बड़े जोर-शोर से बेटे के विवाह की तैयारी कर रहें थे कि अचानक एक सड़क दुर्घटना में उनके जवान भतीजे की मृत्यु हो गई।वो विवाह की तिथि आगे बढ़ाने के लिये समधी के घर गये।उनके समधी ने कहा,” माफ़ कीजिये देवीलाल जी…अब हमारी मुक्ता की शादी आपके आकाश के साथ नहीं हो सकती है।विवाह से कुछ दिनों पूर्व ही आपके घर में एक मृत्यु हो जाना हमारे यहाँ अपशगुन माना जाता है।”
” अपशगुन!…पढ़े-लिखे होकर आपके ऐसे विचार! “
” देवीलाल जी…ये कहाँ लिखा है कि अपशगुन केवल बेटी ही होती है…बेटा भी तो अपशगुन हो सकता है।”
कहते हुए मुक्ता के पिता देवीलाल को बाहर का रास्ता दिखाने लगे तब देवीलाल बोले,” हम तो संबंधी होने जा रहें थें लेकिन आप मेरे साथ ऐसा व्यवहार करोगे कभी सपने में नहीं सोचा था..।” कहकर वो वहाँ से चले आये।तब उन्हें याद आया कि कुछ महीनों पहले मैंने भी तो इसी तरह प्रमिला भाभी को….।उनके कदम प्रमिला जी के घर की तरफ़ मुड़ गये।
प्रमिला जी का घर रंग-बिरंगे बल्बों से जगमगा रहा था।बरात दरवाज़े पर आ चुकी थी।देवीलाल कुछ पूछते कि उन्हें सुनाई दिया।वर के पिता कह रहें थें,” भाई…हमारी बहू सिमरन तो साक्षात् लक्ष्मी है।उसके कदम अभी पड़े भी नहीं कि खुशियाँ हमारे कदम चूमने लगी है।मैं तो…।” देवीलाल मन ही मन सिमरन को आशीर्वाद देकर वापस अपने घर चले आये।
विभा गुप्ता
स्वरचित
# मेरे साथ ऐसा व्यवहार करोगे कभी सपने में नहीं सोचा था